स्टीफन हाॅकिंग की चेतावनी को समझने की जरूरत

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प्रमोद भार्गव
ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी स्टीफन हाॅकिंग ने मानव अस्त्वि के खतरे से जुड़े व्यापक पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में जो चेतावनी दी है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। हाॅकिंग ने कहा है कि मानव समुदाय इतिहास के सबसे खतरनाक समय का सामना कर रहा है। यदि जल्दी ही पर्यावरण और तकनीकी चुनौतियों से निपटने का तरीका ईजाद नहीं किया गया तो परिस्थितियां बद्तर हो जाएंगी और पृथ्वी बर्बादी के निकट होगी। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इस प्रोफेसर ने एक लेख लिखकर मौजूदा चेतावनियों से दुनिया को आगाह करते हुए कहा है कि अब विश्व को उच्चतर जीवन शैली को त्यागना होगा, क्योंकि आजीविका के संशाधन लगातार कम होते जा रहे हैं।
हाॅकिंग ने अपने लेख में कहा है कि दुनिया जबरदस्त पर्यावरण और तकनीकी समस्याओं से दो-चार हो रही है। ऐसे में मानवता को बचाने के लिए संगठित होकर समन्वय से काम करने की जरूरत है। क्योंकि इस समय मानव समुदाय भयानक पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से जूझ रहा है। इनमें जलवायु परिवर्तन, आर्थिक उत्पादन, बढ़ती जनसंख्या, वन्य प्रजातियों की तबाही बढ़ते संक्रामक रोग और महामारियां तथा महासागरों और नदियों का अम्लीकरण जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। इन सब खतरों के साथ मानवता अपने विकासक्रम में सबसे ज्यादा भयावह संकटों से जूझ रही है। गोया, हमारे पास पृथ्वी को बर्बाद करने वाली तकनीकें तो बढ़ी संख्या में सामने आ गई है, लेकिन इनसे बचने की तकनीकों का विकास नहीं हो सका है। संभव है कुछ सौ वर्षों में तारों के बीच मानव बस्तियां बसाली जाएं, लेकिन वर्तमान में मनुष्य के रहने लायक एक मात्र ग्रह पृथ्वी ही है। ऐसे समय में जब सिर्फ नौकरियां ही नहीं, उद्योगों की संभावनाएं भी क्षीण हो रही हो, तब हमारी जिम्मेदारी है कि लोगों को नए विश्व के लिए तैयार करें। इस हेतु आर्थिक मदद भी करनी होगी। किसी भी प्रकार का पर्यावरण रोकना होगा। हमारे ग्रामीण शहरी चमक और तकनीकी सुविधाओं से जुड़ने की उम्मीद लेकर झुंड के झुंड शहरों और कस्बों की और पलायन कर रहे हैं। हकीकत यह है कि वे मृगतृष्णा के मायाजाल में उलझते जा रहे है। जबकि उन्हें इस भ्रम से मुक्त करने की जरूरत है।
हाॅकिंग की चेतावनी से लगता है कि धरती पर प्रलय आने की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। पृथ्वी पर बढ़ते तपमान, अनुवांशिक अभियांत्रिकी वायरस परमाणु हमले के कारण मानवता और पृथ्वी के अस्तित्व पर एक साथ संकट मंडारने लगा है। विज्ञान की प्रगति के इस नकारात्मक पक्ष के मजबूत होने से लग रहा है कि पृथ्वी दो-चार शताब्दियों में बर्बाद हो जाएगी। लिहाजा इस खतरे की घंटी से सचेत होने की जरूरत है। क्योंकि विकास की आपाधापी और तकनीकी सुविधाओं के लालच में हमने अंततः अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारने का काम किया है।
दरअसल स्टीफन हाॅकिंग ने 2007 में लियोनार्डो डि कैपरियो की दस्तावेजी फिल्म में चिंता जताई थी कि ‘हम नहीं जानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग कब खत्म होगी और अगर यह समाप्त नहीं हुई तो धरती शुक्र ग्रह में तब्दील हो जाएगी। जहां तापमान 250 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है। साथ ही अम्लीय बारिश शुरू होने लगती है।‘ इस चेतावनी का स्पष्ट संकेत है कि औद्योगिक व प्रौद्योगिक क्रांति के बाद धरती का औसत तापमान 0.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है। इस क्रांति की उपलब्धियां कोयला और पेट्रोलियम पदार्थों के अकूत दोहन और ज्वलन से संभव हुई। इस कारण कार्बनडाइ आॅक्साइड और ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करने वाली कई गैसों का उत्सर्जन हुआ। इससे धरती का प्राकृतिक संतुलन लड़खड़ा गया और ओजोन की परत में छेद हो गया। इससे जलवायु चक्र परिवर्तित हुआ। नतीजतन खेती प्रभावित हुई और पैदावार पर असर पड़ा। इस मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही अलनीनो का प्रभाव मौसम चक्र पर पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हिमखण्ड पिघल रहे हैं, फलस्वरूप समुद्री जलस्तर लगातार बढ़ रहा है। इस कारण अनेक छोटे द्वीप तो डूबेंगे ही बांग्लादेश और कोलकाता जैसा महानगर भी जलमग्न हो जाएगा।
दरअसल उपभोक्ता आधारित व्यवस्था में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) आधारित उपकरणों की मांग बढ़ी। इसके साथ ही हाईड्रो-क्लोरो-फ्लरो कार्बन (एचएफसी), हेलोंस, मेथाइलक्लोराइड, मेथाइलब्रोमाइड और कार्बन टेट्राक्लोराइड ऐसी गैंसे है, जो तापमान बढ़ाने के साथ ओजोन की परत को हानि पहुंचा रही हैं। इन गैसों का उपयोग ऐसी, फ्रिज, इत्र, डियो, शेविंग फाॅर्म, कूलेंट आॅयल, इलैक्ट्रोनिक उपकरणों और इलेक्ट्रोनिक सर्किट बोर्ड की सफाई में इन गैसों का उपयोग बड़ी मात्रा में होता है। दरअसल ओजोन की परत को क्षय पहुंचाने वाले पदार्थों का 80 प्रतिषत स्रोत मानव निर्मित ऐसी ही वस्तुएं है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्पादन में कमी लाने के लिए लगातार सम्मेलन व समझौते हो रहे है, लेकिन अभी तक सार्थक नतीजे नहीं निकले हैं। इस दुष्प्रभाव को समझने के लिए यदि हम पृथ्वी का आकार बास्केट बाॅल के बराबर मान लें तो पृथ्वी के चारों और ओजोन परत पाॅलिभीन जितनी पतली होगी। साफ है, कि यह परत कितनी नाजुक है।
इसीलिए पृथ्वी पर पैदा होने वाली हानिकारक गैसें स्ट्रेटोस्फीयर में मौजूद नवजात आॅक्सीजन के साथ प्रतिक्रिया कर ओजोन परत को आसानी से नुकसान पहुंचा देती है। इस कारण सूरज की जो हानिकारक आल्ट्रा-वाॅयलेट किरणें सीधें पृथ्वी पर पहुंचती है और मनुष्य को नुकसान पहुंचाती है। इस कारण त्वचा कैंसर, मोतियाबीन तथा संक्रात्मक रोग बढ़ रहे हैं। साथ ही प्रतिरोधात्मक क्षमता घट रही है और टीकाकरण का असर कम हो रहा है। पर्यावरण के क्षेत्र में जैविक मांस उत्पादन में कमी आ रही है। जैव विविधता नष्ट होने की मात्रा बढ़ गई है और ध्रुवीय तंत्र बिगाड़ने की आशंका उत्पन्न हो गई है। इन हानिकारक गैसों का दुखद पहलू यह है कि ये गैसें हजार बराह सौ साल तक वायुमंडल में अपना वजूद बनाए रखती हैं। इनके खत्म नहीं होने के कारण ये नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे मंडारती रहती है। नतीजतन ये गैसें वायु प्रदुषण में मौजूद हानिकारक तत्वों के साथ विलय होकर जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और अंत में ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने लग जाती हैं। इन गैसों की उम्र घटाने की तकनीक विकसित कर ली जाए तो ओजोन की परत को कम हानि होने की उम्मीद की जा सकती है।
स्टीफन हाॅकिंग ने आनुवांशिक अभियोत्रिकी द्वारा घातक वायरसों के पैदा करने की प्रक्रिया को भी खतरनाक बताया है। इबोला वायरस इसी माॅडीफाइड जैनेटिकली इंजीनियर्ड का कारक बताया गया है। इसका तांडव हम अफीकी देशों में देख चुके हैं। 2014-15 में इस इबोला वायरस के विस्तार को महामारी बनने से बमुश्किल रोका गया था। साफ है, जीन थैरेपी के बहाने वायरस पैदा किए गए तो इससे ज्यादा तबाही फैल सकती है। कई देशों अपनी सुरक्षा के नाम पर ऐसे जैविक हथियार तैयार करने में लगे है, जिनमें घातक वायरस का उपयोग हो। हाल ही में त्वचा कैंसर के उपचार के लिए टी-बैक थैरेपी की खोज की गई है। इसके अनुसार शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता को ही विकसित कर कैंसर से लड़ने के उपाय किए जा रहे हैं। जबकि हाॅकिंग इस तरीके को बेहद खतरनाक मानते हैं। क्योंकि आनुवांशिक रूप से परिवर्धित जीन के दुष्प्रभावों के बारे में अभी वैज्ञानिक बहुत ज्यादा जान नहीं पाए हैं। बावजूद जैनेटिक इंजीनिरिंग का प्रयोग कृषि-बीजों पर खूब हो रहा है। इन बीजों पर गंभीरता से चर्चा नहीं हो रही है। भारत में तमाम विरोध के बावजूद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में मक्का, चावल, बेगन, टमाटर आदि फसलों के बीजों पर इसके प्रयोग व उपयोग शुरू हो गए है। जबकि इनका सेवन मनुष्य और जानवर दोनों के लिए ही वैज्ञानिकों का एक घड़ा खतरनाक बता रहा है।
दरअसल स्टीफन हाॅकिंग की चेतावनी विकास बनाम विषमता के द्वंद्व को मानव समुदायों के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करते हैं। दुनिया परमाणु बम की त्रासदी जापान में देख चुकी है। इन बमों का उपयोग अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों में द्वितीय विश्वयुद्व के दौरान किया था। दुष्परिणामस्वरूप 1.20 लाख लोग मारे गए थे। इस हमले के बाद दुनिया के देशों में परमाणु हथियारों का जखीरा जमा करने की होड़ लग गई। जबकि परमाणु बम के आविष्कारक राॅबर्ट ओपनहाइर्मर ने कहा था,‘ अब मैं मौत बन चुका हूं, दुनिया मेरे कारण तबाह हो रही है।‘ बावजूद परमाणु हथियारों की प्रतिस्पर्धा कम नहीं हुई। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान दुनिया के पास लगभग 16,395 घातक परमाणु हथियार हैं। इनमें से 4300 को तो दुश्मन देशों पर तैनात भी कर दिया गया हैं। ग्रीन पीस फाउण्डेशन के अनुसार मानवीय त्रुटि और प्राकृतिक अपदाओं से भी दुनिया को 436 परमाणु संयंत्रों से खतरा हो सकता है। रूस के चैरनोबिल और जापान के फुकुशिमा में हम परमाणु दुर्घटनाओं को देख चुके हैं। बावजूद दुनिया है कि नए-नए खतरों से खेलने में लगी है। ऐसे में एक दूरद्रष्टा केवल चेतावनी ही दे सकता है, उन पर अमल तो सत्ताधारियों को करता है।

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