कहानी/ अपनी-अपनी जिंदगी

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आर. सिंह

अमर थोड़ी देर पहले ऑफिस से लौटा था और चाय पीकर निकल पड़ा था यों ही सड़क नापने. चलते-चलते वह सोच भी रहा था कि क्या अजीब मूडी इंसान है वह भी. यह भी पता नहीं क्या करना है? कहाँ जाना है? पर सड़क नापे जा रहे हैं.

सीधी सादी जिंदगी थी अमर की. सुंदर सुघड़ पत्नी और दो छोटे-छोटे मासूम बच्चे. उसने जब इंजीनियरी की डिग्री हासिल की थी तो उसके भी कुछ अरमान, कुछ सपने थे, पर अब थी सीधी सादी नौकरी और छोटा सा परिवार. कभी-कभी उसको ख्याल अवश्य आता था कि वह केवल इसी के लिए नहीं बना है, पर वह सोच नहीं पाता था कि उसे किस पथ पर जाना है. वह यही सब सोचते हुए, विचारमग्न अपनी ही धुन में चला जा रहा था कि एक रिक्शेवाले ने अपना रिक्शा उसके बगल में रोक दिया. अमर का ध्यान भंग सा हुआ. उसे लगा अजीब होते हैं ये रिक्शे वाले भी. जब इनसे कहीं जाने के लिए बात करो तो नखडे दिखायेंगे, मनमानी पैसे भी मागेंगे और जब उसे कोई आवश्यकता नहीं है तो इस रिक्शे वाले ने बगल में रिक्शा रोक दिया. इन आदिवासी रिक्शे वालों से उसे एक विशेष सहानुभूति है. ये सीधे सादे आदिवासी, जो आधुनिक जीवन की जटिलताओं से अलग अपनी दुनिया में मस्त रहते थे इस फैक्ट्री के बन जाने से अजीब मुसीबतों में फँस गये हैं. सरकार ने तो इस आदिवासी बहुल इलाके में इस आधुनिक कारखाने के निर्माण का निर्णय लिया था, इनकी उन्नति के लिए, इनका जीवन स्तर ऊँचा करने के लिए. इनके छोटे बडे़ खेतों और घरों के लिए सरकार द्वारा अच्छे मुवावजे दिये गये थे. सरकार की ओर से उस समय पेशकश भी की गयी थी इनको कारखाने में नौकरी के लिए. पर कहाँ?ये तो भौंचक रह गये थे इतना पैसा देख कर. फिर तो आ गये थे वे लुटेरे, जो हमेशा ऐसे अवसरों की ताक में रहते हैं. और तब न इनके पास पैसे रहे थे और इन्हें कोई खास काम ही मिल पाया था. पढे लिखे तो ये लोग थे नहीं, जो कारखाने में अच्छी जगह पा जाते. इनका जीवन स्तर तो उठा नहीं, पर आधुनिक जीवन की जटिलताएँ इनको निगल अवश्य गयीं. ये इधर के रहे न उधर के. यहाँ के रिक्शे वाले भी उन्हीं आदिवासियों में से थे. अधिकांश के रिक्शे भी अपने नहीं थे.

“साहब?” यह रिक्शे वाले की आवाज थी.

“क्या है? तुम देख नहीं रहे हो कि मुझे कहीं नहीं जाना है. तुम अपना रिक्शा आगे बढाओ. “अमर की आवाज थोडी तल्ख थी. लगता था, रिक्शे वाले की दखलंदाजी से अपनी विचार शृंखला भंग होने से वह झुंझला गया था.

“साहब आपने मुझे पहचाना नहीं?”

अमर को थोडा अजीब सा लगा. अब उसने रिक्शे वाले की तरफ नजर उठायी, पर उसे याद नहीं आया कि इस रिक्शे वाले से उसकी कोई जान पहचान है. उसे तो अब यह लगा कि अकेले या परिवार के साथ वह कभी इसके रिक्शे पर बैठा होगा, पर उसमें भी कोई खास बात नहीं थी अपने पास सवारी का कोई साधन न होने के कारण, आसपास के सेक्टरों में जाने के लिए अक्सर ही उसे रिक्शे का सहारा लेना पडता था. उसकी आदत थी कि वह किराया तय किए बिना रिक्शे पर नहीं बैठता था. इस मामले में वह अपने को कालोनी के अधिकतर लोगों से भिन्न पाता था. वह देखता था कि लोग बाग रिक्शे पर बैठ जाते हैं और गंतव्य स्‍थान पर पहुँच कर रिक्शे वाले को कुछ पैसे पकड़ा कर चल देते हैं. रिक्शे वाले भी अक्सर मन मसोस कर एक विवस नजर उन लोगों पर डाल कर चल देतेथे. कभी कभी बात बढ जाती थी, जिसका अंत अक्सर रिक्शे वाले की पिटाई पर होता था. उसको इन बातों से सख्त नफरत थी. किराया तय करके रिक्शे पर बैठने वाली उसकी आदत पर कभी कभी उसकी पत्नी भी झुंझला जाती थी, पर वह भी अमर की इस आदत को बदलने मे असफल रही थी. उसने सोचा, हो सकता है, वह इस रिक्शे पर बैठा हो और उचित किराये ने रिक्शे वाले के मस्तिष्क में उसकी पहचन बना दी हो. कारण कुछ भी हो, पर अब तो रिक्शे वाले से उसको बात करनी ही थी.

“मुझे तो कुछ भी याद नहीं आ रहा है, ” अमर ने अपने मस्तिष्क पर जोर डालते हुए अपनी असमर्थता जतायी.

“साहब, करीब दस बारह दिनों पहले छुट्टी के दिन आप अपने परिवार के साथ रिक्शे पर बैठे थे. आप किराया तय करने के बाद बच्चों के लिए कुछ लाने दूकान की तरफ गये थे. इतने में सुरेश सिंह आ गये थे.

अब अमर को सब कुछ याद आ गया. शायद वह रविवार था. शाम के तीन बजे वह पत्नी और बच्चों के साथ निकला था. पहले तो उसका प्रोग्राम पिक्चर जने का था, पर उसे याद आ गया था कि दूसरे सेक्टर में रहने वाले उसके एक मित्र की तवियत खराब थी. उसका वह मित्र एक दो दिनों से दफ्तर में भी नहीं आया था. उससे मिलना अमर और उसकी पत्नी को पिक्चर जाने से अधिक आवश्यक लगा. उस मित्र के बच्चे भी अमर के बच्चों की उम्र के थे, अतः उस अंकल के घर जाने का नाम सुनकर बच्चे भी खुश हो गये थे. वह अपने परिवार के साथ घर से निकला और वे लोग टहलते हुए नजदीक के शापिंग सेंटर तक आ गये थे. वहाँ से रिक्शा लेने का विचार था. वहाँ आकर रिक्शा पर बैठे ही थे कि बच्चों को टाफी की तलब लग गयी. दूकान सामने था अतः बहाने की भी कोई गुंजाईश नही थी. वह पत्नी और बच्चों को रिक्शा पर ही छोड कर टाफी लाने चला गया था. टाफी लेकर दूकान से निकला ही था कि सामने का द्ऋष्य देख कर बौखला सा गया. देखता क्या है कि जिस रिक्शे पर उसकी बीवी और बच्चे बैठे हुए हैं, उस रिक्शे वाले को एक युवक चमडे की बेल्ट से मारना चाह रहा है. उसका खून खौल गया. वह दौडता हुआ वहाँ पहुचा और उस युवक के हाथ पकड लिए. फिर उस पर बरस पडा, “यह क्या हरकत है?तम्हारी हिम्मत कैसे हुई कि जिस रिक्शे में मेरी पत्नी और बच्चे बैठे हुए हैं, उस रिक्शे वाले पर तुम हाथ उठाओ”. युवक भी उसको देख कर घबडा सा गया. उसने भी शायद अमर की पत्नी और बच्चों को नहीं पहचाना था.

फिर भी उसने कहा, “अभी थोडी देर पहले मैंने इस रिक्शे वले को उसी सेक्टर में जाने को कहा था, पर इसने इन्कार कर दिया था. अब इसको दूसरी सवारी लेकर वहीं जाते देख कर मैं अपने पर काबू नहीं रख सका.”

“तुम अगर यही बात उस समय कह देते जब मैं किराया तय कर रहा था तो यह नौबत ही नहीं आती. मैं भी इस रिक्श़े को छोड देता. “यह अमर की आवाज थी. उस युवक ने पछतावे के स्वर में कहा, “उस समय मैं यहाँ था नहीं. ऐसे भी मुझे पता होता कि भाभी जी और आपके बच्चे इसमें बैठे हुए हैं तो मैं ऐसा कभी नहीं करता. अब आपलोग जाइए, ”

फिर उसकी पत्नी की ओर मुड़ कर बोला, “भाभी जी क्षमा कीजियेगा, गलती हो गयी. ”

उसके बाद अमर अपने परिवार के साथ रिक्शे पर बैठ कर चला गया था. रास्ते में उसने रिक्शे वाले से पूछा था कि उस युवक को ले जाने से उसने क्यों इनकार कर दिया था तो उसने बताया था कि वह पैसे तो देता नहीं. उसके पहले भी एक सवारी उसको धमका कर बिना किराया दिये ही चली गयी थी.

उस युवक का नाम था, सुरेश सिंह. ऐसे सुरेश सिंह के साथ उसके कोई खास तालुकात नहीं थे, पर उसके व्यक्तित्व का लोहा न जाने क्यों वह मानता था. सुरेश सिंह बिहार के युवकों के ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था, जो अपने को रंगदार कहते थे. रंगदार शब्द की उत्पति के बारे में कोई शोध हुआ है या नहीं, यह तो अमर को नहीं मालूम था , पर उसे यह अवश्य ज्ञात था कि बिहार के इलाके में रंगदार शब्द बहुत महत्वपूर्ण है. अमुक व्यक्ति रंगदार है, यह कहना मात्र ही काफी था, उसको यह अधिकार देने के लिए कि वह किसी को भी तंग कर सकता है, चIहे वह दूकानदार हो या नौकरी पेशा. किसी से भी पैसा झटक लेना उनकी आमदनी का प्रमुख साधन था. रिक्शे वालों और तांगे वालों की क्या मजाल की उनसे किराया मांग दे.

जब यादे ताजा हो गयीं तो अमर बोला, “ठीक है मुझे याद आ गया. सुरेश सिंह ने तुम्हें बेल्ट से मारना चाहा था, मैनें रोक दिया था, पर इससे क्या हुआ?”

रिक्शे वाले ने हाथ जोड दिये, “साहब, सुरेश सिंह का ऐसा दबदबा है कि किसी की हिम्मत नहीं कि उसको रोक सके. एक आप हीं की हिम्मत मैनें देखी. साहब, आप बडे आदमी हैं. दयालु भी हैं. साहब, आप अगर कारखाने में नौकरी दिलवा दें तो इस गरीब का उद्धार हो जाये. रिक्शा चलाते और मुफ्त मार खाते खाते तो साहब, मैं यों हीं मर जाउंगा. ”

रिक्शा वाला उसको बहुत बडा आदमी समझ रहा था. अमर मन ही मन हँसा. वह तो एक साधारण अभियंता से अधिक कुछ नहीं था. अपने काम से काम रखता था वह. किसी को भी नौकरी दिला देना उसके लिए कितना कठिन था, यह अमर ही जानता था, पर इस रिक्शेवाले को कौन समझाये. तुर्रा यह कि रिक्शा वाला आदिवासी था. आदिवासियों का अलग संगठन था वहाँ. उनके नेता सूरज मुंडा का बहुत प्रभाव था फैक्ट्री के प्रशासन पर. किसी भी आदिवासी को नौकरी केवल मुंडा के मार्फत ही हो सकती थी.

उसको रिक्शे वाले से पीछा छुडाना कठिन लग रहा था. रास्ता भी इतना वीरान नहीं था कि लोग उनका वार्तालाप नहीं सुनते. उसे तो आश्चर्य हो रहा था कि अभी तक कोई उनकी ओर आकर्षित क्यों नहीं हुआ. उसने एक आखिरी कोशिश की, “तुम सूरज मुंडा से बात क्यों नहीं करते?वे तो बहुतों को नौकरी दिला चुके हैं. ”

इसके बाद रिक्शे वाले ने जो कहा, उसे सुनकर तो वह दंग रह गया.

“साहब, बोलते हुए डर लगता है. मुंडा साहब से मैं किसी की मार्फत मिला था. उनके यहाँ नौकरी के लिए नाम लिखवाने की फीस पाँच सौ रुपये है. नौकरी मिलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं. अगर मिल गयी तो वेतन में से हर माह एक निश्चित रकम उनको देनी पडे़गी. आप ही बताइये साहब, मैं गरीब रिक्शा वाला जिसकी पूरी पूंजी ले देकर यह रिक्शा है, पाँच सौ रुपये कहाँ से लाऊँ?”

अमर ने सूरज मुंडा के बारे में सुन तो बहुत कुछ रखा था, पर वह इतना नीच है, इसका पता उसको नहीं था. उसने रिक्शे वाले से पूछा, “यह बात मैं जिसके सामने बोलने को कहूंगा, उसके सामने कहोगे?”

रक्शा वाला बोला, “अगर मैं ऐसा कर दूँ तो दूसरे दिन मेरी लाश किसी गंदे नाले में पडी मिलेगी. आप बहुत दयालु हैं, इसी से आपसे कहने का साहस कर सका. ”

अमर अब सूरज मुंडा के बारे में सोचने लगा. सूरज मुंडा जो केवल मैट्रिक तक पढा था, कारखाने का एक साधारण मुलाजिम था, पर था एक नंबर का तिकडम बाज. आदिवासियों की सरलता और उनकी इमानदारी का तो नामोनिशान नहीं था उसमें. शराब के नशे में धुत रहने वाला सूरज मुंडा आदिवासियों और प्रशासन दोनों को उल्लू बना रहा था. उसके पालित गुंडों के भय से प्रशासन वर्ग का कोई भी अधिकारी उसके विरुद्ध मुँह नहीं खोल सकता था. आदिवासी तो उससे भयभीत थे ही. बडे़-बडे़ नेताओं से पहचान रखने वाला सूरज मुंडा एक छत्र राज कर रहा था उस इलाके में. अमर को पता नहीं चल रहा था कि वह रिक्शे वाले को क्या उत्तर दे. किसी तरह दिलाशा देकर उसने रिक्शे वाले को विदा किया.

अब वह घर लौटते हुए सोच रहा था, क्या विडंबना है. हमलोगों यह छोटा सा शहर है. अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध यह जगह आदिवासियों की सादगी और सरलता का प्रतीक था, क्या मिला इस शहर को आज विकास के नाम पर?

एक वर्ग बन गया सुरेश सिंह का. दूसरा वर्ग बन गया सूरज मुंडा जैसे स्वयंभुओं का. एक छोटा वर्ग उन लोगों का भी अवश्य बना जिसके सदस्य अमर जैसे लोग थे, पर उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती थी. वे शोषण को रोक नहीं सकते थे, पर उनकी आह या कराह भी किसी की भलाई नहीं कर रही थी. एक बडा वर्ग बन गया था, उन लोगों का जिनका प्रतिनिधि वह रिक्शे वाला था, समाज का शोषित अंग. सुरेश सिंह का वर्ग तो मस्त था. उनके कारनामे, उनकी रंगदारी दिनोदिन बढ़ रही थी सूरज मुंडा जैसे नेताओं से उनकी साँठ गाँठ लोग केलिए क्यामत ढा रही थी. पिस रहे थे दीन हीन, रिक्शे वाले जैसे लोग. अमर के दिल में एक तडप ने जोर मारा कि वह लड पडे इन सब के विरुद्ध, पर वह जानता था कि ऐसा कुछ भी नही कर पाएगा वह.

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