पीड़ा

कभी किट बन, कभी बीज बन आती हैं पीड़ा
कभी बरसात बन के सीने पर करती हैं क्रीड़ा
है प्रकृति तुमने ये कैसा तांडव मचा दिया
तेरे अजब इस खेल ने जीवन तबाह किया
था जो कुछ पास में सब कुछ तो हार बैठा हूँ
क्यों सितम किया इतना मैं भी तो तेरा बेटा हूँ
तुझको दुःख में पुकारता हूँ दूर तू चली जाती हैं
जब कभी मिलने आये सुख छिन कर ले जाती हैं
जो खड़ी थी खेत में वो मेरी भुजाएं थी
नष्ट कर के उनको तू ने दी कोनसी सजाएं थी
आज मन की पीर को आँसू में गा रहा हूँ मैं
तेरे छलने की कथा रो- रो के सुना रहा हूँ मैं
सुन लो मेरे रहनुमाओं आज ये विपदा पड़ी
अब केवल तुम्हारे सहारे मेरी आशाएं खड़ी

 

–कुलदीप प्रजापति

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here