एक कॉमरेड व्यथा गाथा …

3
164

cpm_logoकल मंडीहॉउस में कॉमरेड संतोष से मिला । मुलाकात कब वाद-प्रतिवाद के ऊपर बहस में बदल गई तनिक भी पता न चला । वामपंथ की प्रासंगिकता से शुरू हुए इस बहस के अंत तक पहुँचते -पहुँचते इसकी असलियत पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया। संतोष जैसे हजारों युवा कच्ची उम्र में एक्टिविज्म का शौक पाले विभिन्न पंथों की दूकान चलाने वाले राजनीतिक दलों , छात्र संगठनों और दबाव समूहों से जुड़कर अपना खून -पसीना बहाते हैं । इनमें से अधिकाँश को जब जन्नत की हकीकत मालूम होती है तब समाज और देश की जगह केवल व्यक्तिवादी सोच बचती है । और यही सोच यह कहने पर मजबूर करती है कि अरे यार हमने भी कॉलेज के दिनों में ये सब खूब किया था , कुछ नही बदलने वाला , साला सिस्टम ही भ्रष्ट है।ख़ुद को कॉमरेड कहने वाला संतोष भी बिहार के सीमांचल इलाके से व्यवस्था परिवर्तन , समानता , पूंजीवाद से लडाई और भी न जाने कितने सपने संजोये दिल्ली आया था । यहाँ अपने लक्ष्य को पाने के लिए ‘एस ऍफ़ आई’ का कैडर बनकर पढ़ाई और पैसे बरबाद करता रहा । हर रोज १०-२० लोगों से मिलना संगठन की बातें बताने में ही सारा दिन निकल जाता । थोडी बहुत कोर्स की पढ़ाई के अलावा विचारधारा का चिंतन और पार्टी सिधान्तों से जुड़े साहित्य का अध्ययन करते हुए कब नींद आ जाती पता ही न चलता । ४ सालों तक संगठन के नेताओं के दिशा -निर्देश का पालन बगैर सोचे -समझे करता रहा । इतने महत्वपूर्ण समय को संगठन के लिए खपाने वाला ‘कॉमरेड’ आज बेगारी से जूझ रहा है । आज उसे संगठन के नाम से भी चिढ है । क्यों उसे लगता है किउसने अपना समय बेकार में नष्ट किया ? इस सवाल का उत्तर भी संतोष के पास ही है । जबाव कई हैं ।

 * समाज में आर्थिक समानता लाने , भेदभाव मिटाने , साम्प्रदायिकता से लड़ने जैसे बड़े लक्ष्य रखने का दावा करने वाले इन वाम संगठनों की कथनी और करनी में फर्क है । जिन सिधान्तों की घुट्टी कार्यकर्ताओं को पिलाई जाती है उन्हीं से शीर्ष पर बैठे लोगों का कोई सरोकार नही होता है ।

*पूंजीवाद के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने का दावा करने वाले संगठनों के उच्चासीन नेताओं का रहन -सहन उन्हीं के सिधान्तों की पोल खोलता है । इसी सन्दर्भ में मुझे एक घटना याद आ रही है । जनवरी ०९ में हम कुछ साथियों के संग वी ० पी० हॉउस घूम रहा थे । इस दौरान तथाकथित पूंजीवाद विरोधी माकपा नेत्री वृंदा करात के कमरे के बाहर हमें दर्जन भर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के न्यू इयर कार्ड मिले । कार्ड में स्पष्ट शब्दों में वृंदा जी को बधाई का संदेशा लिखा हुआ था ।

* नंदीग्राम के नरसंहार की वीभत्स घटना में पश्चिम बंगाल के वाम सरकार का पूंजीवाद समर्थित चेहरा दुनिया के सामने आ चुका है ।

*धर्म को अफीम कहने वाले वाम दलों की धर्मनिरपेक्षता कलंकित हो गई थी जब केरल में उग्रवादी नेता मौलाना मदनी के साथ चुनावी गटबंधन किया गया था । एक पक्ष की साम्प्रदायिकता से लड़ने के लिए दुसरे पक्ष की सांप्रदायिक दलों से हाथ मिलाने से सब साफ़ है । इनके लिए तो एक ख़ास धर्म हीं अफीम है !

ऐसे सैकडों कारनामें हैं जो इनकी कथनी और करनी में फर्क को साबित करते हैं । वृंदा और ममता बनर्जी के साड़ी के फर्क ने बंगाल का वाम किला ढाह दिया । जनता को वास्तविकता का अहसास हो गया है परन्तु अफ़सोस है कि अब भी संतोष जैसे युवा एक बंजर और अप्रासंगिक हो चुकी विचारधारा को हरा-भरा करने में अपनी ऊर्जा बरबाद कर रहे हैं । कॉमरेड संतोष ने एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य की ओर इशारा किया है । वाम संगठनों में कार्यकर्ताओं से आत्मीयता और व्यक्तिगत संबंधों को न के बराबर महत्व दिया जाता है । पार्टी के जो कार्यकर्त्ता कभी महीनों संतोष के खर्चे पर पलते थे आज आँख उठा कर देखना भी पसंद नही करते हैं । भारत में सिमटते जा रहे तथाकथित वामपंथ से इनका कोई लेना-देना नहीं रह गया है । संतोष सरीखे हजारों की हालत ‘फनीश्वरनाथ रेणु’ की कहानी ‘आत्मसाक्षी’ के पात्र कॉमरेड “गणपत” के जैसी है । रेणु ने जो बात सालों पहले समझ ली थी उस हकीकत को समझने -बुझने में हमें इतने दिन लग गए । चलिए देर ही सही पर दुरुस्त आए !

3 COMMENTS

  1. जब इनका जोर शहरों में कम होने लगा तो इनने नक्सल और माओ का नाम लेकर आदिवासी अंचल में खूनी खेल खेलना प्रारंभ कर दिया है

  2. वाम की असलियत की खुल गई पोल ,
    लेकर यारों निकलो ढोल ,
    बताओ इनकी कारिस्तानी ,
    ये हैं अन्दर छीपे पाकिस्तानी ,
    सन ६२ की लडाई याद करो

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here