कहानी/ एक बार फिर

राजनारायण बोहरे

वे फिर आ गये हैं।

आज हर जगह यही सुनने को मिल रहा है। चारों घरों में यही चर्चा हैं। भीतर पहुंचते ही घर का कोई सदस्य फुसफुसाते हुये यह सूचना देता है और चुप हो जाता है। सूचना देने वाले के चेहरे पर दहशत के भाव झांकते हैं और उसकी आंखें फिर किसी आशंका से शून्य में अटक जाती हैं ।

यह तो मुझे भी लग रहा था कि वे जल्दी ही आ टपकेगें, क्योंकि नीम वाले खेत का मुकद्दमा हम जीत गये हैं और उसमें से उनका हिस्सा होना शेष है। कुछ तो हाथ लगेगा, लूट का कूंड़ा ही भला। खबर पाकर वे जरूर आयेंगे। वे जब भी आते हैं ऐसा कुछ कर जाते हैं कि घर वालों के मन में उनका आतंक और अधिक बढ़ जाता है।

कहने को मेरे छोटे दादाजी है, लेकिन मन में उनके प्रति रचंमात्र भी श्रद्धा नहीं है। उन्होने शूरू से ही कुछ काम ऐसे किये हैं कि हमारे मन में उनके प्रति नफरत बढ़ती चली गयी हैं। मेरा ही नहीं हम तमाम चचेरे, फुफेरे भाई-बहिनों के मन का यही हाल है।

वे चार भाई थे। मेरे दादाजी सबसे बड़े थे और सबसे मेहनती चतुर विद्वान भी। उन्होने ही अपने छोटे भाईयों को पाला-पोसा था और शादी-ब्याह किये थे। ये सबसे छोटे थे, सबसे लाड़ले भी। बड़े काहिल-आलसी थे… और उड़ाऊ-खाऊ किस्म की प्रवृति वाले भी। बचपन से ही कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी कि ज्यों ही कोई कीमती चीज हाथ लगती, लेकर लम्बे पड़ते और फिर उसे ठिकाने लगा कर ही लौटते।

वे पहली दफा तब भागे थे, जब उनके चौक (गौने की विदा) कराने में देरी हुई। दरसल यह तो महज़ बहाना था, असल बात थी- कुछ दिन बाहर जाकर मौज-मस्ती करने की इच्छा ! सो इन्होने घर का कुछ जेवर चुराया और औने-पौने दाम पर बेचकर भाग गये। पता नहीं कहॉ गये होंगे? यह सोच कर सब लोग परेशान, चिन्तित थे, और रकम चुराने का अपराध भुलाकर सब-के-सब इन की खोज में लग गये थे। हमारी दादी सुनाती थीं कि बाद में अचानक एक दिन छोटे अपने-आप लौट आये थे, भाईयों ने खुश होकर गले लगा लिया था- सारी गलतियां माफ! इनका हौसला और अधिक बढ़ गया था।

दादी कुछ और घटनायें सुनाती थी …तीनों पितामह ने वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटे और किसी तरह पुरखों की जमींदारी लौटा ली थी। चौदह सौ बीघा की एक बड़ी जमींदारी हमे फिर से वापस मिल गई थी। खेतों पर कब्जा कराने खुद तहसीलदार आया,… और वे लोग अभी घूम-फिर कर खेत अच्छी तरह देख भी नहीं पाये थे कि खेत में खड़े छोटे पूछने लगे- मेरा हिस्से का खेत कौन-सा है, पहले ये बताओ। मै क्या इस मिटटी में सड़ूंगा ! अपना हिस्सा बेचकर बाहर जाऊंगा, और काम-धंधा करूंगा।

सब हतप्रभ रह गये थे। छोटे जिद के कारण अन्तत: भाइयों ने उदास मन से नयी आई जमींदारी के चार टुकड़े किए। अपना हिस्सा भाइयों से रिसाये छोटे ने जानबूझ कर एक झगड़ालू व्यक्ति को बेच दिया। रात-दिन कलह मचने लगी, सो तंग आकर शनै: शनै: बाकी तीनों को भी अपना हिस्सा बेचना पड़ा था। …खैर यह तो बीस साल बाद की बात है, तब तो तुरंत ही अपनी अंटी में एक मोटी रकम दबा कर छोटे जाने कहाँ निकल गये थे।

चार महीने बाद किसी ने सूचना दी कि वे झांसी में हैं और एक आइसक्रीम फेक्टरी चला रहे हैं। भ्रातृ प्रेम में आकुल मेरे संझले दादाजी इन्हें ढूंढ़ने झांसी जा पहुँचे थे और किसी तरह वहां इन्हें खोज भी लिया था। संझले दादाजी ने पाया कि आइसक्रीम फैक्टरी नाम मात्र की चल रही थी, और छोटे कर्ज़ से लदे-फदे बैठे थे, क़ायदे से उनके पास दस रुपये भी नहीं बचे थे। आखिर रोज-रोज हलुआ-पूड़ी और मिठाई के शौकीन और सारा काम नौकरों के भरोसे चलाने वाले व्यक्ति का धन्धा चल भी कैसे सकता है ? तब संझले दादाजी तो लौट आये थे, मगर इनकी चिन्ता मन में लगा लाये थे- कैसा भी हो आखिर भाई ही तो हैं, लाख गलती कर चुका हो, बदनामी तो कुल खानदान की हो रही है। सो बाद में कहीं से इन्तजाम करके उनका सारा कर्जा चुकाया था और वापस ले आये।

दादी कहती थीं छोटे जनम के ही शौकीन हैं। अच्छा खाना और उजला पहनना उनकी आदत है, पर काम करने के नाम पर उनकी नानी मरती है। ऐसे निकम्मे आदमी के खर्चे पूरे कैसे हों ? घर लौटे तो ऐसा प्रकट किया मानो, अपने किये पर शर्मिन्दा हों।

लेकिन महीने दो महीने बाद ही छोटे को पता चला कि बड़े ने एक बगीचा खरीदा है, तो शाम को उनके घर लौटते ही भिड़ बैठे- पुरखों का पैसा उड़ा रहे हो और मुझे मेरा हिस्सा भी नहीं देते।

बड़े ने लाख समझाया कि पुरखों की फूटी-कौड़ी नहीं बची है, ये जो बगीचा खरीदने में पैसा लगा है, वह हम दो भाईयों का कमाया हुआ है। मगर विश्वास किसे होना था। गृह-कलह रात भर चली सो अगले दिन ही बगीचा के चार टुकड़े हो गये… और तीसरे-चोथे दिन एक टुकड़ा बिक भी गया, ग्राहक तो जैसे उनकी जेब में बैठे होते थे। उनका का तो वही हाल था कि- थैलिया में नाज तोनो सहरिया को राज !

सो अंटी भारी करके वे फिर देशाटन को निकल गये।

छ: महीने तक उनका पता नहीं लग पाया था। सब चिंतित थे कि जाने जीते भी हैं या मर खप गये। घर में नई नवेली बहू बैठी है पर उसे सुरत ही नहीं है। ऐसा लापरवाह आदमी कभी नहीं देखा। फिर एक दिन कस्बे एक व्यापारी ने दिसावर से लौटकर सुनाया था कि वह व्यापार के सिलसिले में कानपुर गया था और वहां उसने स्टेशन पर छोटे को कुलीगिरी करते पाया है।

समाचार पाकर बड़े भैया तो अकड़ गये- मरने दो दुष्ट को, हम लोग कहाँ तक मदद करें! लेकिन ऐसा संभव कहां था, सो बाद में वे अपनी माँ के ज्यादा कहने पर मजबूरन कानपुर गये थे और छोटे की कुलीगिरी छुड़वाकर लौटा लाये थे और कस्बे में उन्हें अपने एक दोस्त के यहाँ मुनीमी सिखाने बैठा दिया था।

लेकिन उनके तो पैर में भौंरी थी सो एक जगह कहाँ टिकते थे ,जब भी जो मौका मिलता, जो हाथ लगता, ले भागते थे। उन्होने उस सेठ का ही बहुत सा माल उड़ा दिया, और अन्तत: बेचारा दिवालिया घोषित हुआ वह ! बुजुर्गों ने इस घटना को छोटे से जोड़ कर पुरानी कहावत सुनाई-जहां जहां पांव परें सन्तों के तहां तहां होवें बण्टाधार !

हमने जिन दिनों होश संभाला था, उन्हें घर के एक चर्चित व्यक्तित्व के रुप में पाया था। उनके बड़े भाईयों की तारीफ की जानी चाहिए कि वे इतने सबके बाद भी उन्हें निभा रहे थे।

हमारे कस्बे में सावन के महीने में राखी के दूसरे दिन भुजरियां बदलनेकी प्रथा है। दरअसल भुजरियां (गेंहू की हरे पौधे) एक दूसरे को देकर हम अपने मन की शुभकामनाऐं और आदर सामने वाले को सोंपते हैं। भुजरियों के दिन हम सब बुजुर्गों के पांव छूने जाते थे, तब पिताजी इंगित कर उनके भी चरण छुआते थे। उन्हे देखते ही मुझे चूल्हे पर रखा तवा याद आ जाता। काले-दुबले थे वे, वैसा ही सलपट सिर। पांव छुआते वक्त वे प्राय: निस्पृह बने रहते।

बाद में वे अपने परिवार को लेकर इन्दौर पहुंच गये थे, जहां से गाहे-बगाहे उनकी सूचनायें मिलती रहती थीं। कभी पता लगता था कि उन्होने होटल खोल लिया है, कभी पता चलता कि किराने की दुकान खोली है। बीच-बीच में कस्बे में आकर वे अपना अस्तित्व जता जाते थे। अब उन्होने एक नया शगल छेड़ा था कि कस्बे में हमारे खानदान के किसी भी सदस्य का कोई ज़मीन का टुकड़ा खाली नज़र आता, वे उसे अपना बताने लगते और जाने कैसे ग्राहक पटा लेते,… फिर रजिस्टरी कर के नौ-दो ग्यारह हो लेते! इसलिये अब सारा घर उनके आते ही सतर्क हो जाता है, उन पर कड़ी नजर रखी जाती है। …वैसे सच तो यह है कि उनको बेचने के लिये कोई ज़मीन ख़ाली भी नहीं छोड़ी गई है। उनके भय से सब भाईयों ने औन-पौने दाम अपने हिस्से बेच डाले हैं ।

पिछली दफा तो वे हमारे घर आकर रुके थे। पिछले साल अकस्मात दादाजी की मोत के बाद पितृहीन हम चारों भाई, दादाजी के छोटे भाइयों का और ज्यादा सम्मान करने लगे हैं, और इसी नाते छोटे की भी हमने पिछली दफ़ा हमारे घर आने पर खूब सेवा करी, …मगर हाय रे दुर्भाग्य! पिछली दफा वे जाते जाते हमको ही चूना लगा गए। हमारे घर का पिछला हिस्सा बेच गये थे, जिसकी कानूनी उलझन में हम आज तक फँसे हैं। उनके द्वारा पैदा की गयी समस्याओं के कारण हमारा समूचा परिवार एक सौ से अधिक मुकदमों में उलझा है।

इस बार उनके आने का समाचार सुनकर मुझे तो गुस्सा ही आ गया। मन हुआ कि कस्बे से ढूँढ निकालूं और भरे चौराहे पर चार-छ: हाथ रसीद कर दूं। मैं उनकी पिटाई का मनसूबा लिए उन्हें तीन दिन तक अपने मित्रों के साथ घूमता रहा, पर मुझे वे मिले ही नहीं, जाने कहाँ छिप गये थे। शायद मर्यादा बचना थी हमारे खानदान की।

सात दिन बाद मुझे वे एक धर्मशाला के दरवाजे पर मिले थे। उस वक्त एकदम उदास और थके मांदे से धर्मशाला से बाहर निकल रहे थे। उनकी काली सपाट चाँद अब भी चिलक रही थी। मैं उन्हें अनदेखा करके निकलने लगा तो मुझे पुकारा ”सुन बेटा जय !”

”कहो” मैने आग्नेय नेत्रों से उन्हे घूरा।

”बेटा अब तक की मेरी गल्ती माफ करो, मेरी मदद करो” उनकी आवाज में दर्द था।

”बहुत हो गया यह सब। हर बार तो माफी मांगते हो फिर क्या हो जाता है” मै पहले जैसा ही कड़क था।

”दरअसल इस बार, मुझे मेरे बच्चों ने घर से निकाल दिया है बेटा। अखबार में इश्तहार भी दे दिया है कि मुझसे उनका कोई रिश्ता नहीं है ” कहते हुए उनकी आंखें नम हो आई-” यहां रख लो, मैं भूखा प्यासा ही पड़ा रहूंगा। ”

मैंने उनके चेहरे को ध्यान से देखा, कहीं यह उनकी इस बार कोई नयी चाल तो नहीं। काली गहरी ऑंखों में किसी नये षड़यंत्र की चमक तो नहीं। तवे जैसी काली खोपड़ी पर किसी नये परांठे का तेल तो नहीं। लेकिन मुझे भीतर तक झांकने के बाद निराशा ही हाथ लगी।

मुझे लगा कि वे इस बार सचमुच निरीह हो गये हैं, अनायास उन पर दया भी आयी। कुछ भी हो अपने ही हैं सगे हैं। मैं कोई जबाब दिये बिना उनके साथ धर्मशाला में भीतर पहुँचा, उनका बिस्तर बँधवाकर धर्मशाला का हिसाब चुकता किया और एक बार फिर उन्हें घर ले चला हूँ। ईश्वर खैर करे !

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