-हरे राम मिश्र
पिछले कई सालों की तरह इस साल भी हम अपना स्वतंत्रता दिवस पूरे ताम झाम के साथ मना रहे है। जाहिर सी बात है, भब्य कार्यक्रम होंगे नयी घोषणाएं होंगी और देश वासियों के सामने तमाम वायदे होंगें, उपलब्धियों की वाहवाही होगी और आतंकवादियों, चरमपंथियों को एक कडी चेतावनी दी जाएगी। फिर आयोजन खत्म होगा, और सारा ढांचा फिर उसी तरह से चलना जारी रखेगा। वही भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी, भुखमरी और कानून ब्यवस्था चलाने के नाम पर फर्जी इनकाउंटर। सब कुछ बेखौफ चलता रहेगा।
आज जब हम अपना 62 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे है क्या हमें बस इसी एक दिन अपने शहीदों को श्रध्दांजलि देकर अपने कर्तव्यों की इति श्री कर लेनी चाहिए। आखिर हमारे दायित्व इससे आगे क्यों नहीं बढ रहे ?अब आजादी के 62 साल हो चुकने पर इन सब पर अब बडी गंभीरता से सोचने की जरूरत आ पड़ी है।
यह एक तथ्य है कि आजादी पाने के कुछ ही सालों के बाद आम आदमी के, आजादी को लेकर देखे गये सपने बुरी तरह से चकनाचूर होते गये। चाहे वह कांग्रेस हो या फिर भाजपा या अन्य सत्तारूढ दल इन सबने ने आम आदमी के भरोसे को बुरी तरह से डिगाया। क्या देश के शहीदों नें इसी भारत का सपना देखा था? बिल्कुल नहीं उनके दिमाग में एक ऐसे भारत का सपना था जो आत्म निर्भर और बराबरी का हो। लेकिन आज भी हम उन शहीदों के सपनों का भारत आजादी के 62 साल बीतने के बाद भी कतई नहीं बना पाए है।
क्या यह कहने की आवश्यकता है कि सन 1969 का नक्सलबाडी का बिद्रोह आम जनता द्वारा आजादी को लेकर पाले गये उसके सपनों के टूटने की पहली प्रतिक्रिया थी। हमारा शासक वर्ग जिस तरह से दिन प्रतिदिन आम आदमी पर काले कानून लाद रहा है, ठीक उसी तरह पीडित और उपेक्षित जन समुदाय अपने अपने तरीके से संघर्ष कर रहा है। जिसे देश के कई भागों में आज भी देखा जा सकता है।
बात यहीं तक सीमित नहीं है अब खुले आम मानवता का कत्लेआम जारी है। स्थिति बडी ही निराशा जनक और गंभीर होती जा रही हैं।
आजादी के बाद कई चीजें आम आदमी से दूर हों गयी। जो उनके मूल अधिकारों में जरूर होनी चाहिए थीं। आजादी के 62 साल हो जाने पर भी 76 फीसद जनता 20 रू से कम पर गुजर करती है। आज भी हम करोडों लोंगों को छत भी मुहैया नहीं करा सके है। प्रशासन और आम आदमी के बीच एक खतरनाक स्तर तक की गैपिंग हो चुकी है जिसने खतरनाक स्तर तक भ्रष्टाचार को फैला दिया है। भूख से मौतें होती है।आज भी कमरतोड मंहगाई से जनता पिस रही है, लेकिन सरकार के पास कोई योजना ही नहीं है।
कुल मिलाकर आम आदमी के पास खुशी मनाने जैसा कुछ भी नहीं है। क्या इस स्वतंत्रता दिवस आम आदमी की जिंदगी बेहतर करने की कोई ठोस योजना की घोषणा होगी? शायद बिल्कुल नहीं। क्योंकि हमारे शासक वर्ग के पास ऐसी कोई ठोस योजना ही नहीं है।
दरअसल आजादी के 62 साल हमारे शासक वर्ग ने आज तक सिर्फ वादे किए झूठी कसमें खाईं। समस्याओं के समाधान के नाम पर नयी समस्याए खडी कीं। साल दर साल आम आदमी हाशिए पर खडा होता गया। आज उसके पास आजादी का जश्न मनाने के लिए कुछ भी नहीं बचा है। वह किस चीज पर गर्व करके आजादी का जश्न मनाए।
आज उदारी करण के इस दौर में हमारा समाज त्रासदियों के भीषण दौर से गुजर रहा है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था ने हर ओर तबाही मचाई है। बात यही तक सीमित नहीं है इस बाजारू अर्थब्यवस्था ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को चौडा करके हमारे सामाजिक संरचना को खाना शुरू कर दिया है। यह एक दिन भारतीय को खा जाएगा।
वास्तव में किसी भी देश की जनता की खुशहाली उस देश की प्रगति एवं संपन्नता का एक मात्र सूचकांक है। लेकिन इन सब से बेखबर हमारा शासक वर्ग खुद के गढे विकास के आंकडों से वाहवाही लूट रहा है। यह दौर अब शर्म करने का है। यह समय गंभीर आत्म मंथन का है। याद आती है धूमिल की वो कविता …. क्या आजादी इन्ही तीन रंगों का नाम है? जिसे एक थका हुआ पहिया ढोता है।
आज आम आदमी के लिए इस दिन का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। उसे अब यह अपना देश नहीं लगता। लेकिन हमारे शासक वर्ग को इससे कोई फर्क नहीं पडता वह मानवता के खून से रंगे हाथ लेकर बेशर्मी से इतनी समस्याओं के बाद भी आजादी का प्रायोजित तमाशा करती है।
आपका आलेख भारत की स्वाधीनता के सन्दर्भ में उस वर्ग की आवाज
प्रतिध्वनित करता है जो मूक है .अशिक्षित है .शोषित-पीड़ित है दमित हैं .
ये वर्ग संख्या बल में विराट बहुमत में है .किन्तु वर्ग चेतना के अभाव में जब -जब लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत वोट के मार्फ़त बदलाव की बात आती है ;तो यही निर्बल असहाय वर्ग घंटों कतार में लगकर पूंजीवादी या साम्प्रदायिक पार्टियों को वोट देकर अपने लिए पञ्च वर्षीय सजा का प्रावधान स्वयम कर लेता है . या जात -धरम की बातों में आकर यह सर्वहारा खंड -खंड होकर विखर जाता है .
आप की पीड़ा बाजिब है .कुछ त्रुटियाँ सुधार लें .जहाँ ६२ है वहा ६३ कर लें और जहाँ ६२ वां है वह ६४ वां कर लें