स्वभाषा विकास और हिन्दी साहित्य सम्मेलन

राजीव मिश्र

हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग भारत में एकमात्र हिन्दी की संस्था है, जिससे समस्त हिंदी जगत की कामनाओं को पूर्ण करने का प्रयास किया। इसका जन्म खोई हुई आत्मनिष्ठा को वापस करने के लिए था। देश के विषाक्त वातावरण को नष्ट करके राष्ट्र की देशी मनः स्थिति, भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं में अटूट आस्था पैदा करके राष्ट्रभाषा हिंदी के समर्थन और संवर्ध्दन में विश्वास पैदा करना ही हिंदी साहित्य सम्मेलन का मापक परिवेश था। उसके उद्देश्यों में यह स्पष्ट घोषणा है कि सम्मेलन का उद्देश्य हिंदी साहित्य के सब अंगों की उन्नति करना है। इन सभी अंगों में भारत की स्वदेशी आत्मा, भारतीय संस्कृति, भावात्मक एकता और राष्ट्रीय एकता प्रमुख है। राष्ट्रभाषा हिंदी को राष्ट्रीय पद प्राप्त कराने के संघर्ष में सम्मेलन ने बराबर यह परिचय दिया है कि वह देश के स्वदेशी मन, भारतीय संस्कार और देश की विविधता में समग्रता के बहुआयामी पक्षों के संवर्ध्दन में गतिशील रहा है।

सम्मेलन के इस संकल्प की अभिव्यक्ति उसके अधिवेशनों में आयोजित गोष्ठियों के विवरण में मिलती है। इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाज शास्त्र, विज्ञान परिषद्, साहित्य परिषद् यहां तक कि आयुर्वेद परिषदों और ज्योतिष शास्त्र पर भी आयोजित गोष्ठियों के विवरण पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी के राष्ट्रीय महत्ता की स्थापना के साथ-साथ उसके बहुमुखी स्वरूप को विकसित करने का कार्य सम्मेलन ने अनवरत रूप से किया है। वस्तुतः साहित्य का निर्माण बिना इन समान संस्कार के संभव भी नहीं हो पाता।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना सन् 1910 ई. में हुई थी। महामना पं. मदन मोहन मालवीय के आशीर्वाद और राजर्षि पुरुषोतम दास टंडन की अपूर्व कार्य कुशलता ओर हिंदी के प्रति उनकी अगाध श्रध्दा एवं निष्ठा का सुपरिणाम यह हुआ कि सम्मेलन की लोकप्रियता मिली। उसे अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त हुआ। उसके वार्षिक अधिवेशन हिंदी प्रदेशों के अलावा हिंदीतर प्रदेशों में भी होते रहे और उसके अध्यक्ष पद को हिंदी के विद्वानों, साहित्यकारों ने तो सुशोभित किया हो, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, माधव राव सप्रे, अमृतलाल चक्रवर्ती, बाबूराव विष्णु पराड़कर, कन्हैयालाल मणिक लाल मुंशी जैसे हिंदीतर भाषा-भाषी विद्वानों ने अध्यक्ष पद ग्रहण कर हिंदी साहित्य सम्मेलन को गौरव प्रदान किया।

हिंदी साहित्य सम्मेलन का इतिहास, हिंदी भाषा एवं देवनागरी लिपि तथा अंकों के प्रचार-प्रसार तथा भारत पर आरोपित विदेशी भाषाओं एवं लिपियों के विरूध्द अपने भाषागत तथा लिपिगत स्वत्व, राष्ट्रीय अधिकार एवं राजकीय व्यवहार के लिए किए गए आत्म संघर्ष का इतिहास है। अपने स्वत्व के लिए इस प्रकार का संघर्ष अन्य भारतीय भाषाओं पर पड़ा और यदि करना ही पड़ा होगा। तो वह नाम मात्र का रहा होगा। स्पष्ट है कि हिंदी का यह संघर्ष भारतीय समाज का वैसा ही राष्ट्रीय एवं जातीय संघर्ष रहा है जैसा कि राजनीतिक स्वाधीनता का संघर्ष था।

अंग्रेजी शासन के समय में राष्ट्रीयता की एक लहर थी। उस समय लोगों के मन में विदेशी राज्य को हटाने की ललक थी। इस कारण समस्त भारतवासी एक राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर विदेशी संस्कृति और विदेशी भाषा को हटाने और उसके स्थान पर अपनी संस्कृति और भाषा को स्थापित करने में संलग्न हुए। स्वतंत्रता मिलने के बाद कोई ऐसी राष्ट्रीय भावना का जो हमें अपनी संस्कृति और भाषा की ओर प्रेरित कर सके, अभाव दिखाई देता है। इसमें छोटे-छोटे संकुचित जातिगत, धर्मगत, प्रदेशगत और क्षेत्रगत स्वार्थ घुस गए हैं और राष्ट्रीय एकता की भावना पीछे धकेल दी गई है।

ऐसे संकुचित स्वार्थ से घिरे लोगों की चेष्टा यही है कि हिंदी राष्ट्रभाषा न हो सके, अंग्रेजी ही बनी रहे। संविधान में हिंदी में राष्ट्रभाषा के रूप में विभिन्न भाषा-भाषियों की स्वीकृति और सहमति से ही मान्यता मिली है। राष्ट्र के जीवन में हिंदी को उचित स्थान भी सभी प्रदेशों की सद्भावना से ही मिल सकता है। इसके लिए सम्मेलन को, सभी प्रदेशों को अपना कार्य क्षेत्र बना कर उनकी सद्भावना प्राप्त करनी चाहिए तभी हिंदी का जो विरोध आज हो रहा है – वह समाप्त होगा और हिंदी अपना उचित स्थान प्राप्त कर सकेगी।

2 COMMENTS

  1. हमे कोई आमंत्रण प्राप्त नही हुआ. हुआ होता तो दौडते चले आते.

  2. इतनी अच्छी एवं ज्ञानवर्द्धक जानकारी के लिए धन्यवाद !

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