स्वामी तिलक: आध्यात्मिक भारत के दूत

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स्वामी तिलक: आध्यात्मिक भारत के दूत।
डॉ. मधुसूदन

मनोमंथन:
जितना आज मैं स्वामी तिलक जी को समझ सकता हूँ, उतना भी, जब वे साक्षात मेरे जीवन में बार बार आये थे, तब समझ नहीं पाया था।
लगता है, मनुष्य अपने ही निकषों से घिर कर उसका बंदि बन जाता है।

क्या है, आप के, संत की पहचान के निकष ?

क्या आप सच्चे संत को पहचान सकते हैं?
आप के मत में, संत की पहचान क्या होनी चाहिए?
इस पर सोचकर आप अपने निकषों की सूची बना लें।
{आगे पढने के पहले रूक कर सूची बना लें।}
जो भी सूची आप बनाएंगे, उसे एक बार देख लीजिए।
वह सूची आप की स्वयं की ही सीमाओं से घिरी हुयी होगी।
प्रगति की दौड में अपने आप को सबसे आगे समझने वाले ही, कभी कभी (या बहुत बार) वास्तविक प्रगति में, सब के पीछे रह जाते हुए देखे हैं।
“आगे बढे! आगे बढे! ऐसे आगे बढे; कि, सब के पीछे रह गए।”

ऐहिक समृद्धियों का प्रदर्शन

स्वामी जी के सामने भी अपनी ऐहिक समृद्धियों का प्रदर्शन करनेवाले लोगों को देखा है। अपने ही निकषों को स्वामीजी पर आरोपित करनेवाले लोगों को भी देखा है; उनको भी अपने जैसा “अर्थ-और काम” के पीछे पडा हुआ मानकर।
अपने स्तर के ही समझकर उनके साथ, वाद विवाद करते भी देखा है।

जो संत मुद्रा को छूता तक  नहीं था, उसके सामने ऐहिक ऐश्वर्य के प्रदर्शन वा विवरण का क्या प्रयोजन?
स्वाद की दासता से भी वह संत मुक्त था। स्वामी जी को एक बार, (किसीने) केला दिया, तो, वे, केले को छिलके के साथ खा गए। मेरी जिह्वा पर शब्द आते आते रूक गये। मैं कहने जा रहा था; पर तब विचार आया, कि, क्या स्वामी जी को छिलके का पता नहीं है।

एक बार स्वामी जी २-३ दिनका प्रवास करते हुए, शिविर में पधारे थे। दुपहर दो-ढाई का समय होगा। उनका भोजन २-३ दिन से हुआ नहीं था। तो उनके लिए, थाली परोसकर लायी गयी। जब स्वामी जी ने जाना, कि, और स्वयंसेवक खा चुके है; उन्हें अकेले खाना होगा। तो थाली लौटा दी। बोले वे भी संध्याको खाएंगे।
“केवलाघो भवति केवलादी”-
ऋग्वेद (१०.११७.६)
अर्थात्
अकेले खानेवाला पाप खाता है।

मेरा मिलन जब संत से हुआ, तब शायद मुझे ऐसे प्रश्न थे ही नहीं।
पर आज जब उस अवसर पर विचारता हूँ तो कुछ विचार मस्तिष्क में मँडराने लगते हैं।
इस संसार में कुछ ऐसे संत बसते हैं; जो देह से इस संसार में बसते हैं, पर उनमें यह संसार बसता नहीं है। देखने में वे हम जैसे ही दिखते हैं। पर अंदर कोई और ही होता है।

एक तेज, तन ओढ कर जब आता है। दिखता हम जैसा ही है, तो मनुष्य ठगा जाता है।

वैसे स्वामीजी विश्वमानव थे, पर सच्चे अर्थ में मुक्त ही थे।
जब वे अपने गुरू को नमन के लिए हाथ जोडते, तो उनके गुरू स्वामी जी के मस्तक पर, आशीष का हाथ रखने के बदले सामने से नमस्कार करते। यह अनोखी रीति थी। अलौकिक थी ! शायद सारी गुरू-शिष्य परम्पराओं से अलग थी। यह दिखाता है; कि, स्वामीजी किस कक्षा के संत थे। क्या वे स्वयं अपने गुरू के समकक्ष थे ?

आपकी जड कौनसी है?

प्रश्न प्रत्येक मनुष्य के लिए यही है। आपकी, जड कौनसी है। दैहिक,  भौतिक, मानसिक, बौद्धिक वा आध्यात्मिक ?
आपकी मुद्रा कौनसी है। किस मुद्रा में आप उपलब्धियों की गिनती करेंगे?
कुत्ता रोटी के टुकडे के सिवा, किसी और पदार्थका मूल्य भी समझ नहीं सकता।हाँ आहार के अतिरिक्त निद्रा समझ सकता है; भय भी, और मैथुन भी। हाँ, और कुत्ता स्वामी के प्रति समर्पित भी होता है।
सारा जग उसके लिए “आहार निद्रा भय और मैथुन” में समाया होता है।
बताइए, आप का माप-दण्ड कौनसा है?

—इस संदर्भ में, हवाई के प्रोफेसर क्रॉफर्ड  स्वामी जी से परिचय और व्याख्यान एवं वार्तालाप इत्यादि होने के पश्चात कहते हैं, कि —
“स्वामी तिलक जैसे सच्चे संन्यासी भी इस संसार में हैं, इस सच्चाई से सांत्वना मिलती है। जिन के कारण मेरी डगमगाती श्रद्धा भी फिर से दृढ होती है।”
–आगे वे कहते हैं,
“और संसार प्यासा है, आध्यात्मिक ज्ञान के लिए। और प्यास बुझाने, आतुर संसार, भारत की ओर आशा से देख रहा है।”

सारे संसार में आध्यात्मिक भारत अनोखा है। इसी अनोखेपन की पहचान का  स्वामी तिलक जी को मॉस्को मे अनुभव हुआ था; जब, स्वामी तिलक  मॉस्को गये थे। उन्हीं के शब्दो में कहते हैं:
“जब मैं  प्रसिद्ध  लाल चौक (रेड स्क्वेयर) पहुंचा, उस दिन हजारों लोग लेनिन को आदरांजलि अर्पण करने इकठ्ठे हुए थे। जब उन्हों ने मुझे, गेरूए संन्यासी को, बिना पादत्राण देखा; तो वे कुछ क्षण लेनिन को भूल गए। और मुझे घेरकर खडे हो गए। सभी मेरे साथ अपनी छवि खिंचवाना चाहते थे; मैं नकार नहीं सकता था।”
“मेरे निकट आकर चुपकेसे कहते थे;”
 “हम जानते हैं; आप योगी हैं। हमने योग के विषय में बहुत पढा है, पर कभी आप जैसा योगी देखा नहीं।”  “बहुत ही  अदभुत अवसर था। तापमान शून्य से भी १० अंश नीचे था। वे बोल रहे थे,” “आप के शरीर पर ऊनी कपडे भी नहीं। कैसे संभव है यह? हमें भी बताओ।”
“मैं क्या कहूँ। मुझे भी पता नहीं। केवल मेरे गुरूदेव जानते हैं। उन्होंने ही मेरी जड हड्डियों में दुर्धर चेतन प्रवाह बहाया है।”

फलस्वरूप स्वामी जी को रूसी रेलगाडी में निःशुल्क प्रवास की छूट मिली थी।जिसने कभी मुद्रा ही छूई ना हो, उसके लिए यह छूट विशेष थी।
स्वामीजी कहते हैं—
“हर जगह प्रभु के समर्थ लम्बे हाथ पहुंच जाते हैं।जिस क्षण  हमें ईश्वर में पूर्ण श्रद्धा होती है, उसी क्षण हमारी सारी समस्याओं का अंत होना प्रारंभ हो जाता है।”

इसी संदर्भ में, स्वामी जी ने कहा था;
“जैसे ही हम आध्यात्मिक प्रकाश की बात ही करते हैं, हलका अनुभव करने लगते हैं।”
“पर हमें भगवान की शरण में जाने से रोकता है, हमारा अहंकार।”
“और शरण गए बिना भक्ति नहीं। और भक्ति के बिना आप ईश्वरसे जुड नहीं सकते।”

–दूरभाष पर तार जुडे बिना बात भी नहीं कर सकते; ये तो मान लेते हैं। पर भगवान को बना बनाया इ (मैल)पत्र, बिना पढे ही, अग्रेषित कर देते हैं।
भगवान से जुडने का मार्ग भी अनिवार्य शरण ही है।

स्वामीजी का सीधा, सरल संदेश एवं उनकी सीधी-सादी जीवनचर्या, लोगों में गहरी रूचि जगाकर उनकी  उत्कटता बढा देती थी। इसी का प्रभाव मानना पडेगा, कि, ग्वाटेमाला के राष्ट्रपति भवन से भी स्वामीजी को, आमंत्रित किया गया था।
तो मित्रों हमारे स्वामीजी जो कभी नदी किनारे खुले में, सोए थे; मेक्सिको में मार्गों के किनारे सोये थे। कभी जंगल में भी सोए थे, और कभी अकिंचनों का  आतिथ्य भी ले चुके थे; उन्हें एक देश के राष्ट्रपति भवन का बुलावा आया था।
ये गेरुए वस्त्र का सम्मान आध्यात्मिक भारत का सम्मान था।
स्वामी जी तो हर परिस्थिति में समदर्शी और स्थितप्रज्ञ रहा करते थे। उनके लिए, निम्न मीरा के बोल, अपने अर्थ को प्रत्यक्ष  करते है।
कोई दिन गाडी, न कोई दिन बंगला, कोई दिन जंगल बसना जी !
कोई दिन ढोलिया, कोई दिन तलाई, कोई दिन भुईं पर लेटना जी
करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी, सदा मगन मैं रहना जी… !

एक अलौकिक ज्ञानी
मेक्सिको में कार्यक्रम स्पेनी भाषामे हुए थे। ब्राज़िल में पुर्तगाली में।स्वामी जी दक्षिण अमरिका में सभी देशोमें गये थे। और वहाँपर स्थानिक भाषामें ही बोलते थे। रूस में किस भाषा में बोले थे? पता नहीं स्वामी जी ने कितनी भाषाओं पर प्रभुत्व पाया था?
जब उनकी १० वीं पुण्यतिथि पर अनेक देशों से अतिथि आये, और वे न अंग्रेज़ी जानते थे, न हिंदी जानते थे।

मैं ने जब कविता सुनायी, तो कुछ तो अंग्रेज़ी में अनुवाद करना हुआ। और बाद में अन्य भाषाओं में समझाया गया तब जाना कि, इतनी भाषाओं को जोडनेवाला यह ज्ञानी कभी अपने मुखसे हमें कह कर अपनी उपलब्धि बताकर नहीं गया, कि, इतनी भाषाओं में उन्हों ने जानकारी पायी थी?

अनेक बिकाऊ स्वामिय़ों की होड में हमें ऐसे मणीरत्‍न भी मिल जाते हैं। भारत का आध्यात्मिक प्रभाव और गौरव बढाने में इन्हीं लोगों ने जो योगदान दिया है; उस गौरव  की छाया में फिर अहरा गहरा भी आदर पा लेता है; तो वो स्वयं को ही, “परमहंस” समझने लगता है।
यह अंधेर नगरी दुनिया है।
तम का सारा राज, तम ही है,
षड् रिपुओं से, जकडे कहते।
ऊंचे स्वर से, ज्ञानी हम ही है।

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डॉ. मधुसूदन
मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।

1 COMMENT

  1. एक तेज , तन ओढ़ कर जब आता है । दिखता हम जैसा ही है , तो मनुष्य ठगा जाता है । ”
    यह तो सत्य है की हमे सत पुरुषो का सानिध्य बड़े भाग्य से मिलता है और जब मिलता है तो हम ठगे से रह जाते है । दैहिक, दैविक और भौतिकता से ऊपर यदि हमारे अंदर आध्यात्मिकता के बीज है तो हमे दिव्य आत्माओ के सानिध्य का एहसास होता है ।
    संतो का साथऔर सत्संग प्राप्त होना , ईश्वर की भक्ति का सर्व प्रथम सौपान है।
    लेख के माध्यम से स्वामी तिलक की दिव्यता का एहसास होता है । अति सुन्दर लेख ।

  2. “एक तेज , तन ओढ़ कर जब आता है । दिखता हम जैसा ही है , तो मनुष्य ठगा जाता है । ”
    यह तो सत्य है की हमे सत पुरुषो का सानिध्य बड़े भाग्य से मिलता है और जब मिलता है तो हम ठगे से रह जाते है । दैहिक, दैविक और भौतिकता से ऊपर यदि हमारे अंदर आध्यात्मिकता के बीज है तो हमे दिव्य आत्माओ के सानिध्य का एहसास होता है ।
    संतो का साथऔर सत्संग प्राप्त होना , ईश्वर की भक्ति का सर्व प्रथम सौपान है।
    लेख के माध्यम से स्वामी तिलक की दिव्यता का एहसास होता है । अति सुन्दर लेख ।

  3. स्वामीजी की बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाने वाला बहुत ही सटीक लेख ।

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