सृष्टि के समान वेदों की प्राचीनता ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण

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वेदाध्ययन करते हुए विचार आया है कि संसार की भाषा में समयानुसार परिवर्तन होते रहते हैं। एक भाषा का प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव दूसरी भाषा पर, दूसरी का तीसरी व अन्यों पर पड़ता देखा जाता है। हिन्दी में आजकल लोग अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर रहे हैं। फिर क्या कारण है कि वेद सृष्टि के आदि से आज तक अपने मूल स्वरूप में विद्यमान हैं। वेदों का वर्णन पुराणों, रामचरितमानस आदि नवीन ग्रन्थों सहित दर्शन, उपनिषद, महाभारत, रामायण, मनुस्मृति व शतपथ ब्राह्मण आदि में उपलब्ध है। यह वेदों को सृष्टि का आद्य ग्रन्थ सिद्ध करते हैं। विदेशी विद्वानों ने भी वेदों को प्राचीनतम ज्ञान की पुस्तक स्वीकार किया है। वेदों का आज जो यथार्थ महत्व देश व विदेश के लोगों को विदित है, उसका आधार महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों सहित उनका वेदों का भाष्य है। इन व अन्य ग्रन्थों को लिखकर महर्षि दयानन्द जी ने न केवल भारत के लोगों अपितु विश्व मानव समुदाय पर महान उपकार किया है। वेदों की महत्ता एवं गौरव वर्णनातीत है, ऐसा हमें लगता है। यदि कोई वैदिक विद्वान हमारी इस बात से सहमत न हो तो वह हमारा उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। हमें प्रसन्नता होगी।

वेदों की रचना पर जब हमारा ध्यान जाता है तो ज्ञात होता है कि वेद अधिकांशतः काव्यमय हैं। गद्य की तुलना में पद्यमय रचना करना कठिन होता है और यह गद्य की तुलना में प्रभावशाली होती है, ऐसा हम सबका अनुभव है। महर्षि बाल्मिकी को रामायण महाकाव्य लिखने के कारण आदि महाकवि माना जाता है। जबकि वह स्वयं वेदों का उल्लेख अपने ग्रन्थ में करते हैं जिससे वह आदि कवि न होकर एक बहुत प्राचीन कवि सिद्ध होते हैं। मनुस्मृति भी अति प्राचीन ग्रन्थ है जो महर्षि मनु का लिखा हुआ है। यह प्राचीन ग्रन्थ भी काव्यमय है अर्थात् संस्कृत के श्लोकों में रचित है। आदि कवि हमारी इस सृष्टि में यदि कोई है तो वह वेद के ज्ञानदाता व रचयिता हैं और वह और कोई नहीं इस सृष्टि और हम सब प्राणियों के जन्मदाता परम पिता परमेश्वर ही हैं। अब वेदों की दूसरी विशेषता पर ध्यान देते हैं तो वेद की भाषा ‘संस्कृत’ की अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है। संस्कृत की महत्ता तो उन लोगों को अधिक विदित होती है कि जिन्होंने अष्टाध्यायी व निरुक्त पद्धति से संस्कृत का अध्ययन किया है। वेदों में सर्वत्र शब्दों को कई कई शब्दों व पदों की सन्धियों में प्रस्तुत किया गया है। सन्धि विच्छेद कर वेद के पदों का अर्थ करने पर ज्ञात होता है कि एक एक शब्द के अनेक अर्थ हैं। वेद के पदों के अर्थ प्रकरणानुसार, अपनी अध्ययन सामर्थ्य व यौगिक क्षमताओं के अनुसार किये जाते हैं। अतः यह स्वाभाविक है कि यदि कोई विद्वान प्रकरण को विस्मृत कर देता है तो वह वेद मन्त्रों के यथार्थ अर्थ पाठकों तक नहीं पहुंचा सकेगा।

महाभारत काल के बाद से आज तक महर्षि दयानन्द जी की योग्यता वाला व्यक्ति देश वा संसार में उत्पन्न नहीं हुआ। अतः वेदों का अध्ययन करते हुए वैदिक पदों से यथार्थ रूप से परिचय होने के साथ महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य, योग व समाधि रूपी पुरूषार्थ कर वेद मन्त्रों के प्रकरणानुसार जो अर्थ किये हैं, उन्हें देखकर विद्वानों व पाठकों को आश्चर्य होता है। इससे पूर्व अन्य किसी आचार्य व विद्वान के उनकी तुलना में अधिक गहन व देश-समाजोपयोगी अर्थ नहीं मिलते। इस स्थिति को देखकर हमें यह भी विचार आता है कि यदि महर्षि दयानन्द न आये होते और उन्होंने वेदों पर भाष्य आदि कार्य न किया होता तो संसार की कितनी बड़ी हानि व क्षति होती? हमारा अत्यन्त सौभाग्य है कि हमें चारों वेद व उनके भाष्य सुलभ हैं जिसमें सर्वाधिक योगदान महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायी शिष्यों का ही है और कुछ कुछ उनके प्रकाशकों सहित हमारे वैज्ञानिकों को भी है जिन्होंने आधुनिक प्रेस व मुद्रण की सुविधाओं के आविष्कार किये हैं। महर्षि दयानन्द के पूर्व उत्पन्न देश व विश्व के निवासियों को वेदों का यह ज्ञान सुलभ न होने से वह हमसे अधिक भाग्यशाली नहीं थे। यही कारण है कि अज्ञानता के काल में संसार के सभी मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। आज संसार का कोई मत व विद्वान वेदों की चर्चा कर उसकी मान्यताओं व सिद्धान्तों को झुठलाने का साहस नहीं कर सकता जिससे वेदों की ज्येष्ठता व श्रेष्ठता सिद्ध होती है। महर्षि दयानन्द के काल में तो आजकल की तरह की मुद्रण सुविधायें नहीं थी और उनसे पूर्व ऐसा समय भी देश व संसार में था जब मुद्रण होता ही नहीं था, केवल हस्तलिखित कार्य ही होता था। तब कागज व पेपर भी अच्छी किस्म का नहीं होता था। यह हमारे आधुनिक वैज्ञानिकों की देन है कि जिसके लिए हम उनका आभार स्वीकार करते हैं।

वेद ईश्वरीय ज्ञान है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि वेद सर्व प्राचीन एवं आदि ज्ञान हैं या नहीं? यदि यह सर्व प्राचीन एवं आदि ज्ञान है तो फिर इसके ईश्वरीय ज्ञान होने में कोई सन्देह नहीं रहता। इसका कारण है कि सृष्टि की आदि में सभी मनुष्य व प्राणी अपने आप, बिना ईश्वर के बनाये, नहीं बनते। सृष्टि के आरम्भ में न केवल मनुष्य, स्त्री व पुरुष, अपितु सभी प्रकार के प्राणी भी बने, वनस्पतियां, सूर्य, पृथिवी, ग्रह व उपग्रह आदि, अग्नि, जल, वायु आकाश आदि सभी पदार्थ जो आज इस पृथिवी पर हैं, बने थे। यह स्वंय अपने आप नहीं बन सकते। यह ईश्वर के द्वारा ही बनाये गये थे व बनाये जाते हैं। कोई भी रचना अपने आप अस्तित्व में कदापि नहीं आती। इसके लिए एक बुद्धिमान, ज्ञान सम्पन्न, शक्तिसम्पन्न व सामर्थ्यवान रचनाकार वा निमित्त कारण होना चाहिये। रचनाकार जड़ व निर्जीव कदापि नहीं हो सकता। रचना सदैव चेतन सत्ता जिसमें मनुष्य आदि भी सम्मिलित हैं, द्वारा ही होती है। रचनायें दो प्रकार की होती हैं। एक रचना वह होती है जिसे मनुष्य कर सकता है व करता है। यह पौरूषेय रचना कहलाती है। दूसरी वह जो मनुष्य नहीं कर सकता। मनुष्यों द्वारा न हो सकने वाली सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ पदार्थों की रचना कौन करता है? वह रचनायें ईश्वर के द्वारा होती हैं। उसे अपौरुषेय रचनायें कहते हैं। सृष्टि की आदि में सृष्टि, सभी प्राणियों व वनस्पति जगत आदि की रचनायें ईश्वरीय रचनायें हैं। मनुष्यों को क्योंकि परमात्मा ने ही बनाया है अतः उसे सभी प्रकार का ज्ञान भी ईश्वर से मिलना ही सम्भव, उचित व आवश्यक है। मनुष्य में यह सामर्थ्य भी नहीं है कि वह बिना किसी भाषा को जाने किसी नई भाषा को बना सके। अतः प्रथम भाषा, वेदों की भाषा संस्कृत, उसे ईश्वर से ही प्राप्त होती है। विचार कीजिए कि क्या कोई माता पिता ऐसे भी होते हैं जो अपनी सन्तानों को जन्म तो दें परन्तु उनको अपनी भाषा न सिखायें? यदि माता-पिता सन्तानों को जन्म देने के साथ उन्हें अपनी भाषा भी सिखाते हैं तो ईश्वर भी अवश्य ही सिखाता है। यह तर्कसंगत, युक्तियिुक्त व सम्भव कोटि में आता है। यदि ईश्वर मनुष्यों को ज्ञान न देता तो फिर वह सर्वशक्तिमान नहीं कहला सकता था? ज्ञान हमेशा भाषा में निहित होता है। अतः ईश्वरीय ज्ञान की भी अपनी एक भाषा है और वह वेदों की संस्कृत है। यदि ईश्वर मनुष्यों को भाषा सहित ज्ञान न दे सकता व देता, तो हम अनुभव करते हैं कि ईश्वर मनुष्य को बनाता ही नहीं। ईश्वर ने संसार व मनुष्य आदि प्राणी बनाये हैं तो इनको अपने जीवन निर्वाह के लिए भाषा व ज्ञान देना भी उसका कर्तव्य है और वह वेद के रूप में हमारे सामने है। वेदों का यह ज्ञान सबसे अधिक प्राचीन है व सब सत्य विद्याओं से युक्त भी है। इसकी सारी बातें सृष्टि क्रम के अनुकूल व ज्ञान-विज्ञान सम्मत हैं। इसी के आधार पर संसार कुछ सौ या कुछ हजार वर्षों से नहीं अपितु महाभारत काल व अद्यावधि तक विगत 1,96,08,53,115 वर्षों से चलता चला आ रहा है। यदि ‘‘चार वेद” ईश्वरीय ज्ञान न होता तो अन्य पुस्तकों की भांति यह कब का नष्ट हो चुका होता। इसका आज अपने मूल स्वरुप में विद्यमान होना भी इसे ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध कर रहा है और यह स्वयं में एक चमत्कार व आश्चर्य ही है। इसके लिए वेद रक्षक सभी ऋषि महर्षियों को सादर नमन है। अतः वेद ही ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होते है।

एक अन्य दृष्टि से भी विचार करते हैं। यदि ईश्वर, वेद, सृष्टि, जीव व जीवात्मा, मनुष्य, सूर्य, पृथिवी, ग्रह, अग्नि, आकाश, वायु आदि शब्दों पर विचार करें तो यह सभी शब्द हमें वेदों से ही प्राप्त हुए हैं। वेदों में इन शब्दों को किसने बनाकर रखा है। क्या उन मनुष्यों ने, जो भाषा का ज्ञान भी न रखते हों, ऐसे उत्तम शब्दों का विधान व रचना कर सकते थे? कदापि नहीं। मनुष्यों द्वारा की गई कोई भी आरम्भिक रचना अन्तिम व निर्दोष नहीं होती। समय के साथ साथ उसमें सुधार होता है। इन शब्दों से पूर्व इनका अन्य कोई स्वरूप था, यह किसी को ज्ञात नहीं और न ही होना सम्भव है। अतः यह सभी शब्द व समस्त शब्दमय वेद ईश्वरीय देन व उसके द्वारा प्रदत्त वा निर्मित्त हैं, इसी कारण पूर्ण निर्दोष व सर्वोत्तम हैं। इससे भी वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध है।

हमने वेदों की चर्चा कर उसे यथार्थ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध किया है। हम चाहते हैं कि जो लोग अपनी धर्म पुस्तक को ईश्वर ज्ञान व प्रेरणा मानते हैं वह वेदों के साथ अपने मत की पुस्तक की तुलना करें तो उन्हें स्वयं ही अन्तर पता चल जायेगा। वेदों में जितने विषयों का सृष्टि क्रम के अनुकूल ज्ञान है उसका आधा व एक तिहाई भी अन्य मतों में उपलब्ध नहीं होता। यह वेदेतर कोई मत अपनी पुस्तक को ईश्वर ज्ञान मानता है तो उसमें जो अज्ञान व कुरीतियां विद्यमान हैं, क्या वह भी ईश्वरीय देने हैं? इसका उत्तर हां कदापि न हो सकने के कारण केवल वेद ज्ञान ही ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है क्योंकि वेदों में असत्य व अज्ञानमूलक कोई बात नहीं है। हम आशा करते हैं कि निष्पक्ष रूप से लिखे इस संक्षिप्त लेख को पाठक पसन्द करेंगे।

 

2 COMMENTS

  1. मान लीजिये आपका जन्म सन 1965 में हुआ और सन 2010 में आप एक बड़ी सी पुस्तक A का चार हिस्सों में विभाजन करके प्रकाशित कर देते हैं – A1,A2,A3,A4 और पुस्तक A का वर्गीकरण करने का कार्य आपसे पहले किसी ने नहीं किया।
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    अब मैं 2016 में एक पुस्तक B पढ़ रहा हूँ, जिसमें A1,A2,A3,A4 का उल्लेख है – तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पुस्तक B, जो मैं पढ़ रहा हूँ – यह सन 2010 के बाद ही लिखी गयी होगी। इससे यही सिद्ध होता है कि पुस्तक B सन 2010 से पहले की रचना नहीं हो सकती.
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    जैसा कि यह ज्ञात है कि वेद पहले विशाल थे, बड़े थे – वेदव्यास जी ने वेद को चार हिस्सों में बाँट दिया – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद
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    वेदव्यास जी का समय था द्वापर-युग में (महाभारत, गीता काल में)
    महाभारत कितनी पुरानी मानी जाती है – आज से करीब 5100 वर्ष पूर्व
    इसका मतलब चार वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) का जिक्र महाभारत में हो सकता है, गीता में हो सकता है, पुराणों में हो सकता है, क्यूंकि ये सब वेदव्यास ने लिखे – किन्तु रामायण में नहीं होना चाहिए।
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    द्वापरयुग की समाप्ति के समय व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया।
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    अब इसी बात को जारी रखते हुए मैं आपका ध्यान वाल्मीकि-रामायण में किष्किंधाकांड के सर्ग 3, श्लोक 28 की तरफ आकर्षित करना चाहता हूँ, जो इस प्रकार है –
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    न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ–यजुर्वेद धारिणः |
    न अ–साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || ४-३-२८
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    अर्थ : जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता.
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    अब उपरोक्त श्लोक विचारणीय है कि रामायण 8-10 लाख वर्ष पूर्व (त्रेतायुग) की मानी जाती है और वेदों को चार हिस्सों में बांटने वाले वेदव्यास हुए आज से करीब 5100 वर्ष पूर्व (द्वापरयुग में) ।
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    क्या वाल्मीकि-रामायण में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद का उल्लेख आना कुछ अजीब सा नहीं लगता?
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    इसमें एक बात और ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त श्लोक में सिर्फ तीन वेदों का ही जिक्र है – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद।
    इसमें चौथा वेद अथर्ववेद का जिक्र नहीं है।
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    क्या वाल्मीकि-रामायण के इस श्लोक से यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि –
    जब वाल्मीकि-रामायण लिखी गयी, तब तक वेद का वर्गीकरण तीन हिस्सों में हो चुका था (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद) और चौथा वेद (अथर्ववेद) वाल्मीकि-रामायण के बाद का है।

    • ंआपका विस्तृत आलोख पढ़ा। महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों का चार भागों में विभाजन नहीं किया। यह सृष्टि के आरम्भ से ही चार भागों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के रूप में विद्यमान हैं। शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ जो कि रामायण से भी पूर्व का ग्रन्थ है उसके अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। वेदों में अथर्ववेद के लिए छन्द शब्द का प्रयोग भी मिलता है। यह चार वेद तीन विद्याओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह विद्यायें हैं ज्ञान, कर्म और उपासना। विज्ञान का समावेश ज्ञान में हो जाने से बाल्मीकि रामायण के श्लोक में सम्भवतः विज्ञान प्रधान वेद अथर्ववंेद का नाम नही आया है। बाल्मीकि रामायण बाल्मीकि जी के नाम से प्रसिद्ध है परन्तु चार वेद किसी एक या अधिक लेखकों के नाम से प्रसिद्ध नही है। यदि अथर्ववेद बाद में बनता तो वह उसके लेखक, रचयिता व ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ होता। ऐसा न होने का कारण अथर्ववेद का सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा अंगिरा ऋषि को दिया गया ज्ञान है ओ अन्य वेदों के समय में ईश्वर से ऋषियों को मिला। आपने जो बातें लिखी हैं, उनका समावेश इन पंक्तियों में हो जाता है। सादर।

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