आफत में अन्नदाता

0
166

संदर्भः पंजाब में सफेद मक्खियों का आतंक

white flyप्रमोद भार्गव
पंजाब में पिछले कुछ दिनों से अन्न्दाताओं द्वारा रेल रोको आंदोलन चलाया जा रहा है। रेल व्यवस्था इसलिए ठप की गई है,क्योंकि पंजाब में एक विशेष प्रजाति की सफेद मक्खी ने ऐसा आतंक मचाया कि कपास की फसल पूरी तरह चौपट हो गई। जबकि अन्नदाताओं ने फसल बचाने के लिए करीब 150 करोड़ रुपए के कीटनाशकों का प्रयोग किया था। पर ज्यादातर कीटनाशक बेअसर रहे,क्योंकि नकली थे। यहां तक कि पंजाब सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए कीटनाशक भी असरकारी साबित नहीं हुए। नतीजतन इस तबाही के चलते 15 किसान आत्महत्या कर चुके है और बर्बादी का आकलन 4200 करोड़ रुपए से अधिक है। हालांकि सरकार ने 640 करोड़ रुपए मुआवजा देने की घोषणा की है,लेकिन नुकसान की तुलना में यह मुआवजा ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। दरअसल कोई भी सरकार नुकसान की भरपाई करने में समर्थ नहीं है,इसलिए जरूरी है कि खेती के तौर-तरीके बदले जाएं। ऐसा होता है तो किसान की बाजार पर निर्भरता कम होगी और वह क्रमषः ऋण मुक्त होता चला जाएगा।
पंजाब हरित क्रांति का अग्रणी राज्य रहा है। किंतु अब यही हरित क्रांति उलटबांसी साबित होकर अभिशाप बन रही है। इस क्रांति के बाद आर्थिक उदारवाद के दौर में अनुवांशिक रूप से परिवर्धित बीजों को कृषि पैदावार बढ़ाने का डंका पीटा गया था। बीटी कपास आजकल इन्हीं बीजों से पूरे देश में उपजाया जा रहा हैं। पंजाब के अलावा आंध्र प्रदेश,तेलांगाना,महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में कपास के जीएम बीजों का अधिकतम उपयोग होता है। यही वे राज्य हैं, कर्ज में डूबे किसान सबसे ज्यादा आत्महत्याएं कर रहे हैं। सफेद मक्खियों के आतंक के चलते पंजाब में हाल में 15 किसान खुदखुशी कर चुके हैं। इसी तरह कर्नाटक में 400 और महाराष्ट्र में 628 किसानों ने मौत को गले लगाया हैं। मध्यप्रदेश में रोज किसान आत्महत्या की खबरें आ रही हैं। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय की 1 रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 साल में यहां 7000 से भी ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। आत्महत्या के कारणों में अब बड़ी वजह बाजार में उपलब्ध खराब बीज,कीटनाशक और रसायनिक खाद बन रहे हैं। कृषि उत्पादकता से जुड़ी इस सामग्री की गुणवत्ता की जांच किसी भी तंत्र द्वारा नहीं की जा रही है,क्योंकि इसका उत्पादन और विक्रय में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ हैं। इस तंत्र पर अंकुश नहीं लगाया गया तो अन्नदाता आफत से उबरेगा ही नहीं,देश की खाद्य सुरक्षा भी संकट में पड़ जाएगी।
यह सही है कि हरित क्रांति कृषि के वैश्विक फलक पर एक ऐतिहासिक घटना थी। इस क्रांति को भारत में सफल बनाने की दृष्टि से डॉ नार्मन बोरलाग और सी सुब्रामण्यम की अहम् भूमिकाएं रहीं थीं। डॉ बोरलाग 1963 में भारत आए थे। यहां गेहूं की कम पैदावार देखकर उनका चिंतित होना लाजिमी था। इसी समय अमेरिका ने जापान से कुछ विलक्षण किस्म के गेहूं के अनुवांशिक बीज लेकर नई किस्में विकसित कीं थीं। मैकिस्को ने भी गेहूं उत्पादकता की कमी के चलते इस तकनीक को अपनाया और सफलता पाई। कृषि सचिव सी सुब्रामण्यम ने ढाई टन बीज मैक्सिको से आयात किए और इनका कृषि संस्थानों में परीक्षण किया। कारगर नतीजे आने के बाद मैक्सिको से 18 हजार टन गेहूं आयात किया गया। ये लरमा रोजो-64 और सोनोरा-64 नामक किस्में थीं। 1966-67 में इन्हीं बीजों से हरियाणा-पंजाब की 2,40,000 हेक्टेयर कृषि भूमि में खेती की गई। इसके आश्चर्यजनक नतीजे आए। 1967 में 12.4 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन हुआ, 1968 में यह बढ़कर 16 मिलियन टन हो गया। बाद में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और जीबी पंत कृषि प्रौद्योगिकी संस्थान, पंतनगर ने इन्हीं बीजों को सोनालिका और कल्याण-सोना नाम से उत्पादित करके पूरे देश में फैलाया। गेहूं की बढ़ी उत्पादकता से खुश होकर इंदिरा गांधी ने गेहूं-क्रांति पर एक डाक टिकट भी जारी कराया था। इस कृषि विकास का ही परिणाम था कि बिहार,झारखण्ड और छत्तीसगढ़ से लाखों कृषि मजदूर आजीविका के लिए हरियाणा पंजाब जाते थे।
डॉ विलियम एस गाॅड द्वारा दिए ’हरित क्रांति’ नाम का यह उज्जवल पक्ष था, लेकिन महज 30 साल बाद ही देश को अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाली इस कृषि प्रणाली का भयावह काला पक्ष दिखाई देने लगा है। क्योंकि इसकी ज्यादा उत्पादकता में सिंचाई के लिए बड़ी मात्रा में पानी,रासयनिक खाद व कीटनाशकों की जरूरत रहती है। नतीजतन धीरे-धीरे जमीन ने उर्वरा क्षमता तो खोई ही, भूजल के बेतहाशा दोहन से जल स्तर भी पाताल में चला गया। पंजाब के कई इलाके ‘शुष्क क्षेत्र’ मसलन डार्क जोन घोषित कर दिए गए। अब इन क्षेत्रों से आधुनिकतम तकनीकों से पानी खींचना नामुमकिन हो गया है। दूसरी तरफ बड़ी मात्रा में रसायनों के उपयोग से पंजाब के किसान कैंसर जैसे लाइलाज रोग से ग्रस्त होने लगे हैं। सबसे ज्यादा बुरे हालात उस मालवा क्षेत्र में हैं,जो सबसे ज्यादा समृद्धशाली है। यहां 26 प्रतिशत खेती को सिंचाई सुविधा हासिल है। यहां 52 फीसदी सिंचाई नहरों के पानी से होती है। बावजूद विडंबना है कि सबसे ज्यादा इसी क्षेत्र के अन्नदाता मौत को गले लगाने पर आमादा हैं। कैंसर पीड़ित भी इसी इलाके में ज्यादा हैं। क्योंकि यहीं जहरीले रसायनों का ज्यादा उपयोग हुआ है। ये हालात इसलिए निर्मित हुए,क्योंकि कालांतर में किसान जमीन से फसल तो कम निकाल पा रहा है,लेकिन कृषि-लागत बढ़ जाने से कर्ज में कहीं ज्यादा गहरा डूबता जा रहा है। पंजाब के किसानों पर 2010-11 के आंकड़ों के मुताबिक 35 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है।
अन्नदाता इन बद्तर हालातों से उबरे,इस हेतु जरूरी है कि मौजूदा कृषि नीति और खेती के तरीकों को बदला जाए। कृषि वैज्ञानिकों की सलाह है कि बहुफसलीय खेती को बढ़ावा मिले। इससे फसलों की पैदावार में जो एकरूपता आ गई है,वह विविधता में बदलेगी। जीएम बीजों,रासायनिक खादों,कीटनाशकों और सिंचाई के लिए पानी व बिजली की जरूरत कम होगी। इससे किसान की निर्भरता बाजार पर कम होगी और उसके उत्तरोत्तर समृद्वशाली होने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इसी नजरिए को ध्यान में रखते हुए पंजाब सरकार ने फैसला लिया है कि धान की उगाही में कमी लाई जाएगी। सरकार ने करीब 12 लाख हेक्टेयर जमीन में दूसरी फसलों की पैदावार के लिए 7.5 हजार करोड़ रुपए की एक योजना को अंतिम रुप दिया है। इसी कड़ी बरसात से पहले धान की खेती करने पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस पहल से धान का रकबा घटेगा और भूजल दोहन थमेगा। बरसात से पहले धान की रोपाई नहीं करने से बिजली की खपत पर भी अंकुश लगेगा।
पंजाब में फिलहाल 28 लाख हेक्टेयर भूमि में धान की खेती होती है। सरकार की मंशा है, अगले पांच साल में इसे घटाकर 16 लाख हेक्टेयर कर दिया जाए। जिससे शेष कृषि भूमि में दालें, तिलहन, मक्का, ज्वार व अन्य शुष्क फसलें पैदा की जा सकें। साथ ही प्रोटीनयुक्त स्वास्थ्यवर्धक मोटे अनाज की भी उपज को प्रोत्साहित करने की जरुरत है। आज कठिया गेहूं, ज्वार, बाजरा, कोदो, कुटकी और पसाई धान के चावल बाजार में ढूंढे भी नहीं मिलते। हरित क्रांति से पहले भारत दाल और तिलहनों के मामले में आत्मनिर्भर था। किसान खुद देशी कोल्हुओं में मूंगफली, तिल और सरसों की पिराई करके तेल की आपूर्ति पूरे समाज के लिए करता था,किंतु उद्योगों को बढ़ावा देने के नीतिगत उपायों के चलते इन देशज तकनीकों को नेस्तनाबूद कर दिया गया। पंजाब की इस पहल को मिसाल मानते हुए पूरे देश में यदि खेती में विविधता लाई जाती है तो इस विविधीकरण के अनेक लाभ होंगे। छोटे किसानों और छोटी जोत का महत्व सामने आएगा। 85 प्रतिशत किसान इसी वर्ग में आते हैं। अब तक बड़े किसान और बड़े खेतों के मद्देनजर इस वर्ग की अनदेखी की गई है। जबकि छोटे खेत और सीमांत किसान बड़ी उत्पादकता से जुड़े हैं। जितना छोटा खेत होगा, पैदावार उतनी ही ज्यादा होगी। क्योंकि उसकी देख-रेख उचित ढंग से हो जाती है। किसान इस खेत में जरुरत पड़ने पर सिंचाई, बिना ऊर्जा की खपत वाले देशज संसाधनों से कर लेता है और खाद का इंतजाम मवेशियों के गोबर से करता है। अन्ना हजारे ने अपने गांव रालेगन सिद्धि में कृषि के ऐसे ही छोटे उपायों से किसानों को आत्मनिर्भर बनाया है। तुर्की में हुए एक शोध से साबित हुआ है कि एक हेक्टेयर का खेत 10 हेक्टेयर के खेत से अधिक उपज दे सकता है। क्योंकि ऐसे खेतों के मालिक श्रम और रखवाली खुद करते हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि केंद्र और राज्य सरकारें किसान और कृषि संकट से मुक्ति के लिए ठोस नीतिगत उपाय करें,ताकि देश का अन्नदाता आफत से मुक्त हों।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here