कहानी/ स्वप्न संसार

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आर. सिंह

राज ने आज फिर वह स्वप्न देखा. वही मासूम चेहरा, वही बड़ी-बड़ी आँखें और उन झील जैसी आँखों में गहरी उदासी. आज भी राज को लग रहा था कि वह लडकी उससे कुछ कहना चाहती थी, पर न जाने क्यों उसके होठ केवल फड़फड़ा कर रह जाते थे? उसके बाद राज की नींद खुल गयी थी और वह उस लडकी का रहस्य न समझ पाने के कारण आज भी बेचैन हो उठा था. इधर पंद्रह दिनों में दूसरी बार ऐसा हुआ था. पंद्रह दिनों पहले भी राज ने यह स्वप्न देखा था. वही मासूम चेहरा,वही झील सी गहरी उदास आँखें और उसके फडफडाते गुलाब की पँखुडियों जैसे होठ. मस्तिष्क पर जोर डालने पर भी राज को वह चेहरा नहीं याद आ रहा था. फिर भी उसको लग रहा था कि बहुत जानी पहचानी है यह सूरत.

पच्चीस वर्षीय राज अपने माता पिता का एकलौती संतान था. लंबा छरहरा शरीर, गेहुँआ रंग, चेहरे पर चमक और गंभीरता राज के व्यक्तित्व को एक ऐसा रूप देती थी कि लोग अनायाश ही उसकी तरफ आक्ऋष्ट हो जाते थे. राज तो शायद इन सब बातों से बेखबर था. तीव्र बुद्धि का धनी राज एक जिम्मेवार पदाधिकारी था,पर उसका व्यक्तित्व जल कमल पत्रवत था. ‘कार्य ही पूजा है के सिद्धIन्त को मानने वाले राज की एक ही कमजोरी थी,उसकी यायावर प्रकृति. बेहद शौक था उसे घुमकडी का. पर्वतों का नैसर्गिक सौंदर्य और नदियों का कलकल निनाद उसको सबसे अधिक प्रिय थे. आकर्षित तो उसे सागर भी करता था. भूला नहीं था वह उस द्ऋष्य को जब एक शाम को कन्याकुमारी में एक चट्टान पर खडा होकर वह मुग्ध द्ऋष्टि से दिवसावसान को देखता हीं रह गया था अपलक. वह अपने कमरे में सूर्यास्त के बहुत देर बाद लौटा था. रात्रि के अंधेरे का एहसास भी उसको बहुत समय पश्चात हुआ था. पर पर्वत श्ऋंखलाओं की नैसर्गिक छटा,नदियों का कलकल और झरनों का निनाद तो उसको ऐसा अभिभूत कर लेता था कि वह स्वयं को विस्म्ऋत पाता था इनके सौंदर्य के मध्य. राज का यह निश्छल प्रक्ऋति प्रेम कभी कभी उसको सोचने पर मजबूर कर देता था कि उस जैसे जिम्मेवार अधिकारी यह पIगलपन कहाँ तक उचित है. इन सब विचारों के बावजूद प्रक्ऋति के प्रांगण में विचरण की व्याकुलता उसे वर्ष एक बार उन पर्वत श्ऋंखलाओं के बीच खींच ही ले जाती थी.

गत वर्ष राज नहीं जा पाया था, अपने अभियान पर. ऐसे भी उससे पहले वर्ष का उसका पर्वतीय प्रवास कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया था. वह जगह भी कुछ ऐसी थी. उस स्थान का पता उसके एक पुराने मित्र ने,जिसको उसके प्रकृति प्रेम के बारे में ज्ञान था,बताया था. मित्र ने जिन रोचक शब्दों में उस स्थान का वर्णन किया था,वह प्रयाप्त था राज को उस स्थान की ओर आकर्षित करने के लिए. राज ने जब प्रातः बेला में हरिद्वार से वहाँ के लिए टैक्सी तो मादक नशे की अवसथा में था,प्रक्ऋति-प्रेम का नशा. बल्लियों उछल रहा था उसका दिल. ऋषिकेश तक तो वह पहले भी आ चुका था,पर ऋषिकेश के बाद जब उसकी टैक्सी गंगा के किनारे बने सडक पर आगे बढने लगी तो राज उस अलौकिक सौंदर्य में एकदम खो सा गया. गंगा की श्वेत धारा और कलकल निनाद के साथ पार के पर्वतों की अनुपम छटा उसको स्वर्गीय आनंद देने लगी. टैक्सी जैसे जैसे आगे बढती जा रही थी,प्रक्ऋति का सौंदर्य भी निखरता जा रहा था. देवप्रयाग आते आते तो राज का यह हाल हो गया कि उसे लगा वह पागल न हो जाए. देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा का संगम अनुपम सौंदर्य प्रदान कर रहा था. उसको तो ऐसा लग रहा था, वह गंगा के किनारे किसी एक स्थल पर युगों तक रूका रह सकता था और बिता सकता था अपना संपूर्ण जीवन प्रक्ऋति का सौंदर्य निहारते हुए. पर नहीं,उसे तो और आगे जाना थ. वह सोच रहा था कि जिस स्थान पर पहुँचने पथ इतना सौंदर्यमय है,वह स्थान कितना सुंदर और अवर्णीय होगा. कैसे होंगे वहाँ के निवासी? प्रकृति के प्रांगण में विचरने वालों का जीवन कैसा होता होगा? पर्वत वासियों के कठिन जीवन का विवरण उसने पढ रखा था,पर आज तो उसे लग रहा था कि जहाँ पग पग पर इतना सौंदर्या बिखरा हुआ है,वहाँ का जीवन अगर कठिन भी हो तो कितनी मधुर होगी वह कठिनाई. अब टैक्सी गंगा और अलकनंदा के तट से थोडा पर्वतों और घाटियों के बीच चलने लगी थी. घाटियों में फैले हुए बादल और उसके उपर से सडक पर चलती हुई टैक्सी?राज को तो ऐसा लग रहा था कि उसे पंख लग गये हैं और वह बादलो के उपर उड रहा है. वारिश की बौछार ने कुछ देर के लिेए उसका स्वप्न अवश्य भंग किया था,पर वारिश समाप्त होने पर प्रक्ऋति का सौंदर्य और निखर गया था. इन्हीं सौंदर्यानुभुतियों में खोया हुआ राज अब अपने गंतव्य पर पहँच चुका था और टैक्सी रूक गयी थी. छोटी सी जगह थी वह,पर उसके मनोनुकूल. कोई भीड़ भाड़ नहीं. पर्वतीय प्रयटन केंद्रों वाला शोरगुल भी नहीं. टैक्सी रूकते हीं बच्चों के एक झुंड ने उसे अवश्य घेर लिया था. अजनवी के दर्शन का कुतुहल उनके नेत्रों में साफ साफ द्ऋष्टिगोचर हो रहा था. अभिभूत कर गयी थी राज को उनकी मासूमियत. उसके मष्तिस्क के कोने में यह विचार अवश्य आया कि प्रकृति के इस कोमार्य सौंदर्य के दर्शन में अभिभूत होकर कहीं वहपने आप को तो खोने नहीं जा रहा है?फिर उसे लगा कि इन नैसर्गिक प्रांगणों से हटकर उसने अपने को पाया ही कब है?

उसने टैक्सी को विदा कर दिया था और ढूढ लिया था,अपने ठहरने के लिए एक छोटा सा कुटीर. उसके पास पडोस के लोग इतने प्रसन्न थे अपने इस नये मेहमान को देख कर कि होड लग गयी थी उनमें,उसकी खातिरदारी के लिए. बहुत मुस्किल से राजी कर पाया था वह उन्हें, पैसे लेने के लिए. उनमें,उसकी खातिरदारी के लिए. बहुत मुस्किल से राजी कर पाया था वह उन्हें, पैसे लेने के लिए. उनमें, उसकी खातिरदारी के लिए. बहुत मुस्किल से राजी कर पाया था वह उन्हें, पैसे लेने के लिए. उन दीन हीन पर्वत वासियों के ह्ऋदय की विशालता सराबोर कर गयी थी उसको अंदर से बाहर तक. वह वहाँ करीब एक महीने रहा था. भोर में ही उठकर नित्य क्रिया से निवृत निकल जाता था वह सुदूर पर्वतों की ओर,जहाँ एक छोटी जलधारा ऊपर से गिर कर नीचे चली जाती थी. कितना स्वच्छ जल था उसका?राज की नजरों में तो वहाँ पग पग पर प्राक्ऋतिक सौंदर्य विखरा पडा था,पर वह स्थान जहाँ वह सबेरे सबेरे जाता था, उसको अद्वितीय लगता था. शाम को वह एक ऊँचे टीले से सूर्यास्त का नजारा देखता था. शाम वाला स्थल उसकी कुटिया से थोडी ही दूरी पर था. ऐसे तो वह इधर उधर भ्रमण करता ही रहता था,पर ये दो स्थान उसे खास प्रिय थे. बद में उसने अपना ध्यान ग्राम वासियों की जीवन-चर्या की ओर भी लगाया. भेड और बकरियों का पालन और उनकी बिक्री वहाँ के लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन था. पर्वतों के बीच बीच में थोडी समतल जमीन बनाकर वे क्ऋषि कार्य भी कर लेते थे. दूर नीचे घाटियों में,लगता था कि खेती बडे पैमाने पर होती थी,पर वह वहाँ जा नहीं सका था. सामने की पाठशाला में छोटे छोटे मासूम बच्चों को जाते हुए वह अक्सरहाँ देखता था. उनमें से बहुत बच्चे ,लगता था,नीचे घाटियों से भी आते थे. आश्चर्य होता था राज को उन्हें देखकर. कितनी कठिनाई होती होगी उनको वस्ते के बोझ के साथ नीचे से उपर आते हुए,पर उनके प्रफुल्ल चेहरे पर उसे कोई थकान नहीं दिखाई देती थी. वह अपनी डायरी में ये सब बातें बडे मनोयोग से लिखता जाता था.

राज ने देखा कि धीरे धीरे लोग उससे घुलने मिलने लगे हैं. उनलोगों को शायद लगने लगा कि यह शहरी बाबू उनलोगों से ज्यादा भिन्न नहीं है. थोडा सनकी अवश्य लगता था राज उन्हें,क्योंकि पर्वतों का द्ऋश्य देखने मे8 वह घंटों खोया रहता था. उनलोगों को तो यह पता भी नहीं चलता था कि आखिर इस बाबू को इसमें क्या आनंद आ रहा है. ऐसे तो किसी का कोई विशेष आकर्षण उसने अपने प़रति नही देखा था,पर एक लड़की, जिसकी उम्र पंद्रह या सोलह वर्ष की रही होगी उसके पास कुछ ज्यादा ही आती थी. लडकी का गोरा रंग उसके मैले कुचैले वस्त्रों के बीच भी छलका पडता था. उसका मासूम चेहरा और चेहरे पर बडी बडी आँखें. इन आँखों पर दृष्टि पडने पर वह थोडा चकित भी हुआ था. गोरा रंग तो यहाँ कमोबेश सबका था. पर्वतों की ठंढी आबोहवा शायद इसका कारण रही हो, पर इस तरह की बडी बडी आँखें उसने केवल उसी एक लडकी की देखी थी. लडकी के माँ बाप कौन थे या उसके परिवIर में कौन कौन लोग थे,इसपर ध्यान देने की आवश्यकता राज ने कभी नहीं महसूस की. लडकी में भी उसकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी. वह तो प्रक्ऋति के सौंदर्य का पुजारी था. प्रक्ऋति के सौंदर्य में खोया हुआ राज कविवर पंत की इन पंक्तियों को सार्थक करता थाः

छोड द्रुमों की शीतल छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया,

बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?

लड़की का नाम एकबार उसने अवश्य पूछा था. कजरी नाम सुनकर वह मुस्कुरा कर रह गया था. ऐसे तो वह खुल कर हँसना चाहता था. अच्छी गोरी चिट्टी लदकी का नाम कजरी सुनकर. पर उसको सामने देख कर केवल मुस्कुरा कर रह गया था. कभी कभी उसको लगता था कि कजरी उसके पास कुछ ज्यादा ही आने लगी है. वह उससे बाते8 करने की भी कोशिश करती थी. राज को उसकी बातों में बचपन का अल्हडपन और भोलापन ज्यादा नजर आता था. एक दिन कजरी ने राज से शाम को उसके साथ टीले पर जाने की इच्छा जाहिर की,राज को भला इसमें क्या एतराज हो सकता था?वह बहुत प्रसन्न हुई थी राज की इजाजत मिलने पर. रास्ते में वह अपनी भेड बकरियों का वर्णन करती रही थी,पर टीले पर पह6चने पर जब उसने राज को एकटक डूबते सूर्य की ओर देखते पाया थातो वह धीरे धीरे चुप हो गयी थी और एकटक उसकी ओर देखने लगी थी. वह तो अपने आप मे खोया हुआ था. उसे तो पता भी नहीं चला कि कजरी तन्मयता पूर्वक उसे निहारे जा रही है. उन क्षणों में तो वह शायद कजरी की उपस्थिति भी भूल सा गया था. मुडने पर जब उसकी नजर कजरी पर पडी तो वह चौंका भी था थोडा. अभी अंधेरा तो घिरा नहीं था. कुटिया भी थोडी ही दूरी पर थी, अतः मस्तिष्क पर अधिक जोर न देकर वह अपनी कुटिया में लौट आया था. डायरी में तो वह प्रति दिन कुछ न कुछ तो लिखता ही रहता था, पर आज उसने विशेष रूप से कजरी के बारे में भी लिखा. कजरी अक्सर उसके पास आ जाती थी,पर शाम के समय ही. सुबह वह कभी नही8 आयी थी. उसने एकबार यों ही पूछा भी था,पर जब उसने सुबह की अपनी व्यस्तता का वर्णन करना शुरु कर दिया था उसको लगा था कि दुनिया की सबसे व्यस्त इंसान है यह कजरी. कजरी ने उसको यहाँ से थोडी दूर स्थित देवी के मंदिर के बारे में भी बताया था. वह मंदिर यहाँ से भी अधिक ऊँचे पर्वत शिखर पर बना था. उसने मंदिर को दूर से देखा भी था. कजरी ने उस मंदिर की देवी के प्रभाव के बारे में भी बताया था. उसने बताया था कि देवी जो कुछ भी मांगा जाता है,उसे वह पूरा करती है. उसने पूछा नहीं कजरी से कि उसकी कौन इच्छा देवी ने पूरी की है. उसके मन में शायद ऐसा विचार भी नहीं आया था. कजरीने बहुत जोर दिया था कि वह उसके साथ एक बार उस मंदिर में जाना चाहती है. वह कजरी को टालता गया था. राज को मंदिर में जाने की कोई खास इच्छा तो थी नहीं. ऐसे वहाँ जाने पर प्राकृतिक सौंदर्य के किसी नये रूप से साक्षात्कार हो सकता था. फिर भी न जाने क्यों उसकी इच्छा नहीं हुई कजरी के साथ वहाँ जाने की.

छुट्टियाँ समाप्त होने को थीं और वह अहर्निश प्राकृतिक सौंदर्य के नशे में डूबा हुआ था. उसने अपनी डायरी में लिखा था-प्रकृति से इतना अगाध प्रेम कहीं मेरे कर्तव्य मार्ग में बाधक तो नहीं बनेगा. गाँव के मेरे निकट होकर भी आज भी मुझसे उतनी ही दूर लगते हैं,जितने प्रथम दिन थे. वे लोग सम्मान तो दे रहें हैं,पर एक झिझक उनमें अभी भी है. लगता है उनका प्यार नहीं प्राप्त कर सका हूँ मैं. और ये बच्चे ,पहले तो इतने उतावले रहते थे, मेरे निकट आने के लिए, पर अब लगता है,उन्हें भी कोई आकर्षण नहीं दिखता मुझमें. दोष उनका भी नहीं. मैं ही कहाँ ध्यान दे पाता हूँ उनकी ओर. पर यह कजरी, अजीब लडकी है वह भी. मैं अपने आप में मग्न और वह एकटक मुझे निहारती हुई. पता नहीं क्यों आती है वह अक्सर मेरे पास? मैं पढने लिखने में लगा रहूँ,उसकी ओर ध्यान न दूँ,तो भी कोई प्रभाव नहीं पडता उसपर. देखती रहेगी मेरी ओर. पर जब मेरी निगाहें उठती है तो कैसी शरमा जाती है?मेरी बेरूखी की ओर तो शायद इसकी निगाह ही नहीं जाती. मेरे थोडा पूछने पर ही कितनी बातें करने लगती है. उसकी बातों में मुझे तो कोई तथ्य नहीं नजर आता,पर उसकी मासूमियत और अल्हडपन बरबस मेरा ध्यान खींच लेती है. और फिर उसकी वह निश्छल हँसी जो शायद किसी मनोरंजक क्षणों में सामने आयी थी. जब मैं देखने लगता हूँ उसकी ओर,उसके मासूम छरे की ओर, तो नजाने क्यों झुक जाती हैं उसकी पलकें? न जाने क्यों वह अनुरोध करती है मुझसे मंदिर जाने के लिए और अनुरोध न मानने पर क्यों आ जाती है उसके चेहरे पर उदासी की लकीरें?क्या है यह सब?

लौटते समय तो टैक्सी बुलाने का प्रश्न ही नहीं उठता था. दिन में एकबार वहाँ देवप्रयाग की ओर से बस आती थी और फिर एक घंटे बाद वही बस लौट जाती थी देवप़याग की ओर. राज ने उसी बस से लौटना तय किया. प्रक्ऋति की गोद से विछुडने का गम तो उसे बहुत था,पर कर्तव्य की पुकार उसे वह स्थान छोडने को वाध्य कर रही थी. गाँव के बहुत लोग उसे विदा करने आये. जमघट लग गया था,बच्चे,बूढे और जवानों का. उन्हीं लोगों के बीच खडी थी कजरी. वही मासूम चेहरा,वही बडी बडी झील सी गहरी आँखें. पर आज उन आँखों में अल्हडपन और चंचलता की जगह गहरी उदासी थी. उसकी आँखें जिसे कुछ कहना चाह रही थीं. उसके सुकोमल होठ भी फडफडा रहे थे. पर वह कुछ बोल नहीं पा रही थी. वह तो भौंचक रह गया था कजरी के इस रूप को देख कर. न जाने क्यों उसके सीने में भी एक कसक सी उठी थी. उन्हीं क्षणों में जब वह तंद्रावस्था में था, बस का हार्न बजा था और बस चल पडी थी, उसको लेकर, जिंदगी की कठोरता की ओर,कर्तव्य पथ की ओर.

कजरी की वे उदास आँखें बहुत दिनों तक पीछा करती रही थीं राज की,पर जिंदगी की व्यस्तता ने आखिर विस्‍मृति के गर्भ में उतार ही दिया उन क्षणों को. आज डायरी के पन्ने पलटते पलटते उसे सब कुछ याद आगया और तब याद आया वह मासूम चेहरा और उस चेहरे पर जडी वे बडी बडी उदास आँखें, जो उसने स्वप्न में देखा था. अचानक उसको याद आया, इन्हीं दिनों तो वह स्वप्न संसार की यात्रा पर निकला था. तडप उठा राज.

दूसरे दिन सुबह ही उसने एक महीने की छुट्टी के लिये दरख्वास्त दे दी.

 

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