-बीएन गोयल- सुभाष चन्द्र बोस – एक श्रद्धांजलि
कैसी विडम्बना कि गत 23 जनवरी को देश के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्म दिन के अवसर पर संसद में श्रद्धांजलि देने के लिए प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री, सांसद, लोकसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, राज्य सभा के अध्यक्ष आदि में (एक अपवाद स्वरुप मात्र अडवाणी जी को छोड़कर) सभी नदारद थे क्योंकि इन में से किसी को सुभाष बोस की आवश्यकता नहीं है। इन सभी ने शायद सोचा कि रस्म अदायगी भी क्यों करें। धन्य हैं हमारे ये नेता और धन्य है हमारा देश। हमारे देश के वर्तमान कर्णधार – किस किस को कहिये, किस किस को रोईये।
सुभाष चन्द्र बोस ने नारा लगाया था -‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा – अर्थात आज़ादी प्राप्त करने के लिए अगर तुम्हें अपने प्राण न्योछावर भी करने पड़ें तो वह भी कम है। 22 सितम्बर 1944 के दिन सुभाष ने अपने एक भाषण में यह गर्जना की थी। यह एक महत्वपूर्ण भाषण था। सुभाष बोस ने ही लाल किले पर तिरंगा लहराने का आह्वान किया था, देशवासियों को जयहिन्द कहना सिखाया था। याद आता है 1947-48 का बचपन का वह युग जब स्वतंत्रता मिली ही थी और हम सुबह सुबह अपने गांव के स्कूल में एकत्र हो कर प्रभात फेरी निकालते थे और अन्य गीतों के साथ सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के गीत ‘क़दम क़दम बढ़ाये जा, ज़िन्दगी है क़ौम की, क़ौम पे लुटाये जा’ गाया करते थे। दूसरा लोकप्रिय गीत था झंडा गीत, स्व. सोहन लाल गुप्त पार्षद का लिखा गीत – झंडा ऊंचा रहे हमारा।
समय बदलता गया, धीरे-धीरे राजनीति भी रंग पलटने लगी और लीडरशिप का केन्द्रीयकरण होता गया। लेकिन सुभाष बोस की आभा तब भी बढ़ती ही रही। लेकिन 18 अगस्त 1947 को हुआ वज्रपात, सुभाष अचानक गायब हो गए. आशंका यही बताई गयी कि स्याम जाते समय फारमोसा द्वीप पर उनका विमान टकराया और उसी में उनका निधन हो गया। लेकिन भारतवासियों का भावनात्मक जुड़ाव ऐसा कि उन्होंने इस बात पर विश्वास नहीं किया, उन्होंने कभी माना ही नहीं, क्योंकि उनका ह्रदय ऐसी बात सुनना ही नहीं चाहता था। आज भी काफी लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। सुभाष बोस का आभामंडल और लोगों के मन में उनके प्रति अटूट श्रद्धा कि लोग अधीरता से उन के आने की प्रतीक्षा करते रहें। ऐसी सुखद लेकिन जादुई अपेक्षाएं करते रहते, जैसे वे कहीं से एक दम प्रकट हो जायेंगे और देश की समस्याओं का समाधान कर देंगे। यही कारण था कि समय समय पर जनता के सामने अचानक कुछ इस तरह के व्यक्तियों के आगमन से लोग उन को सुभाष बोस मान बैठते थे। यह एक तरह से विश्वास का अतिरेक (obsession) ही था। काफी लोगों को याद होगा जब 1956-57 में कूच बिहार (असम) सिलहट के पास एक गहरी और चौड़ी नदी पार कर दुर्गम जंगल में आश्रम बना कर रह रहे एक साधू को सुभाष बोस मान लिया था। इनका नाम था- शौलमारी बाबा और आश्रम का नाम था ‘शौलमारी आश्रम’. उस समय न तो दूर संचार के साधन इतने विकसित थे और न ही यातायात के साधन। ये साधू कोई भगवा कपड़े पहनने वाले पारम्पारिक साधु नहीं थे। ये सफ़ेद कुर्ता धोती पहने और मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये हुए एक पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। कितने लोगों ने कठिनाइयां उठाकर, उन साधु अर्थात ‘सुभाष बोस’ से मिलने और उन को देखने की इच्छा से ही, उस आश्रम की यात्रा की थी। इनमें सुभाष बोस के एक समय के मित्र उत्तम चंद मल्होत्रा भी थे, जिन्होंने 1941 में काबुल में सुभाष बोस को अपने घर छिपा कर रखा था। मल्होत्रा जी ने उन साधु को सुभाष बोस सिद्ध करने का भरसक प्रयास किया। सुभाष बोस के बारे में बैठाई गयी जांच समिति के सामने उत्तम चंद मल्होत्रा ने बड़े ही ज़ोर शोर से यह बात रखी थी। यहां तक कि जांच समिति के अध्यक्ष पर ज़ोर भी डाला कि उन्हें स्वयं शौलमारी आश्रम जाना चाहिए।
यह आश्रम तत्कालीन समय के विकसित अति आधुनिक उपकरणों से युक्त था। हिंदी के समाचार पत्रों ने उस आश्रम पर श्रृंखलाबद्ध विवरण भी छापे गए थे। मैंने स्वयं उस लेख माला को क्रमिक रूप से एक कॉपी में चिपकाकर रखा था, क्योंकि उस समय इतनी दूर की यात्रा तो सम्भव नहीं थी। वह कॉपी मेरे अपने घरेलू संग्राहलय में अभी भी कहीं मिलनी चाहिए। कुछ समय बाद जब उस आश्रम की यात्रा करने वालों की सख्या बढ़ने लगी तो वे साधु कहीं गायब हो गए और आश्रम की भी कोई सूचना फिर नहीं आयी। इसी तरह हमारे ही शहर के एक निरांत, अकेले रहने वाले, सरल और शांत स्वभाव के मितभाषी डॉक्टर को सुभाष बोस मान लिया गया था। वे सफ़ेद कुर्ता, चूड़ीदार पाजामा और सफ़ेद टोपी पहनते थे और अधिकांशतः अपने घर में ही बंद रहते थे। अपना समय राजनीति की मोटी-मोटी पुस्तकों के पढ़ने में लगाते थे। उन दिनों वे डॉक्टरी नहीं करते थे और जनता से कोई सीधा संपर्क नहीं रखते थे। इसलिए ऐसा भ्रम हो जाना स्वभाविक था। इस अफवाह के फैलते ही अचानक डॉक्टर के घर पर आने वालों की भीड़ लग गयी थे. बड़ी कठिनाई से वे इस समस्या से छुटकारा पा सके थे।
इसी प्रकार पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन पर एक बौद्ध भिक्षुक को उनके पार्थिव शरीर के पास खड़े देखा गया था। काफी दिनों तक ऐसी हवा चली की यह भिक्षुक सुभाष बोस ही है जो पंडित नेहरु को श्रद्धांजलि देने आये हैं। इस बात की पुष्टि के लिए कितने ही लोगों ने पंडित नेहरू की शवयात्रा की फ़िल्म बार-बार देखी। ये घटनायें देश की जनता का सुभाष बोस के प्रति प्रेम, सद्भाव, आस्था, निष्ठां, अपेक्षाएं और आशाएं ही दर्शाती हैं। यह सद्भाव और प्रेम आज भी किसी तरह कहीं कम नहीं हुआ है बल्कि बदलते दूषित वातावरण में और बढ़ा ही है। हमारे देश में आजकल दिवंगत नेताओं को दुकड़ों में बांटकर देखने की आदत हो गयी है। कभी हम नेहरू-गांधी को बांट देते हैं तो कभी नेहरू और पटेल को अथवा नेहरू और राजेंद्र प्रसाद को। वास्तविकता यह है कि हर व्यक्ति का अपना एक व्यक्तित्व, कार्य प्रणाली, विचारधारा, आस्था और विश्वास होता है। सभी नेता अपने अपने अनुसार काम कर रहे थे। सुभाष बोस और महात्मा गांधी में वैचारिक मतभेद हो सकता है, लेकिन दोनों में बहुत सी समानताएं थी।
महात्मा गांधी की तरह सुभाष बोस का भी ईश्वर में दृढ़विश्वास था। जो भी उनके सम्पर्क में आता वह एक स्पंदन अवश्य महसूस करता। देशबंधु चितरंजन दास उनके राजनैतिक गुरु थे तो स्वामी विवेकानंद उनके आध्यात्मिक गुरु। उनके एक गहन मित्र और प्रशंसक स्व. श्री हरी विष्णु कामथ ने लिखा था कि सुभाष बोस श्रीमद्भागवत का छोटा गुटका सदा अपने साथ रखते थे। वे गीता से अत्यधिक प्रभावित थे कि कहा करते थे – ‘जब श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन से शस्त्र उठाने और धर्मयुद्ध करने के लिए कह रहे हैं तो मैं किस तरह से अहिंसा का रास्ता अपना लूं। एक बार आज़ादी मिल जाये तब सब कुछ छोड़ दूंगा।’
कामथ ने अपने लेख के अंत में कहा है कि यह उचित ही होगा यदि मैं लोकमान्य तिलक को ‘भारतीय (स्वतन्त्रता प्राप्ति की) व्यग्रता का जनक’ (Father of Indian unrest) कहूं, महात्मा गांधी को ‘भारतीय संघर्ष का जनक’ (Father of Indian Struggle) कहूं और सुभाष बोस को भारतीय क्रांति का जनक’ (Father of Indian Revolution) कहूं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का नाम सबसे पहले सुभाष बोस ने ही दिया था। अंत में मैं तो इतना ही कहूंगा कि नेताजी सुभाष बोस को किसी सांसद की श्रद्धांजलि की आवश्यकता नहीं है। वे इन सब से कहीं आगे हैं।