कहानी/ सैलाब

-सन्‍तोष गोयल

तुलसी भाभी, उस दिन मुझे सपने में दीखीं थी…रोती-बिलखती…हाथ पसार …मानो कुछ मांग रही हों…शायद कुछ पकड़ना चाहती हों।

क्यों आया मुझे तुलसी भाभी का सपना ? इसका कारण कौन बताये ? कौन व्याख्या करे ? अगले दिन सुबह-सवेरे चौक बुहारते हुए मैंने अम्मां से तुलसिया भाभी के बारे में जानना चाहा। बाबा सैर करने और सामने काढ़ा गया दूध लेने गये हुए थे। एक लंबी सांस ले कर अम्मां बोली, ”अरे ! वो तो एक बीती बात थी…अब कौन उसका नाम लैवा हैगा ? औरतां का कोई नाम लैवा न हौवे…वे तो मर जावैं तो बस…बीत ही जावैं…घर परिवार…नाम…सब आदमियों से चल्लै हैगा।”

मैं अम्मां के पास जही पट्टे पर आ कर बैठ गयी।

मैं तो सरो की शादी के बाद ही शहर चली गयी थी। तब की गयी अब ही तो आयी थी…बाबा के पत्र में लिखी एक ही पंक्ति सैकड़ों प्रश्‍न बनी मुझे घेरती-जकड़ती जा रही थी। अम्मां से सब कुछ पूछ लेने, जान लेने के इरादे से ही उनके पास आ बैठी थी।

”अम्मां! सरो को क्या हुआ ?”

अम्मां ने पहले तो चौंक कर मेरी ओर देखा, कुछ झिझकीं, फिर सोचा और बोली, ”…कुछ ना री! हम औरतां की ज़िन्दगी का मतलब ही दु:ख, ताने, मार-कुटाई बेईज्ज़ती हौवै हैगा।”

”पर अम्मां..जब तुम जानों हो तो…कुछ कर न सको हो।”

”नाहिं..बिटिया। अपनी मां खुदै अपनी बिटिया के लिए मजबूर हौवे है…दूसरे का कै करेगीं ?”

मेरी बेचैनी बढ़ रही थी।

”अम्मां….सरो को क्या हुआ..सच सच बताओ न!”

अम्मां ने कुछ सोचा…कितना बताये, कितना छिपाये…निष्चय करतीं बैठ रही थीं शायद। फिर बोली, ”शादी के बाद छोरी फेरा लगान आवै है न…सरो भी आयी…बस…उस्सी दिन उसके घरवाले ने कारखाने में हिस्सेदारी की बातां की…बातां थी तो बहौत मीठी…समझान लाग रह्या था कि कुक्कर गलीचे बाहर के देसां में भेजे जावैंगे और कमायी ज़ियादा हो सकैगी वगैरह…वगैरह।”

”पर…ये तो कोई ग़लत बात न थी, अम्मां। समझदारी की बात ही तो थी।”

”नई…नई…रिम्मो! यई तो…यई तो मुश्किल है सब सै। समाज के नियम तोड़ैं न जा सकै हैंगे। बड़ी सोच समझ के नियम बनाये जावै हैंगे। दामाद लोग अगर घर के विचार के मामले में घुस जावें तो बहौत मुश्किल हो जावै। उनके कहै पे न चल्लो तो कठिनाई…चल्लो तो खुद की आज़ादी खो गयी न…फिर छोरा जवान हो गया हैगा। वो कुछ और करना चाहवै तो…बस ठन गयी न दोनों में…फिर दामाद का रिष्ता भी बड़ा ही नाजुक हौवे है…।”

मां ठीक कह रही थीं। मुझे समझ आ रहा था कि बात इतनी आसान तो न थी। ऊपरी सतह शांत दीख रही थी, पर भीतर तो सैकड़ों तूफान छिपे थे। अम्मां बता रही थी।

”साहू ने बड़े पियार से समझाया, ‘ना बेट्टा तुम अपना बसा-बसाया शहर का काम छोड़ कर यहां गांव-गंवई के काम में क्यों फंसो हो ? ये दोनों छोरे संभाल लेंगे। फिर मेरी तो उमर बीत चली है अब, मैं के विपार बढ़ाऊंगा…बाद में…ये दोनों जैसा चाहें करें…’।”

”अम्मां…ये तो सब सीधी-सादी समझने में आने वाली बात है।”

”नाहि रे…ऊपर से सीधी षांत दीक्खन वाली लहर के नीच्चे ही तूफ़ान छिपे हौवे न। मुश्किल तो ये है कि आदमी उन्हें सीधा समझ कै छोड़ दैवे हैं…पर, शायद सबसे जियादा दु:ख वे ही दैवे हैंगे।”

मैं अम्मां का मुंह बिसूरती सी देखती बैठी रही। अम्मां ही आगे बोली, ”साहू ने कह तो दिया, समझ भी लिया कि दामाद जी समझ गये हैंगे। सरो फैरा लगा कै अपने घरै चल्ली गयी…सबै कुछ ठीक-ठाक ही था। महीना भर ही बित्ता कि सरो अचानक वापस आ गयी…रोती जावै…रोती जावै…।” कुछ रुक कर अम्मां ने जैसे सांस भरी, फिर बोली, ”दामाद जी ने कहलवाया था कि शादी तो मुफ्त में कर दयी। इब कार दयौ अपनी छोरी नै…इब्ब वा रिक्से में जाती अच्छी ना लागै हैगी।”

”क्या….आ…आ ? पर अम्मां…वह तो सरो की मौसी की सहेली है…फिर…काका ने तो शादी में इत्ता दिया कि गोट आज तक चर्चा करै हैगा।”

”हां री….हर मां-बाप बेटी नै अपनी पोट्टी से जैदा ही दैवे….सबनै अपनी बेट्टी बहौत पियारी हौवे।”

”अजब रिवाज है…बेटी भी दो और दामाद की कीमत भी…वो भी उनकी मांग के हिसाब…अम्मां! क्यों करें लड़कियां शादी-बयाह …पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जावै बस! कमावैं-खावैं…अल्लाह अल्लाह खैर सल्लाह।”

मैं भड़क उठी थी।

अम्मां हंसी तो, जो हंसी कम, रुलाई ज्यादा लगी थी। हंसते हंसते अम्मां की आंखें भर आयीं थी। बोली, ”बड़ी भोल्ली है बच्ची तू…पर, तेरी सी उमर में ऐसे ही हौवे सब कोई…वक्त सिखावे है…बनमानुसों का संसार हैगा ये….अकेले कोई न रह सकै…खा जावै कच्चा…होर छोरियां तो बिलकुलै न….इहां रहते वन मानुस खावै और चूसे आम सा फैंक देवे जनावरों के जंगल में…सारी उमर तड़फड़ाने को…कहीं पनाह न मिलै…मां-बाप भी न दीखै आसपास।”

तो ये है यथार्थ…पत्थरों से भी ज्यादा कठोर , कैक्टस के कांटों से भी ज्यादा चुभन भरा, ज़हर से भी अधिक ज़हरीला। अम्मां के शब्द लोहे के सरिये थे, जो ‘धम्म धम्म’ मेरे सिर पर पड़ रहे थे, चोटें लग रही थीं और लहूलुहान थी। अम्मां की आवाज़ दूर कुएं से आती सुन पड़ रही थी।

अम्मां खोयी सी बोलती रही, जैसे खुद से बातें कर रही हो, ”साहू कार दिलवा सकते थे या नहीं, ये तो बाद की बात हैगी…उनकी समझ में आ गया था कि छोरी को अपने ही हाथों खाई में धकेल दिया हैगा..और इब सारी उमर उनके सिर पर आग की लपटैं जलती रवैंगी, किस तरयौं ज़िंदा रहैवेगी सरो ? सोचते सोचते ही तीसरे दिन ही उनको दिल का दौरा पड़ा और …।”

अम्मां चुपा गयीं थी। मैं चींख पड़ी, अम्मां…और …और क्या हुआ काका को। वे ठीक तो है ना।”

”नहीं बिट्टो। वो तो अस्पताल भी न पहुंचे बस…पानी के बुलबुलै सी ज़िनगी यूं ही ख़त्म हो जावै हैगी….जाने मानुस काहै का घमंड करै हैगा और क्यों जोड़-जुगाड़ करै हैगा इत्ता ?”

अनजाने में मैं ज़ोर से रोती रही थी। अम्मां भी रोती जा रही थीं…हिचकियां भर उठी थीं….न अम्मां चुपायीं, न मैं। बाबा दूध ले कर आ गये थे। अम्मां चुपचाप अंगीठी जला कर चाय बनाने में जुट गयीं। मैं भीतर के कमरे में जा कर बिस्तर समेटने में जुट गयी थी…पर…सच में तो मैं…आग का दरिया बनी थी…भट्टी सी जल रही थी। मांस के जलने की दुर्गंध मेरे चारों ओर फैलती जा रही थी…लगता था मेरे चारों ओर श्‍मशान घाट है जहां मुर्दे जलाये जा रहे हैं…निरंतर…उसकी निरंतरता ही मानो ज़िंदगी का एहसास करवा रही है ….बाक़ी सब तो मृत है। मौत सा भयानक सन्नाटा और मुर्दों के जलने, हड्डियों की चटकने की आवाज़ें मात्र फैली हैं।

इतनी बेकार-नकारा ज़िंदगी …क्यों जीयें हम लोग ? क्यों जीते हैं सब लोग ? क्यों जीऊं मैं ? ये ज़िंदगी…जिसका न आदि, न मध्य, न अंत। कुछ भी तो मेरे हाथ में नहीं है।

कहते हैं, कभी-कभी घर का कोई बच्चा बुरी आत्मा ले कर पैदा हो जाता है जिसके प्रभव से पूरा घर, पूरा मौसम, पूरी दृष्यावलि, पूरा जीवन तक बदल जाता है…पर मैंने तो पढ़ा है कि, ‘आत्मा का कोई रंग नहीं होता, वह नहीं मरती है, उसे न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है…फिर वह बुरी कैसे हो सकती है, उसका प्रभाव बुरा कैसे हो सकता है ?’ मेरे सामने सैकड़ों प्रष्न जीभ लपलपाते फैले दिलोदिमाग़ में भय से लहराते रहे थे और मैं मशीन सी घर का बिखराव समेटती रही थी…पर….मन के भीतर कब, कितनी कुछ बिखर जाता है, पता नहीं चलता, समेटूं कैसे?

मेरे भीतर सिगड़ी सी जलती रही थी, जिसमें तन-मन चने सा भुनता रहा था। किसको दिखाती ये अलाव ? कौन सुनता चनों की भड़ भड़ की आवाज़ ? जिंदा रह कर निरंतर जलते रहने की इस दुर्गंध को सहते रहना ही क्या हमारी नियति है? मन किया कि ज़ोर ज़ोर से चींखू, ज़ार-ज़ार रोऊं, पर कुछ न हुआ, कुछ कर ही न पायी, लुंजपुंज बनी बैठी रही थी।

पर …..तुलसिया भाभी ने क्या किया था, उनका तो कोई दोश न था। वही तो मेरे सपने में आई थी। कौन थी तुलसिया भाभी, तुलसिया या फिर तुलसिया डायन?

 

तुलसी भाभी गोट की ही थी। दूर बसी झोपड़पट्टी में रहती थी। गोट में पक्के मकानों वाला इलाक़ा थोड़ा अलग हट कर था। ज़रा सी दूर, कोई आधा कोस की दूरी पर कुछ कच्ची-पक्की झोपड़ियां थी। कच्ची से मतलब केवल फूस की और पक्की से मतलब जो मिट्टी-गोबर से बनायी गयी थी और ऊपर की छत मात्र फूस की थी। इन झोपड़ियों में गलीचे बुनने, ऊन संवारने, छांटने का काम दिन-रात होता। यही वह स्थान था जहां लोग जानवरों के झुंड से ढेर के ढेर दीखते। बच्चे, नंगे बदन जांघों के पास एक काला धागा बांधे या फिरा ज़रा सा जांघिया पहने दीख जाते थे…बच्चों से मतलब पांच-छह साल तक के लड़के मात्र। लड़कियां तो झोपड़ों में हों या बाहर , अपने से छोटे बच्चे के साथ खेलती-खिलाती दीख पड़तीं। घर का हर बड़ा-छोटा कामकाजी था। जब बड़े-बूढ़े, मां-बाप, भाई सब गलीचे के काम में जुटे होते तो लड़कियां व बहुएं घर व बच्चे संभालती।

नयी नयी ब्याह कर आयी थी तुलसी, रमेसरा के बड़े बेटे मनेसर की ब्याहता बन कर। तुलसी- पौधे सी पवित्र, उसके पत्तों सी हरी-भरी गुणवंती भी तुलसी की ही तरह। पांव में झांझर डाल कर , सिर पर घूंघट डाले जब वह पानी लेने निकलती तो उसकी झांझर की ध्वनि मौसम-ए-गुल को बुलावा देती लगती। गोट भर के युवा होते लड़के उसकी चाल पर फ़िदा थे। उनके टी स्टाल में बैठे रहने का समय जो भी हो, पर वे तुलसी की झांझर की आवाज़ के साथ ही कुएं की ओर जाने वाली राह पर डोलते नज़र आते।

तब मैं बी.ए में पढ़ रही थी। नयी ब्याहता तुलसी को देखा। उसकी आंखों की कशिश से उसकी ओर खिंचती चली गयी। उसकी ओर देखती तो चेहरे पर से निगाह न हटती। कवि बिहारी तभी पढ़ा था। बिहारी की नायिकाओं की अतिष्योक्तिपूर्ण उपमाएं भी पढ़ी थीं…पर तुलसी के सौंदर्य का उपमान बन कर तो वे उपमाएं भी सजीव-सटीक हो उठी थीं। सरो और मैंने साथ साथ बैठ कर ‘तुलसी’ जिसे अब हम ‘तुलसी भाभी’ कहने लगे थे, के सौंदर्य पर ढेर सी नयी उपमाएं गढ़ डाली थी। जैसे, तुलसी भाभी की आंखों की उपमा गांव के पोखर में बरसात के दिनों में साफ़ नीला छल छल करते पानी से दी थी। चेहरे की उपमा हमने गोट के मंदिर पर के कलश से दी थी जिस पर सोने का पानी फिरा था, जो सूरज की किरण पड़ते ही चमचमा उठता था। यह भी निष्चय किया गया था तुलसी भाभी का सौंदर्य तो उस कलश की सुंदरता की अपेक्षा कहीं अधिक है, क्योंकि मंदिर के कलश की चमक तो सांझ ढलते न ढलते मद्विम पड़ जाती, पर तुलसी भाभी का चेहरा तो सांझ पड़ने के साथ और अधिक दमक उठता है। चिपकाने वाला मल्हम लगा कर वे माथे पर कांच की रंग-बिरंगी बिंदिया चिपका लेती थीं, जो चाहे हमारी पसंद के हिसाब से जटक-चटक, थी पर उनके माथे पर कलश के ऊपर का कंगूरा सा दमकती रहती। तिस पर मिस्सी से रंगे होंठ, दीवाली पर दिये में बनाये गये काज़ल से सजी आंखें, चटक लाल-हरे रंग की चटकदार धोती पहन, आलत लगे पैरों में ‘वी’ शेप की चप्पल पहने, सिर पर धड़ा रख कर जब वे गांव में निकलती, तो लगता केवल उनकी पायल नहीं बोल रही, अपितु उनके अंग-प्रत्यंग का स्पर्ष करता हर रंग अपनी अपनी बोली में चहचहा रहा हो।

ऐसी सुंदरी थीं तुलसी भाभी। गुणवंती इतनी कि रामेसरन की झोपड़ी को उसने चमका-दमका दिया था। टूटे ऊन के टुकड़ों से सुंदर सीनरी काढ़ दी , झोपड़ी के बाहर लगाने वाला टाट का पर्दा अब अपनी कढ़ाई से विषिश्ट बन गया था। रामेसरा उसके हाथ के बनाये करेले की तारीफ़ करता न अघाता। पर …गुणवंती और सुंदरी हो जाने भर से विधि के विधान तो नहीं बदल जाते। विधातारचित काली पंक्तियों के प्रभाव से कौन बच पाता है ? काले रंग का स्वभाव है कि वह सब कुछ काला ही कर देता है।

गोट के उस माहौल में पलती स्त्रियों की दुर्दशा ने मेरे मन को जाने कितनी बार मसोसा कचोटा है। क्या विधाता पुरुश ही है, जो नारी जाति के दु:ख का अनुभव उनके नज़रिये से कर नहीं पाता है। यह प्रष्न जब-तब मेरे मन में भिद भिद कर मुझे उस छोटी उम्र में भी लहूलुहान करता रहा है। हम लोगों के लिए ‘अपने भाग्य का नियंता स्वयं मानव है’ जैसी उक्तियां निरर्थक व बेकार लगती। उनके जीवन का नियंता तो पुरुश समाज ही होता, नियति का तो पता नहीं।

बात तुलसी भाभी की हो रही थी। खूबसूरत झांझरिया से खाली बरतन में पड़ी कंकरी सी वह बजने लगी, क्यों और कैसे ? इस प्रष्न का उत्तार कौन दे ? क्या उत्तार हो ? यही कहा जा सकता है कि शायद उसकी भाग्य लिपि या फिर समाज की गली-सड़ी रूढ़ियां …कौन उत्तर दे, फिर तुलसी ने प्रष्न ही कहां किया था….सच ही, उसने प्रश्‍न कहां किया था, पर उसकी सूनी आंखों में प्रष्नों का अंबार भरा था…जिन्हें समझता कौन ?

ब्याह के दूसरे वर्श ही तुलसी भाभी एक प्यारे से गदबदे बेटे की मां गन गयी थी। घर भर में अनेक कमियों-खामियों, धन के अभाव के बावजूद खुशियों का ढेर लग गया था। सास-मां ने बलैया ली थी। ससुर व पति गर्वित थे। इधर बेटे का चालीसवां हुआ, उधर तुलसी को नहला-धुला कर सोवड़ से बाहर लाये जाने की रस्म पूरी करवायी जाने की योजना बनी। उस दिन वही रस्म होनी थी। झोपड़ियों के घेरे के बीचोबीच बने चौक को सजाया गया था। हरी-पीली झंडिया फहरा रही थीं। आसपास की लड़कियों के साथ तुलसी की ननद गुलाबो ने चौक पूरा था। जिठानी ने तुलसी के हाथों में मेहंदी, पैरों में आलता लगाया। तुलसी के मायके से आयी राजस्थानी चटक लाल, हरे, पीले तथा बैंजनी रंग की बांधनी धोती पहना दी। चांद बनी कांच की लाल बिंदी माथे पर सजायी तो सचमुच ही ‘तिय ललाट बेंदी दिये अंक अगणित होत’ समझ आने लगा था। आंखों से थोड़ा बाहर निकला काज़ल पहले नीचे झुकी फिर शरमा कर ऊपर उठती आंखें मानो सौंदर्यशास्त्र में डूब कर निकल आयी हों। मनेसर पंडित को लेने गया था।

सोवड़ गाये जाने लगे। बड़े लोग बलैया ले रहे थे। तुलसी का चेहरा खिले कमल सा और भरा-भरा शरीर कमल नाल सा लचकता दीख रहा था।

‘पलना झुलावै यसौदा मैया अपने ललना’

‘सोने के झुलने में सौवें कान्हा’

जाने कितने गीत सुर चढ़ रहे थे। खिल खिल हंसी गूंज रही थी। बीच से आवाज़ उभरती और चारों ओर फैली झोपड़पट्टियों को गुले-गुलज़ार कर देती।

तभी तीन-चार लोग भागते हुए हांफते-हांफते अहाते में दाखिल हुए। सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। कांपती-लरजती-भरभराती आवाज़ से उन्होंने जो कुछ बताया, उसका मतलब था कि पंडित जी अस्पताल में हैं और मनेसर…..मनेसर का एक्सीडेंट हो गया है…साईं के चारों बेटे अपनी जीप को हवाई जहाज़ की स्पीड से लिये चले आ रहे थे…बस, बदक़िस्मती से मनेसर पंडित जी की साइकिल लिये चले आ रहा था। साइकिल की रफ्तार तो खैर क्या होती, पर जीप की तेज़ रफ्तार से टकरा कर वह पहले हवा में उछला, फिर दूर पथरीली ज़मीन पर जा गिरा और बस…फिर तो उठ ही नहीं पाया।

यह ख़बर…मात्र ख़बर न थी। यह तो ग़ाज थी, जो सिर के बीचोबीच गिरी थी। आसमान में घूमते पहाड़ों में से कोई एक गोट के उस छोटे हिस्से में आ पड़ा था। बिना बादल के बिजली गिरी और फट पड़ी थी।…सब जल-फुंक गया था। मौत…कोई एक शब्द मात्र न थी, वह एक बवंडर थी जिसकी ज़द में जो आया स्वयं मौत बन गया था।

जवान मौत…वह भी इतनी भयानक…सारा गोट उमड़ पड़ा था। ‘सकून’ दे सकें ऐसा एक शब्द भी न था किसी के पास। बुजुर्ग तक भी स्तंभित से खड़े थे। रामेसरा को सभी आदमियों ने संभाल रखा था और औरतों ने मनेसर की मां को। तुलसी तो गुम पत्थर हो गयी थी। उसे तो बस…खड़े खड़े देखा भर जा सकता था।

तुलसी की मां दहाड़ मारती, छाती पीटती रोती रोती भीतर दाख़िल हुई। सब ज़ार ज़ार, ज़ोर ज़ोर से रोने लगे…पर तुलसी तो पत्थर की मरत बनी बैठी रही…ज़िंदा लाश सी। मानो उसकी समझ ने कुछ भी जानने-महसूसने से इनकार कर दिया हो। तुलसी की मां रोते रोते बोलती जा रही थी।

”अरी मन्नो ! म्हारी तो क़िस्मत ही फूट गी हैगी…इस छोरी का कै हौवैगा…हाय तुलसिया…मैं के करां…अरे वो तो पहले ही से बिन बाप की हैगी… इब…ख़सम को न रह्या…इब कुक्कर रहवैगी…बिन पत की हौगी छोरी तू तो…।”

वह दिन क्या बीता, तुलसी ‘तुलसिया’ बन गयी। गुमसुम…न बौल्लै, न चालै, न खावै, न पीवै…फटी फटी आंखों से बस बेटे को देखे। सभी उसे रुलाना चाहते, पर वह तो पत्थर की षिला हो गयी थी, जिसके भीतर से कोई झरना भी न फटता। बेटा रोता तो लोग उसकी गोद में धर देते, वह बैठी बैठी उसकी ओर देखती रहती। घर में आने वाले हर छोटे-बडे ने लाख कोशिश की, पर वह न रोयी, न गले के नीचे खाने का एक भी कौर उतरा, न एक घूंट पानी पिया। जहां थी वहीं जम गयी थी…जम गयी सिल्ली सी …न हिले-डुले, न खावें , न पीवे।

अभी मनेसर की मौत को इक्कीस दिन भी पूरे न हुए थे, अभी तो इस भयंकर चोट के ज़ख्म दवा-दारू के बावजूद भी हरे थे, बल्कि धीरे धीरे उनमें मवाद पड़ने लगा था कि छोटा बच्चा अपनी मां की अपेक्षा न सह सकने के कारण दम तोड़ गया।

बस…फिर क्या था ? अब तो तुलसी की जड़ का कोई तंतु न बच रहा था। ब्याह दिये जाने पर लड़की की जड़ें मायके में भी नहीं रह जाती, यही तो रिवाज़ था। तुलसी भाभी जो पहले ‘तुलसिया’ बनी थी, अब ‘तुलसिया डायन’ बन गयी थी, जो पहले अपने पति फिर अपने बेटे को खा गयी। वक्त ने उसे जरा भी मुहलत न दी। विधाता ने जो सौंदर्य और गुण दे कर जन्म दिया था, उसे खुलने खिलाने में बीस वर्श लग गये थे, पर सब कुछ जल कर खाक होने में बस कुछ दिन।

तुलसिया डायन…डायनों का कोई घर-बार नहीं होता। उससे लोग डरते हैं। डायनें तो सारा का सारा घर-मुहल्ला खा जाती हैं, फिर भी उसका पेट नहीं भरता। ओझे के सामने पड़ी तुलसिया न रोयी, न चीखीं, न किसी को पुकारा। ओझा पंडित हैरान-परेशान। पता नहीं गोट पर क्या कहर है ? किसका क्रोध बरपा हो रहा है ? कौन सा ग्रह ऊंट की टेढ़ी चाल चल रहा है ? कौन दुरात्मा सुंदरी रूप धारण करके गोट में उतर आयी है ? सोच-विचार की बैठकों के बाद तुलसी मंसा देवी के मंदिर ले जायी गयी। पिछले पच्चीस दिन की भूखी प्यासी तुलसिया, जो यूं तो ज़िंदा हो कर भी मरे के समान थी, मंसा देवी की चढ़ाई के बीच में दम तोड़ गयी और इस तरह एक डायन की कहानी ख़त्म हो गयी पर कहानियां ख़त्म होती हैं सिरफ़, ज़िन्दगी तो दर्द का सैलाब बनती ही रहती है।

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