छात्रसंघ की छाती पर लिंगदोह का रोलर

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दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव संपन्न हुआ । इतिहास में पहली बार चार में से तीन पदों पर छात्रा प्रतिनिधि ने जीत हासिल की । लिंगदोह की आग में झुलसने के बाद भी दो प्रमुख छात्र संगठनों ने मीडिया और वामपंथी संगठनों के खोखले दावों को झुठलाते हुए अपना दबदबा बरकRobertaLexierfistरार रखा । इस बार का डूसू चुनाव कई मायनों में गौर करने लायक है । ऐसा लगातार दूसरी बार हुआ जब छात्रसंघ चुनाव के प्रतिभागियों पर आचारसंहिता और लिंगदोह समिति की सिफारिशों के नाम पर गाज गिराई गई । इससे हास्यास्पद और क्या होगा कि नतीजे घोषित होने के बाद भी तीन निर्वाचित डूसू पदाधिकारियों पर प्रशासन का डंडा चल सकता है । २००७ की तुलना में अबकी जो हुआ वो निंदनीय और तानाशाहीपूर्ण रवैया है । ये सच है कि छात्रसंघों का स्वरुप अब मुख्य धारा की राजनीति में घुसने का जरिया यानि “लौन्चिंग पेड ” बन गया है । आज़ादी के उपरांत भारत के शिशु लोकतंत्र में लोकतंत्र की वर्णमाला को सिखाने , युवा छात्रशक्ति को एक जुट बनाकर सही दिशा में ले जाने का उद्देश्य गत वर्षों में घूमिल हुआ है । कभी तख्तापलट की क्षमता रखने वाली छात्रशक्ति आज ख़ुद पर हो रहे हमलों से निबटने में शिथिल नज़र आती है । जे ० पी ० आन्दोलन के छात्रनेताओं की टिकट पक्की क्या हुई , छात्र राजनीति के हरे-भरे वृक्ष में भी तमाम दुर्गुणों का समावेश होने लगा । आज हम छात्र राजनीति में धनबल और बाहुबल का नंगा नाच देखते हैं वो उसी एक घटना का परिणाम है । ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने के बाद हीं छात्र राजनीति की दुर्दशा के कारणों को समझा जा सकता है । लेकिन आज के बुद्धिजीवियों , मीडिया के लोगों , न्यायाधीशों को इस तथ्य से कोई सरोकार नहीं है । डूसू चुनाव अधिकारी गुरमीत सिंह ने के ० जे० राव बनने की चाहत में छात्रराजनीति की ताबूत में एक और कील ठोकने में कसर नहीं छोड़ी । सभी मानते हैं और मैं भी कहता हूँ ” छात्रसंघ चुनाव में धन -बल का प्रयोग नहीं होना चाहिए ” । लिंगदोह की सिफारिशों में कुछ बातों के अलावा सभी सुझाव स्वागत योग्य हैं । परन्तु , क्या चुनाव अधिकारी और प्रोक्टर का फ़ैसला ग़लत तरीके से थोपा नहीं गया ? क्या विश्विद्यालय प्रशासन ख़ुद लिंगदोह की सभी सिफारिशों का पालन करती है ? नहीं , बिल्कुल नहीं अपने हिसाब से कुछ बातों को आधार बना कर मनमाना काम कर रही है प्रशासन । मसलन , लिंगदोह समिति के अनुसार :
*सभी सम्बद्ध ९० कॉलेजों को जोड़ कर चुनाव कराये जाने की बात कही है जबकि केवल ५१ कॉलेज में डूसू चुनाव होते हैं ।
*ग्रिवियांस सेल गठित करने की बात भी कही गई है जिसमें दो छात्र प्रतिनिधि को शामिल करना होता है लेकिन प्रशासन की तरफ़ से ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया । लिंगदोह समिति की सिफारिशों में वर्णित इस सेल को मात्र चुनाव के लिए नहीं बल्कि वर्ष भर के लिए बनाये जाने का प्रावधान है ।
अन्य कई साक्ष्य और तर्क प्रस्तुत हो सकते हैं जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन ख़ुद लिंगदोह की कई सिफारिशों को नज़रअंदाज कर मनमाना काम कर रहा है । यह केवल दिल्ली विश्वविद्यालय का मसला ना होकर समूची छात्र राजनीति के भविष्य का मुद्दा बन गया है । देश की २४ बड़े विश्वविद्यालयों में से मात्र ४ में छात्रसंघ चुनाव करवाया जा रहा है । जे ० एन० यू० के आदर्श छात्र -राजनीति भी लिंगदोह के दायरे में सिमट कर दम घोट रही है । आज के गंदे राजनैतिक परिदृश्य में “स्टुडेंट एक्टिविज्म ” के बचे खुचे रास्तों को भी बंद किया जा रहा है । क्या सचमुच छात्र राजनीति समाप्ति की ओर तो नहीं ? या फ़िर यह एक नए बदलाव को जन्म देगा ? कहीं यह आने वाले तूफ़ान के पूर्व की शान्ति भी हो सकती है । इतना कुछ हो गया और छात्र सोया है । मीडिया नामांकन रद्द के मुद्दे को सही बता रही है । बात एक तरफ़ से ठीक और कर्णप्रिय लगती है । हमें भी खुश होना चाहिए ! क्यों ? अरे , छात्रसंघ को साफ़ सुथरा बनाया जा रहा है! पैसों और ग्लेमर का जोर ख़त्म किया जा रहा है ! हाँ, कुछ सवालों का जबाव तो देना पड़ेगा :
क्या आज तक किसी नेता का लोकसभा , विधानसभा या स्थानीय निकाय के चुनावों में आचारसंहिता के उल्लंघन को लेकर नामांकन रद्द किया गया है ? किन-किन नेताओं के नाम बताऊँ जिन्होंने खुले आम आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए नोट बांटे । पोस्टरबाजी की छोड़ो खुलेआम पार्टी चुनाव चिन्हों का प्रतीक सरकारी पैसों से बनवाया गया  । माया और उसके हाथी का मामला अभी गर्मागर्म है । जब वहां कुछ नहीं तो यहाँ क्यों ? तो फ़िर छात्र प्रतिनिधियों अर्थात लोकतंत्र के शावकों को पिंजरे में डालने का फ़ैसला अन्यायपूर्ण नहीं है ?
क्या विश्वविद्यालय प्रशासन के मनमाने तरीके से चलाये गये सफाई अभियान के बाद जीते उम्मीदवार आदर्श छात्र प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं? नए डूसू में दो प्रतिनिधि ऐसे हैं जो प्रथम वर्ष के छात्र हैं । क्या प्रथम वर्ष का एक छात्र जो अभी-अभी कॉलेज में आया है वो छात्रों का प्रतिनिधित्वा करने योग्य है ? क्या उसे छात्र समस्यायों का तनिक भी ज्ञान है ? एक वर्ष के कार्यकाल में तो विश्वविद्यालय के माहौल को समझने में गुजर जाएगा फ़िर काम क्या होगा ?
क्या केवल पोस्टरबाजी और जुलुस निकलना हीं आचार संहिता का उल्लंघन है ? छात्रों में शराब बाँटना , उन्हें सिनेमा दिखाना , वाटर पार्क ले जाना आदि कर्म जो गुप-चुप तरीके से वोट जुटाने के साधन हैं , आख़िर इस पर रोक कैसे लगाई जायेगी और प्रशासन ने इस दिशा में कुछ क्यों नही किया ?
अंत में एक बुनियादी सवाल कि क्या किसी प्रकार का बदलाव एक झटके में संभव है ? क्या देश -काल-परिस्थिति की सीमाओं से परे होकर वास्तविकता को जिया जा सकता है ? लिंगदोह की सिफारिशों को लागू करने से पहले उसके आगे-पीछे के परिणामों और खास तौर से उसके व्यावहारिक पक्ष की नाप -तौल करनी होगी । लोकतंत्र को स्वच्छ बनाने , चुनावों में धनबल -बाहुबल का जोर कम करने की हरेक कोशिश तबतक कामयाब नहीं होगी जबतक कि मतदाता समझदार और ईमानदार नहीं होगा ।उदाहरण के लिए , जेएनयू को देखें । वहां का आदर्श छात्रसंघ किसी समिति की सिफारिशों का मुहताज न होकर मतदाताओं अर्थात वहां पढने वाले छात्रों की इमानदार पहल का नतीजा है । अतःहम सब लिंग्दोही डंडे की ओर ताकना छोड़ इस बात पर ध्यान दें तो बहुत कुछ हो सकता है ।

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