सृष्टि सम्बत का प्रारम्भिक काल

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अशोक “प्रवृद्ध”

काल गणना करने के लिए किसी प्रारम्भिक विन्दु का निश्चय करना पड़ता है, जहाँ से कि गणना आरम्भ की जा सके। उदाहरणतः यूरोपीय ईसाई राज्यों में काल की गणना हजरत ईसा के फाँसी दिये जाने के दिन से आरम्भ होती है, जिसे ईसा सम्बत कहते हैं । इस्लामी राज्यों में हजरत मोहम्मद के मक्का से मदीना जाने के काल से गणना आरम्भ होती है। इसे हिजरी सम्बत नाम दिया गया है । भारत में मुसलमानों के आने से पूर्व दो प्रकार से काल गणना होती थी।एक गणना सार्वभौमिक मानी जाती थी, यह युग गणना के नाम से विख्यात थी, और दूसरे स्थानीय राजे-महाराजे अपने तथा पारम्परिक राज्य की स्थापना से करते थे। सार्वभौमिक गणना एक ही थी, जो सम्पूर्ण देश में प्रचलित थी । यह पुराणादि ग्रन्थों तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में मिलती है जो देश की व्यवस्था का वर्णन करने के लिए लिखे गये हैं ।यह सृष्टि जिसमें सूर्यमंडल एक छोटा सा भाग है, इसका बनना जब से आरम्भ हुआ है, तब से ही यह सम्बत आरम्भ किया गया माना गया है। इस सम्बत को सृष्टि सम्बत भी कहते हैं। जब यह सृष्टि बनती है, उसको ब्रह्मदिन कहते हैं, और जब विनष्ट हो जाती है उसे ब्रह्मरात्रि कहते हैं। जिस प्रकार वर्तमान दिनमान नापने के लिए दिन-रात के ठीक मध्य के उपरान्त आरम्भ होता है वैसे ही ब्रह्मदिन, ब्रह्मरात्रि के मध्य के उपरान्त आरम्भ होता है ।यह क्यों होता है, इस विषय में वर्तमान दिनमान वाले क्या युक्ति देते हैं यह तो ज्ञात नहीं, परन्तु सृष्टि सम्बत वाले युक्ति देते हुए कहते हैं कि प्रकाश तो सूर्य बन जाने और सूर्य में आपः कणों के यज्ञ में सामग्री की भाँति पड़कर स्वाहा होने पर होता है। परन्तु सृष्टि-रचना कार्य तो पूर्ण सूर्य बनने और उसमे आपः का हवन होने से बहुत पहले से आरम्भ हो चुकी थी।

eraप्रलय काल में जब पूर्ण जगत परमाणु रूप में था, तब व्योम में पूर्ण अन्धकार था । सबको निश्चित अप्रज्ञात (न जाना जाने योग्य) ही कहा है । उस समय तीन पदार्थ थे। एक था स्वधा अर्थात प्रकृति परमाणु रूप। परमाणु साम्यावस्था में थे। साम्यावस्था का अभिप्राय है तीन शक्तियों- सत्व, रजस् और तमस् की संतुलित अवस्था। ये शक्तियाँ परस्पर साम्यावस्था में थी। एक अन्य पदार्थ भी था, यह निश्चय ही परमात्मा का तेज था। इसे ऋग्वेद 10-129-2 में आनीत अवात्तम् कहा है। ऋग्वेद 1-162-1,2 के अनुसार ब्रह्मरात्रि के मध्य के तुरन्त उपरान्त आनीत अवात्तम् परमात्मा का तेज जागृत हो उठा और साम्यावस्था में परमाणुओं पर लगाम की भाँति आरूढ़ हो गया। वेद परमाणु को जो त्रितः (साम्यावस्था में परमाणु) कहा है, इसका उल्लेख ऋग्वेद 10-129-3 में भी किया गया है। इस तेज के जागृत होने के काल को काल गणना का प्रारम्भिक विन्दु माना गया है। इस समय से सृष्टि सम्बत आरम्भ होता है। आरम्भ में ही परमात्मा का तेज परमाणु (त्रित) पर लगाम की भाँति आरूढ़ हुआ। परमाणु की साम्यावस्था भंग हुई और असाम्यावस्था आरम्भ हुई। वहाँ कहा है कि पहले परमाणु के भीतर इन्द्र छिपा हुआ था। अब यह प्रकट हुआ और तीन प्रकार की शक्ति की रश्मियाँ बाहर फेंकने लगा ।इससे आस-पास के परमाणु गतिशील हो गये और फिर उनके संयोग बनने लगे। ये निबन्धन कहे जाते हैं । इनको आपः कहा है। ये तीन प्रकार के बनते हैं और फिर ये कारण हो जाते हैं जगत के सब पदार्थ बनाने के लिए। जब परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई तो परमाणु और उससे बने पदार्थ वृताकार गति में घूमने लगे, और प्रकृति में वेग से परिवर्तन होने लगे । इस अवस्था को हिरण्यगर्भ कहा है। परमाणुओं की भाग-दौड़ और उनमे आकर्षण-विकर्षण के कारण ऊष्मा और प्रकाश उत्पन्न हुए । इसे उषा का नाम दिया गया। तब तक सूर्य नहीं बना था, यह प्रकाश ऐसा था जैसा दिन आरम्भ होने और सूर्य उदय होने  से पूर्व आकाश में फ़ैल जाता है। यह प्रकाशपूर्ण बादल भी अब व्योम में अनेक घूमते दिखाई देते हैं । वर्तमान वैज्ञानिक  इनको नेबुली कहते हैं, किन्तु वेद की भाषा में इनको हिरण्यगर्भ कहा गया है। ऐसी मान्यता है कि एक देवयुग तक हिरण्यगर्भ पकता रहा। इसमें बनने वाले सूर्य-चन्द्र-तारागण इत्यादि बने तो यह फटा और फिर सूर्यमंडल के आकार-विस्तार का जगत बना। तब तक सूर्य बन गया था। आरम्भ में तो सूर्य और पृथ्वी दोनों ही अन्धकारमय थे, परन्तु जिस ग्रह पर आपः और परमात्मा की शक्ति का संयोग हुआ वह सूर्य की भाँति प्रकाशमान हो गया। इसका महाभारत शान्ति पर्व में एक अलंकार के रूप में वर्णन किया है। वहाँ ब्रह्मा एक घटना विशेष पर परमात्मा से सहायता माँगते हुए कहता है। ध्यातव्य हो कि ब्रह्मा ही परमात्मा की वह प्राणशक्ति है जो सृष्टि-रचना करती है। जब इस रचना-शक्ति का क्रम किसी कारण से अवरूद्ध हुआ तो अलंकार रूप में वह शक्ति अर्थात ब्रह्मा परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहता है- मेरा पहला जन्म हुआ था आपके मन में। ऋग्वेद 10-129-3 के अनुसार परमात्मा के मन में रचना का बीज बन गया। बस यह काल सृष्टि सम्बत का आरम्भ हुआ। ब्रह्मा ने कहा है कि मेरा दूसरा जन्म, अभिप्राय है, कार्य आरम्भ हुआ अब परमात्मा के नेत्र से। इसका अभिप्राय है कि आँख से देखकर मार्ग निश्चय होता है। अतः सृष्टि-रचना शक्तियों का मार्गदर्शन हुआ कि उसे क्या करना है? वेद के अनुसार परमाणुओं पर लगी लगाम ने आँख खोली अर्थात भाँति-भाँति के परमाणुओं को खोल दिया और इसमें से इन्द्र प्रकट हुआ। ब्रह्मा का आगे मेरा जन्म हुआ तो वाक् प्रकट हुई। वेद में यह कहा गया है कि इन्द्र के प्रकट होने से जब निबन्धन होने लगे तो वेद छन्दों में प्रसारित होने लगा। यह आपः के द्वारा होने लगा था। तत्पश्चात ब्रह्मा का चौथा कर्म आरम्भ हुआ। यह कार्य सुनने के लिए कानों का निर्माण था अर्थात वेद छन्दों में प्रसारित होने लगा तो परमाणु ही उसको सुनने लगे। आगे कहा है कि वायु परमात्मा की नासिका से बहने लगी। वायु का अभिप्राय हमारी श्वास लेने वाली वायु नहीं। वेद में वायु का अर्थ गति है। परमात्मा द्वारा पदार्थों में गति हुई तो सूर्य इत्यादि ग्रह और नक्षत्र चलने लगे। इस गति से ब्रह्माण्ड अर्थात सूर्यमंडल बन गया।यह ब्रह्मा का छठा जन्म कार्य था। इस समय पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमने लगी। तब यह ठण्डी हो गई थी।तब ब्रह्मा का सातवाँ कर्म आरम्भ हुआ । इससे पृथ्वी पर वनस्पतियाँ, कीट, पतंगे,पशु और फिर मानव उत्पन्न हुए। मनुस्मृति में भी इसका वर्णन करते हुए बताया है कि तब ब्रह्मा ने पृथ्वी रुपी कमल पर बैठकर वनस्पतियाँ, कीट, पतंगे, पशु और अन्त में मनुष्य उत्पन्न किये।

 

महाभारत में कहा गया है कि जो वेदवाणी पहले कही जा रही थी वह अवरूद्ध हो गई अर्थात उसका कार्य आगे नहीं चल रहा था। तब ब्रह्मा ने परमात्मा की सहायता से ईश्वरीय ज्ञान वेद का मार्ग सुलभ किया। यह मार्ग कैसे सुलभ किया गया इसका वर्णन महाभारत में तो नहीं किया गया है, किन्तु वेद में इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि ऋषि उत्पन्न हुए और वे प्रसारित होने वाले वेद ज्ञान को समझकर मनुष्यों को समझाने लगे। ऋषियों की उत्पत्ति सूर्य के प्रयत्न से हुई। जिस शक्ति ने  ऋषि उत्पन्न किये उसे हयग्रीव कहा गया है, जिसका अर्थ है सूर्य की किरण। तब यह ज्ञान मनुष्य को मिला। यह प्रक्रिया ब्रह्मरात्रि के तुरन्त उपरान्त आरम्भ हुई। उस समय घोर अन्धकार था और जब सूर्य इत्यादि बने तो यह दिन का उदय माना जाता है। दिन आरम्भ होने से तात्पर्य ब्रह्मरात्रि के समाप्त होने से होता है, परन्तु दिन का उदय प्रकाशयुक्त हुआ जब परमात्मा ने नेत्र खोला। अर्थात ब्रह्मा के दूसरे मन्वन्तर के मध्य में। इस समय दिन का सातवाँ मन्वन्तर चल रहा है और ब्रह्मदिन का उदय होकर मध्यदिन व्यतीत हो चुका है और अब दिन अस्त होने की ओर चल रहा है। इसकी सौर वर्ष में गणना की गई है और ब्रह्मरात्रि के मध्य को व्यतीत हुए 1,97,29,40,116 वर्ष हो चुके हैं । यह काल ब्रह्मरात्रि के मध्य से व्यतीत हुआ कहा जाता है। इसमें मनुष्य का सृष्टि में आने का अनुमान 39,00,000 वर्ष माना जाता है। भारतीय परम्परानुसार प्राणी -रचना का आरम्भ वर्तमान युग के सतयुग के आरम्भ में हुआ था, इसे लगभग उनचालीस लाख वर्ष हो चुके हैं। आज के वैज्ञानिक इसे अनुमानतः पाँच अरब वर्ष मानते हैं, जो भारतीय गणना से बहुत अधिक है ।

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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