सूरीनाम की धरती पर धड़कता भारत

-कविता मालवीय-
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खिचड़ी दाढ़ी, दो सितारा आंखों से फिसलती हुई दबी हंसी से सनी आवाज़ आई “मैं अंदर आ जाऊं गुरु जी ?” कहते हुए २० साल का युवक दक्षिण अमेरिका के सूरीनाम देश के पारामारिबो शहर के भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के हिंदी कक्ष के द्वार से प्रवेश कर रहा था, मेरा यहां तीसरा दिन था, मैं हिन्दी की कक्षा में परिचय स्तर के विद्यार्थियों की थाह ले रही थी कि उसके इस एक वाक्य ने मेरी थाह ले डाली,
गुरु जी! वेद पढ़ाते हो?
“अ… ह… मैं हिंदी पढ़ाती हूं” मैंने अचकचा के उत्तर दिया.
उसके चेहरे पर आशा की अभी अभी बुझी हुई बत्ती की कालिख पुंछ गई थी पर अपेक्षा की अधबनी दीवार से गिरते गिरते पैर रखने को जगह बना कर “नीरज प्रताप अभिनन्दन शर्मा पलटन तिवारी” हंस कर बोला,
“आप के पास हिंदी की पढ़ाई करनी है आप पढ़ाओगे ? “मेरी मुस्कराती हाँ में भारत देश का इसी उम्र का नोजवान घूम रहा था क्या वो भी इतनी शिद्दत से वेद पढ़ना चाहता है ? दादी मां का जुमला तो था, सात समंदर पार… पर यहां तो बसा है भारत सा संसार. सुखद आश्चर्य से रोंगटे खड़े हो जाते हैं.

“५ जून १८७३ ई. में जो लालारुख जहाज से ये सपनों की टोकरियां लेकर उतरे जिसका सिलसिला २४ मई १९१४ तक जारी रहा. गुरु जी! मजदूरी करने के लिए जंगलों में भेजे गए इंडिपेंडेंस स्क्वेर के पास खड़ी “बाप माई“ की सजीव मूर्तियां हमारे पूर्वज की याद दिलाती हैं “कहते-कहते मिस सूरीनाम की मां शर्मीला राम रतन का स्वर आज भी भर्रा जाता है. फोर्ट जीलेंडिया के संग्राहलय की दीवार से लटके उन श्रमिकों के अंधेरे के कालिख से पुते चेहरे और उनके पैरों के चित्र त्रास की सिहरन से भरे हैं, पर सूरीनाम का हिन्दुस्तानी उसे लेकर अपने माथे पर हाथ धर कर नहीं बैठ गया बल्कि उसने अपनी कर्मठता की लाठी लेकर कराह की सीलन से भरी कोठरियों से निकल अपनी संस्कृति और भाषा का परचम खुले में लहराया. अपने अस्तित्व की रक्षा की रस्साकसी में भारतीय संस्कृति कंचन की तरह दमक उठी जिसकी चमक सत्ता के गलियारों से लेकर व्यवसाय के घरानों और मंदिरों में वेद पाठों के मंत्रोच्चारण में देखी जा सकती है, जहां पूरे साजो श्रृंगार के साथ छोटी छोटी लड़कियां सर ढके बिना आरती नहीं करती.
किसी बड़े देश की कोलोनी होने का दाग कह लो या छाप, वह चप्पे-चप्पे पर होती है, उन दागों के गड्ढों के निशानों के साथ अपने चेहरे के नाक-नक्श बनाए रखना मुश्किल होता है, पर सूरीनाम के अप्रवासी भारतवंशियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी अथक परिश्रम से लगातार नए लक्ष्य बनाने की और उन्हें प्राप्त करने की. जब सूरीनाम दासता की जंजीरों से निकला भर था और पेट भरने तक की मारामारी थी आत्मनिर्भर होने की कोशिश में, तब एक हिन्दुस्तानी ऐडी झारप के विचार का पल्लव १९८० में स्तातस ओली ओयल कंपनी के रूप में वट वृक्ष बना, जिसके करोड़ों डॉलर का उत्पादन आज सूरीनाम की आर्थिक व्यवस्था का आधार है. अमेरिका की बॉक्साइट कंपनी सुरालको में हेंक रामदीन ने महानिदेशक के पद पर कई वर्ष तक उच्चासीन होकर अपने योगदान से चार चांद लगाए.

कुली विद्यालय कहलाये जाने वाले स्कूलों से जीवन की शिक्षा लेकर निकले ढेरों नामों में से विश्व के सर्वश्रेष्ठ ५०० व्यक्तियों में से एक सूरीनाम के लेखक “ज्यान अधीन” का नाम सूरज की “धाईं “चमकता है जिन्होंने दुनिया के पांच विश्वविद्यालयों से डिप्लोमा और विभिन्न विषयों में डिग्रियां हासिल की थीं, जिनके आजा आजी ने लालटेन के प्रकाश में कोठरी की मटमैली दीवारों पर पत्थर या लकड़ी से खोद-खोद कर, लिख कर अपनी भाषा को मरने नहीं दिया, उन्हीं के लालों में से एक सूरीनाम के प्रोफेसर मित्तरा सिंह कई क़ानून की किताबों के रचयिता “फादर ऑफ लौ” कहलाये, कर्म योग के ज्ञाता पंडित सूर्यपाल रतन जी ने तो सूरीनाम पर दोहों में छोटी-मोटी रामायण ही लिख डाली है. श्रीनिवासी मार्तिनस लक्ष्मण जैसे कई कलाकार तो डच और सरनामी में कवितायें लिखकर विश्व पटल पर अपना नाम खोद ही चुके हैं.

सौ सालों के सर्वोत्तम खिलाड़ियों में एक कुश्ती पहलवान अम्बिका प्रसाद जी के पूर्वज भारत से जहाज में अपने साथ गुल्ली-डंडा लाठी, कुश्ती और बनेठी लेकर आये थे तो उन्होंने फिर अपने सपनों को गिरमिटिया मज़दूर के त्रासद जीवन में डूबने नहीं दिया, रूप दिया उनको! साकार किया उनको! फ्रेडरिक रामदत मिसिर (मास्टर इन ला), रामसेवक शंकर और जूल्स आर अयोध्या कई वर्षों तक सूरीनाम के राष्ट्रपति पद पर सफलतापूर्वक आसीन रहे, जगरनाथ लछमन ने १९४९ से २००५ तक सूरीनाम की नेशनल असेम्बली का अहं हिस्सा रह कर “हम से सूरीनाम है हम सूरीनाम से है” का नारा बुलंद किया। सूरीनाम में नदियों के किनारे बड़े घटनाप्रद हैं बिंदास प्रेम, धैर्यवान मछलीमार, पार्बो बियर के झाग किनारे लगे बड़े विशाल जहाज और छोटी नावों पर चढ़ते उतारते जंगल में जाने के साजो सामान … इस सब के बाद वे रात को होली के एक महीना पहले से गाये जाने वाले चौताल के समूह में बैठे “कबीर हमार भी सुनो“ कह रहे होते हैं. नगारा और की थाप पर बैठक गाना और चटनी जैसे लोक कला के गानों की प्रथा को सूरीनाम के कई दिग्गज कलाकार रामदेव चैतु, हरिशिव बालक, अफ्फेंडी केटवारू, सुखराम अक्कल और क्रिस रामखिलावन (भोजपुरी पॉप ‘चटनी‘)आदि वैश्विक मंच पर लेकर आये.

शायद जब कुछ छूटने लगता है तब पकड़ना याद आता है, यहां आये हुए भारतवंशियों के साथ भी यही हुआ. ६६ प्रतिशत हिन्दुस्तानी ने जब सूरीनाम की धरती पर रुकने का निर्णय लिया तो वह सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भावनात्मक अस्तित्व की सीमाओं पर एक अनवरत युद्ध का ऐलान था, अस्तित्व और अस्मिता के बचाने की लड़ाई में अगम अगोचर की तरफ ही अपना कल्याण नज़र आया और अपनी संस्कृति और धर्म डूबते को तिनके का सहारा होते हैं, शायद यही कारण है कि सूरीनाम में इस वक्त १०० मस्जिदें और १३४ मंदिर हैं (आर्य समाजी, सनातन धर्मी, गायत्री समाज). भारत के अमूमन हर धार्मिक ग्रन्थ का अनुवाद डच भाषा में हो चुका है और हिंदी और उर्दू भाषा के शिक्षा के मंदिर अधिकतर मंदिरों और मस्जिदों में खुले हुए हैं. अस्सी वर्ष से ज्यादा उम्र के पंडित पाटनदीन को तो अधिकांश रामायण मुंहजबानी याद है। १९०१ में मुंबई से मुद्रित नाथूराम की “हिंदी की पहिली किताब “ से शुरुआत कर और एक लंबा सफ़र तय कर भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र की पाठ्यपुस्तकें ‘मंजूषा और राष्ट्र भाषा प्रचार समिति वर्धा (महाराष्ट्र) की पुस्तकों को अपने सीने से लागाये यहां की युवा पीढ़ी और प्रौढ़ वर्ग बिना किसी वेतन के हिंदी भाषा के विकास की सतत मुहिम में सलंग्न हैं. गौर करने लायक बात यह है कि महातम सिंह और हरदेव सहतु जैसे कर्मठ व्यक्तियों के दिशा निर्देशन व सहयोग ने सूरीनाम में हिंदी भाषा के स्वर व्यंजन को एक इतिहास नहीं बनने दिया गए अपितु उसे घर-घर तक पहुंचाया और महादेव खुन खुन, सुरजन परोही, अमरसिंह रमण जैसे कई कवियों ने सरनामी व हिंदी साहित्य की चौखट के भी दर्शन करवाए. पारामारिबो में स्थित भारतीय दूतावास द्वारा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए यहां के अध्यापकों व पाठशालाओं को मानदेय प्रदान किया जाता है, सूरीनाम हिंदी परिषद संस्था के द्वारा हिंदी की हर वर्ष प्रथमा स्तर से लेकर कोविद स्तर तक परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं, जिसमें हर साल ४५० से ५०० तक बच्चे बड़े बूढ़े भाग लेते हैं.

अवधि- भोजपुरी मिश्रित सरनामी बोली का मीठापन चाशनी के दो तार जिह्वा पर छोड़ देता है, वहीं हिंदी भाषा के रत्न स्तर के विद्यार्थी आर्य समाज मंदिर के पुरोहित जगदीश बीरे जी और अवतार विरजानंद सरीखे कई पंडितों की शुद्ध बोली व्याकरण के नियमों की याद दिलाती है. जब रामायण पाठ की कक्षा में मैंने बिना हाथ जोड़े रामचरित मानस खोल कर पढ़ना शुरू कर दिया तो दिल से हिन्दुस्तानी पर पाश्चात्य परिधानों में सजी महिलाओं की नज़रों के संदेह ने पैरों के नीचे कांटे बो दिए कि अगली बार मैं बिना सर नवाए रामायण नहीं खोल पाई. वर्षा जंगलों, मछलियों और पार्बो बियर के देश में रास्तों पर अदरक की चाय की गुमटी तलाशोगे तो ये मामला थोड़ा वैभव विलास की तरफ चला जाता है! सूरीनाम के एक जिले निकरी जाते हुए आईसीसी के वाहन चालक धर्मपाल से यहां की चाय ‘फर्नांडिस’ का ठंडा पेय पीते हुए पूछा कि यहां के कुछ धनी समृद्ध और बुद्धिजीवी लोगों के नाम बताओ तो उसने बताया कि शुरू से अब तक सूरीनाम देश में आटा के सबसे बड़े निर्माता ‘भिखारी’ का नाम चमकता है, दलीप सरजू, कुलदीप सिंह और बैताली यहां के बड़का व्यापारियों में से हैं. यह सुनकर मैं ठिठक गई परत दर परत बातचीत के बाद गरीब, झगड़ू या प्रेमचंद भोंदू (जो ज्ञानी और एक कवि हैं) जैसे नामों का जो नामा खुला, वह कहीं दिलचस्प तो कहीं अहम को चोट पहुंचाने वाला था, सन् १९७५ में हिंदी का ज्ञान बांटने के लिए गठित ‘सूरीनाम हिंदी परिषद’ के सचिव हारोल्ड प्रामसुख और सुषमा खेदू के साथ बातचीत में पता लगा कि कैसे नामों के रूप बदलने शुरू हुए भारत देश से ठेके पर लाये गए मज़दूरों ने जब जहाज से उतरते वक्त अपने नाम बताए तो विदेशी अधिकारियों को अनजान भाषा के जो नाम सुनने में आये उन्होंने वही लिखकर उनकी छाती पर पर्ची चिपका दी, दासप्रथा के दौरान अगर जिस नर्स ने बच्चे की डिलीवरी करवाई उसने अपना नाम उस बच्चे को दे दिया यहां तक कि विदेशी मालिक अधिकारियों ने दासों के पूरे समूह को अपने नाम दे दिए, कहीं पर पारिवारिक नाम मुख्य नाम बन गया कहीं मुख्य नाम पारिवारिक. पर कुछ नाम दुनिया भर में फ़ैली हुई जातिवाद समस्या के मुंह पर एक तमाचा थे,” जेम्स लाल मोहम्मद “जो तीन धर्मों को अपने कन्धों पर उठाये हुए हैं, एक जैसी वर्तनी का नाम “महाबली” हिंदू के लिए महाबली, मुसलमान के लिए महाब अली. पंडिता हिंदू का नाम– साहिबदीन और मुसलमान भाई का नाम– भगेलू और भोलई. आह चैन सा आ आता है.

हिंदी की कोविद स्तर की कक्षा में अपनी विरासत को बचाने की बात चली तो सूरीनाम के बैंक डीएसबी के सेवानिवृत आईटी प्रबंधक, संगीतकार, नगाड़े बाज, चौताल गायक, पुराने कुश्ती पहलवान और हिंदी के विद्यार्थी मनोरथ जी ने दो पंक्ति धमार (चैती, विस्वारा पछैया उलारा) “रघुवर जनक लली खेले अवधपुरी में फाग” की सुनाई फिर बोले, “मेरे बाप दादे भारत पर से आये हैं और हम उनका अंश हैं, ये जोन सम्बन्ध है वो अब नहीं टूटेगा क्योंकि मेरे बच्चे भी वही रास्ते रहेंगे जोन मेरे बेटे जने हैं वो तो और आगे हैं इसके बारे मैं बहुत सोचिला कि हमारा मन वही लगल है, मैं भारत की उस गली में ही मरना चाहता हूं हमलोग की रूह वहीं है, इन्द्रजाल पढ़कर वैद्य भारत की वैद्य आत्माओं को अपने पर बुलाकर इलाज करा करते थे और इस प्रेम की… इसकी कोई सीमा नहीं क्योंकि मैं अपने बाप दादों का अंश हूं वो भारत से थे, मैं क्या मेरे बेटे भी उसी रास्ते पर हैं उनके बच्चे तो और…”, यहां के पेड़ भी यहां के” मल्टी ऐथनिक कल्चर” का हस्ताक्षर हैं एक ही पेड़ पर दूसरी जाति के पौधे बड़े ठाठ से अपना भरा पूरा परिवार उगा सूरीनाम की धरती पर रह रहे बुश नीग्रो, क्रियोल, हिंदुस्तानियों, जावानीज़ चाईनीज़ और यूरोपियन आदि जातियों के समृद्ध अस्तित्व की गवाही देते हैं, हर परिवार जातियों का नहीं कई राष्ट्रों का संगम है, हिंदी की विद्यार्थी सिलवाना ने बताया उसके परिवार में इस वक्त जावनीज़, डच, लेबनीज़, हिन्दुस्तानी और चायनीज़ सब मौजूद हैं.

पाँच साल के ठेके के बाद सूरीनाम आये ३४००० गिरमिटिया मजदूरों में से ११००० भारत लौट गए और बचे हुए हिंदुस्तानियों ने अपने शेष रहे सम्मान की इमारत की नीव खोदनी जो शुरू की तो आज अपने लहू और स्वेद बिंदुओं के गारे से ईंट से ईंट चुनकर उस इमारत को बुलंदियों तक पहुंचा दिया है . मरियम बुरख पर खड़े हो कर मारे गए मजदूरों पर हुए कोड़ों के मार की कसक जहाँ झुरझुरी पैदा कर देती है वहीँ वासुदेव की तरह भारतीय संस्कृति व सम्मान को अपने सर पर रख न जाने कितनी जानलेवा प्रलय मचाती लहरों के बीच में से निकाल लाये हिंदुस्तानियों की संघर्ष गाथा से शरीर का रोम रोम थरथरा उठता है कभी गर्व से तो कभी दर्द से .

चलते चलते … हर भारतवंशी आप्रवासी की आँखों में भारत देश के नाम से जो चमक आती है तो मुझे अपने भारतवासी होने पर गर्व हो आता है।

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