‘श्री लक्ष्मी’ का पौराणिक एवं वैश्विक स्वरूप

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राजेश कश्यप

प्रतिवर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को श्री लक्ष्मी पूजन के रूप मे दीपोत्सव अर्थात् दीपावली का पर्व मनाया जाता है। इस दिन की बड़ी अपार महता है। यूं तो यह पर्व मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के चौदह वर्ष वनवास पूरा करके वापिस अयोध्या में लौटने की खुशी में मनाया जाता है। लेकिन, इसके साथ ही पौराणिक मान्यता है कि इसी दिन समुन्द्र-मन्थन के दौरान चौदह रत्नों मे शामिल श्री लक्ष्मी जी समुन्द्र से निकली थी। चूंकि इस दुनिया में ऐश्वर्य, समृद्धि, उन्नति, प्रगति आदि सब कुछ धन अर्थात् रूपये-पैसे, सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात आदि पर निर्भर करती है और इन सबकी दात्री श्री लक्ष्मी जी हैं। श्री लक्ष्मी जी की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से ही भक्त दीपावली की संध्या को पूरे विधि विधान के साथ उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। मार्कंडेय पुराण के अनुसार समृद्धि की देवी श्री लक्ष्मी जी की पूजा सर्वप्रथम नारायण ने स्वर्ग में की। इसके बाद श्री लक्ष्मी जी की पूजा दूसरी बार, ब्रहा्रा जी ने, तीसरी बार शिव जी ने, चौथी बार समुन्द्र मन्थन के समय विष्णु जी ने, पांचवी बार मनु ने और छठी बार नागों ने की थी।

आम तौर पर हम जो जानते हैं, उसके अनुसार श्री लक्ष्मी भगवान विष्णु की भार्या हैं। हमारे प्राचीन ग्रन्थों मे भी श्री लक्ष्मी को भगवान विष्णु जी की आदि शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। यदि हम अथर्ववेद की बात पर विश्वास करें तो प्रत्येक व्यक्ति के जन्म के साथ एक सौ लक्ष्मी जन्म लेती हैं। लेकिन, इनमें से आठ लक्ष्मी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानी गई हैं, जिनकों ‘अष्टलक्ष्मी’ कहा जाता है। ये ‘अष्टलक्ष्मी’ इस प्रकार हैं, सत्यलक्ष्मी, योगलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी और आद्यलक्ष्मी।

विष्णु पुराण के अनुसार जब सुर-असुर समुन्द्र मंथन कर थे, उस दौरान श्री लक्ष्मी जी प्रकट हुई थी। उस समय उसे हाथियों द्वारा स्नान करवाया गया था, जिसके कारण ही उनका नाम ‘गजलक्ष्मी’ पड़ा। कहा जाता है कि लक्ष्मी का ‘गजलक्ष्मी’ के रूप में पुनर्जन्म था, क्योंकि इन्द्र को दुर्वासा ऋषि के द्वारा दिए गए ‘श्रीहीन’ होने के अभिशाप के कारण श्री लक्ष्मी जी को समुन्द्र में समाना पड़ा था।

कुछ पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार श्री लक्ष्मी का प्रादुर्भाव ‘भू’ अथवा ‘सागर’ से हुआ, किन्तु महाभारत में उन्होंने सामान्य जीवधारियों की ही तरह जन्म लिया। सृष्टि की रचना से संबंधित पौराणिक प्रसंगों से पता चलता है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्रियों का विवाह चन्द्र, धर्म और महर्षि कश्यप के साथ किया। जो कन्याएं धर्म की पत्नी बनीं, वे थीं कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पृष्टि, श्रद्धा, बृद्धि, लज्जा और मति। स्कन्ध पुराण के अनुसार लक्ष्मी का जन्म भी सीता की ही तरह भू-गर्भ से हुआ था। इसीलिए लक्ष्मी को ‘उदधि-तन्या’ भी कहा जाता है।

श्री लक्ष्मी जी के उद्भव की कहानी चाहे कुछ भी हो, लेकिन प्रत्येक जनमानस श्री लक्ष्मी जी की पूरी श्रद्धा एवं विश्वास के साथ कार्तिक मास की अमावस्या अर्थात् दीपावली की संध्या को पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना करता है। ग्रामीण समाज में भी श्री लक्ष्मी को धन-धान्य की देवी के रूप में अगाध श्रद्धा एवं विश्वास के साथ पूजा जाता है। किसान श्री लक्ष्मी को अपनी धान की फसल के रूप में देखते हैं। क्योंकि दीपावली पर्व पर किसानों की धान की फसल पककर तैयार हो चुकी होती है और इसी धान को बेचने के बाद किसान के घर श्री लक्ष्मी जी का आगमन होता है।

बाली द्वीप के लोगों का विश्वास है कि हिन्देशिया के राजाओं की श्री लक्ष्मी उनकी रानी के रूप में रहती थीं। लेकिन, जब उनका विष्णु से प्रेम हो गया तो उसकी मृत्यु हो गई। पृथ्वी पर जहां उनकी समाधि बनी, उस स्थान पर कई पौधे उग आए। इनमें धान का पौधा उनकी नाभि से उत्पन्न हुआ। अत: यह सर्वश्रेष्ठ माना गया। सूडान में भी श्री लक्ष्मी को धान उत्पन्न करने वाली देवी माना गया है। ग्रीस में सामाजिक सम्पन्नता की देवी के रूप में ‘री’ की उपासना का प्रचलन है। खेती तथा यूनानी देवी ‘री’ को श्री लक्ष्मी का समानार्थी माना गया है।

श्री लक्ष्मी जी के कलात्मक रूप का इतिहास कुशाणांे के शासनकाल से आरंभ हुआ बताया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि श्री लक्ष्मी जी के मूल स्वरूप की कल्पना वैदिक काल के बाद की गई। इसके बाद विश्व-संस्कृति में श्री लक्ष्मी को विभिन्न मुद्राओं में दर्शाया जाने लगा और सिक्कों आदि पर अंकित किया जाने लगा।

समुद्रगुप्त के सिक्कों पर श्री लक्ष्मी जी मंचासीन हैं। जबकि, उसके भाई काच गुप्त के सिक्कों पर उन्हें खड़ी मुद्रा में अंकित किया गया है। दिल्ली के प्रथम सम्राट मोहम्मद बिन कासिम के सोने के सिक्कों पर ‘गजलक्ष्मी’ अंकित है। जबकि, यूनानी सिक्कों में श्री लक्ष्मी को ‘नृत्य-मुद्रा’ में अंकित किया गया है। चोल सम्राट के सिक्कों पर श्री लक्ष्मी जी साधारण मुद्रा में अंकित हैं। रोम से प्राप्त एक चांदी की थाली पर श्री लक्ष्मी जी को ‘भारत-लक्ष्मी’ के रूप मे चित्रित किया गया है। कम्बोडिया से प्राप्त एक प्रतिमा में श्री लक्ष्मी जी को भगवान विष्णु जी के पैर दबाते हुए दिखाया गया है। कौशाम्बी से प्राप्त शुंगकालीन श्री लक्ष्मी कमल पर आसीन हैं और तक्षशिला में प्राप्त प्रतिमा में उन्हें एक हाथ में दीप धारण किए हुए दिखाया गया है। रामायण में उल्लेख मिलता है कि रावण द्वारा कुबेर से प्राप्त पुष्पक विमान पर कमल लिए हुए श्री लक्ष्मी जी की छवि अंकित थी। श्रीलंका, जापान आदि देशांे में भी श्री लक्ष्मी जी की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।

गुप्तकालीन अभिलेखों में ‘श्री लक्ष्मी’ को ‘श्री’ के रूप में भी अंकित किया गया है। चिर पुरातन वैदिक शब्द ‘श्री’ आज भी प्रचलित है। मानव को समुन्नत, सुविकसित और कांतिवार बनाने का सम्पूर्ण श्रेय ‘श्री’ को ही प्राप्त है। इसीलिए ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ की प्राप्ति के लिए दीपावली पर्व पर संयुक्त रूप मे ‘श्री लक्ष्मी’ की पूजा-अर्चना की जाती है।

 

(राजेश कश्यप)

 

 

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  1. धन की देवी लक्ष्मी जी हैं। धन के विना संसार का कोई सुख सम्भव नहीं। कहा जाता कि, वैसे तो संसार में अनेक प्रकार के दुःख हैं। लेकिन, दारिद्र्य दुःख से बढ़कर कोई बड़ा दुःख नहीं है। दारिद्र्य निवारण के लिए लक्ष्मी के आठ स्वरुप की पूजा अर्चना फलदायी सिद्ध होता है।

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