स्वामी विवेकानन्द- राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत

-गुंजेश गौतम झा- swami_vivekanand

स्वामी विवेकानन्द भारतीय पुनर्जागरण के महान संत, अध्ययनशील  संन्यासी, गंभीर विचारक, धर्म तत्व ज्ञाता एवं एक महान ओजस्वी वक्ता और महान विभूति थे। वे 19वीं शताब्दी के प्राचीन भारतीय ऋषि-महर्षियों की परंपरा के एक ऐसे क्रांतिकारी संन्यासी थे, जिन्होंने अपने उपदेशों और क्रांतिकारी विचारों के माध्यम से हिन्दुओं में राष्ट्रीय चेतना स्वाभिमान की भावना उत्पन्न कर उन्हें भारत राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा के लिए सतत् संघर्ष करते रहने की प्रेरणा दी। स्वामी जी के तेजस्वी व्यक्तित्त्व और ओजस्वी वाणी में ऐसा विलक्षण आकर्षण था कि साधारण व्यक्ति से लेकर अग्रणी बुद्धिजीवी तक उनके प्रति श्रद्धावनत हो उठते थे। अल्प समय में ही स्वामी जी ने हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति की विजय पताका सात समुद्र पार के अनेक देशों में फहराकर अपने भारत राष्ट्र को गौरवान्वित करने में सफलता प्राप्त की थी। 12 जनवरी, 1863 को कोलकाता में सुविख्यात विधिवेत्ता विश्वनाथ दत्त तथा भुवनेश्वरी देवी के पुत्र के रूप में जन्में, ‘नरेन्द्र’ का प्रादुर्भाव ही अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा तेजोमय व्यक्तित्व के माध्यम से विदेशी दासता के बंधनों में जकड़े हुए भारत राष्ट्र में स्वाभिमान की भावना का संचार करने व संसार भर में सनातन धर्म के आध्यात्मिक मूल्यों का संदेश पहुंचाने के लिए हुआ था । अपने अल्पजीवन काल (1863-1902) केवल 39 वर्ष की आयु में इस विलक्षण ओजस्वी संन्यासी ने जिस प्रकार संसारव्यापी ख्याति प्राप्त की थी, वह अन्य किसी को प्राप्त नहीं हुई। प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक रोमां रोलां ने उनके विषय में ठीक ही लिखा था- ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना असंभव है। वे जहाँ भी पहुंचे अद्वितीय रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का, मार्गदर्शक का दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।’’

नरेन्द्रनाथ दत्त से स्वामी विवेकानन्द बनने तक की उनकी यात्रा न केवल मानवीय दुर्बलताओं पर विजय है, बल्कि अनंत आस्था के प्रवाह में अवगाहन है, राष्ट्र-धर्म-संस्कृति के उन्नयन का मंत्र भी है। निराशा, आत्मबोधहीनता और अज्ञान से निकलकर किस तरह जिजीविषा के साथ निर्भय होकर अमरत्व की ओर बढ़े, हिन्दू चिंतन विशेषकर उपनिषदों के आह्वान को बोधगम्य बनाकर जब उन्होंने प्रस्तुत किया, तो न केवल ईसाइयत की श्रेष्ठता के अहंकार पर चढ़कर आई साम्राज्यवादी निरंकुशता का दंभ चूर-चूर हो गया, बल्कि यूरोप और अमरीकावासी तो उन्मत्त होकर उनके पीछे दौड़ने लगे मानों उन्हें कोई त्राता मिल गया हो। उनके विदेश प्रवास काल में घटित ऐसे अनेक प्रसंग और वहाँ के समाचार पत्रों में प्रकाशित स्वामी जी के चुम्बकीय आकर्षण की यशोगाथा वहाँ उनका जादू छा जाने के साक्षी हैं। प्रेम, सेवा और बंधुत्व के मार्ग पर चलकर समस्त मानवता के लिए स्वार्थ-भेद-संघर्ष से परे सुखमय, कल्याणकारी व शांतिपूर्ण जीवन का उनका संदेश पाश्चात्य भोगवादी और विभेदकारी सभ्यता से तप्त हृदयों के लिए मानों अमृतवर्षा जैसा था। उनके सम्मोहन में बंधा समस्त यूरोप व अमरीका धन्य-धन्य कह उठा।

जिस समय स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव हुआ, उस समय देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। देश के उस पराधीनता काल में भी किसी भी तरह की आत्महीनता की बजाय भारत को, हिन्दू चिंतन को विश्व में प्रतिष्ठा दिलाकर, भारत को पराधीन कर विजय के दंभ में जी रही यूरोपीय जातियों व देशों को फटकार लगाकर एक दिग्विजयी योद्धा की भांति स्वामी विवेकानन्द भारत लौटे तो देश का जनमानस गर्वोन्नत होकर उनके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाकर खड़ा था, लेकिन स्वामी जी मद्रास के समुद्रतट पर जहाज से उतर कर मातृभूमि की रज में लोट-पोट हो रहे थे, आनंद अश्रुओं से विगलित अवस्था में वे बेसुध से हो गए, मानों वर्षों से माँ की गोद से बिछुड़ा कोई अबोध बालक माँ के अंक में आकर विश्रांति पा गया हो। मातृभूमि के स्पर्श से उनके आनंद का तो पारावार ही नहीं था, वर्षों भोगवादी पश्चिम की भूमि पर विचरण कर लौटे स्वामी विवेकानन्द मानो भारत की रज के स्पर्श से चिरंतन शुचिता के संस्कार में अवगाहन कर रहे थे। ऐसी भी उनकी भारत भक्ति, मातृभूमि के प्रति अखंड साधना और हिन्दू चिंतन, भारतीय जीवनमूल्यों-संस्कारों के प्रति अडिग विश्वास व अगाध आस्था।

उन्होंने भारत भ्रमण कर निरंतर देशवासियों को जगाया, अपने समाज जीवन की कुरीतियों, मानसिक जड़ता और अंधविश्वासों के कुंहासे को चीरकर अपने स्वत्व को पहचानने व अपने पूर्वजों की थाती को संभालने का आह्वान किया। भारत माता को साक्षात देवी मानकर उसके उत्कर्ष के लिए उसकी सेवा में सर्वस्व न्योछावर कर देने की भावना, दरिद्र नारायण की सेवा, स्त्री चेतना का जागरण, शिक्षा का प्रसार, राष्ट्रोन्नयन में युवाओं की भूमिका, उनका चरित्र निर्माण, उनका बलशाली बनना, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का बोध, भारत की आध्यात्मिक चेतना का प्रवाह, जाति, पंथ भेद से ऊपर उठकर सामाजिक समरसता व लोक कल्याण के द्वारा भारत का उत्थान, राष्ट्रीय एकात्मभाव का जागरण, हिन्दू संस्कृति का गौरवबोध, झोपडि़यों में से भारत उदय का आर्थिक चिंतन, ऐसी बहुआयामी सार्वकालिक विचार दृष्टि स्वामी जी ने हमें दी जो हमारे वैयक्तिक, सामाजिक व राष्ट्रजीवन के सर्वतोमुखी उत्कर्ष की भावभूमि है।

रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में लिखा है कि ‘‘अभिनव भारत को जो कुछ कहना था वह विवेकानन्द के मुख से उद्गीर्ण हुआ। अभिनव भारत को जिस दिशा की ओर जाना था, उसका स्पष्ट संकेत विवेकानन्द ने दिया। विवेकानन्द वह सेतु हैं, जिस पर प्राचीन और नवीन भारत परस्पर आलिंगन करते हैं। विवेकानन्द वह समुद्र हैं, जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतराष्ट्रीयता तथा उपनिषद् और विज्ञान, सबके सब समाहित होते हैं।’’

रवीन्द्रनाथ ने कहा है, यदि काई भारत को समझना चाहता है, तो उसे विवेकानन्द को पढ़ना चाहिए।’’ महर्षि अरविंद का वचन है कि पश्चिमी जगत में विवेकानन्द को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जगा है, वरन वह विश्व विजय करके दम लेगा।’’

लेकिन दुर्भाग्य से आज सत्तास्वार्थों को कमजोर बना रही राजनीति पर अवलंबित राष्ट्रीय नेतृत्व भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी जैसी गंभीर समस्याओं की न केवल अनदेखी कर रहा है, बल्कि उनको बढ़ाने में भी उसकी अदूरदर्शी व गलत नीतियाँ जिम्मेदार हैं। लगातार बिगड़ती कानून-व्यवस्था और नागरिक जीवन व उसके सम्मान के प्रति लापरवाही के कारण बढ़ते नृशंस अपराध, माओवादी नक्सलवाद व जिहादी आतंकवाद जैसी क्रूर हिंसक गतिविधियां आंतरिक सुरक्षा के लिए तो गंभीर खतरा है ही, देश के विघटन का खतरा भी उपस्थित कर रही है। उधर सरकार की स्वाभिमानशून्यता व घुटना टेक नीति के कारण पाकिस्तान, चीन लगातार भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा व एकता-अखंडता के लिए गंभीर चुनौती खड़ी कर रहे हैं। सरकार पोषित सेकुलर सोच के कारण शिक्षा में नैतिकता, राष्ट्रभक्ति, सामाजिकता जैसे उदात्त भाव तिरोहित हो रहे हैं, हिन्दुत्व को न केवल सांप्रदायिक बताया जाता है, बल्कि वोट-बैंक की राजनीति के लिए उसे कमजोर करने व लांछित करने के षडयंत्र भी लगातार जारी हैं। आधुनिक सोच के नाम पर औपनिवेशिक व पाश्चात्य मानसिकता हावी है, जिसके आगे भारतीय जीवनमूल्यों, संस्कारों व चरित्र निर्माण की प्रक्रिया को पोंगापंथ ठहरा दिया जाता है। ऐसे में जब भारत, भारत ही नहीं रहेगा तो वह विश्व के सामने क्या आदर्श रखेगा?

एक बार फिर विवेकानन्द की सिंह-गर्जना भारतीयता से विमुख बंद दिमागों की खिड़की खोले, उनके अंतःकरण में छाए वैचारिक विभ्रम के कुंहासे को छांट दे, भारत भक्ति से ओत-प्रोत हृदयों में आशा व विश्वास का संचार करे और भारत फिर अंगड़ाई लेकर इंडियाको मात देता हुआ उठ खड़ा हो। इसके लिए आवश्यकता है कि स्वामी विवेकानन्द के विचार केवल बौद्धिक चिंतन तक ही न रहें, बल्कि व्यावहारिक धरातल पर भी साकार हों और देश का चित्र बदले, यह आवश्यक है। भारत का जो चित्र स्वामी जी की अंतश्चेतना में उभरता था, वह केवल सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली भारत का नहीं था, बल्कि एक संपन्न, सशक्त, स्वाभिमानी राष्ट्र के रूप में भारत विश्व का मार्गदर्शन करे, अपने गौरव बोध के साथ समूची मानव जाति को सुख-शांति व कल्याण का मार्ग दिखाए, भारत माता फिर से विश्वगुरू के सिंहासन पर आरूढ़ हो विश्व पूज्य बने। यह संकल्प तभी पूर्ण होगा जब हम स्वामी विवेकानन्द के विचार को मनसा-वाचा-कर्मणाजिएंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here