सुलगा हुआ जग लग रहा, ना जल रहा ना बुझ रहा; चेतन अचेतन सिल-सिला, पैदा किया यह जल-जला । तारन तरन सब ही यहाँ, संस्कार वश उद्यत जहान; विधि में रमे सिद्धि लभे, खो के भरम होते सहज । आत्मीय सब अन्तर रहे, माया बँधे लड़ते रहे; जब भेद मन के मिट गये, उर सुर मिला गल मिल गये । तब अग्नि ना आहत करी, उपयुक्त संयत सी लगी; ना धूम्र उम्र असर किया, वह धर्म बह कर चल दिया । आनन्द वर वश छा गया, अपना- पना मग मिल गया; ना प्रताड़ित कोई किया, 'मधु' स्वर निनादित सब रहा ।