स्वाइन फ्लू

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अजीब सी दहशत है हर चेहरे में, फिज़ाओं में घुली हवा एक सिहरन पैदा कर रही है। कौन जाने किस सांस के साथ H1N1 वाइरस हमारे फेफड़े में पैवस्त हो जाये।
हर ओर शोर है, स्वाइन फ्लू से भयाक्रांत चेहरे हैं। नकाबों से ढकी करुण आंखे हैं। आखिर ये कौन सा वाइरस है? अपने देश का है या दवाई कंपनियों का बताया हुआ वाइरस है? जिसके लिए हज़ार रुपये का टैमीफ्लू इंजेक्शन और सात हज़ार की जाँचें करवानी हैं।

डाक्टरों से लेकर लैबोरेटरी केमिस्टों के खिले चेहरे और मेडिकल रेप्रेजेंटटिवों से लेकर दवा कंपनी मालिकों के चेहरों पर गहरी मुस्कान या फिर मीडिया के स्तंभित पत्रकारों के अतिउत्साहित वार्तालाप किस संवेदनहीनता का परिचय दे रहे हैं।
सवा अरब की आबादी वाले भारत को महामारी का डर दिखा कर व्यापार साधने वाले विदेशी तत्व शायद ही समझ पाएँ की भारत के इतिहास में कभी कोई महामारी क्यों नहीं पनप पायीं?? टी॰बी॰, प्लेग, मलेरिया, कालरा, चेचक, एड्स, पोलियो आदि भयावह महामारियों का इतिहास स्पष्ट लिखता है कि इनके कारण कई सभ्यताओं ने अपना अस्तित्व खो दिया लेकिन भारत के पारंपरिक विज्ञान के सामने ऐसी असंख्य महामारियों ने आकर स्वयं दम तोड़ दिया।

भारत के पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान ने कभी भी जीवाणुओं तथा विषाणुओं को अपना दुश्मन समझा ही नहीं। प्रकृति से ली गईं जड़ी बूटियों, मसालों, पत्तों, छालों, जड़ों ने हमें इन विषाणुओं के मध्य रहकर हमारी प्रतिरोधक क्षमताओं को एकल दिशा में जागृत करके प्राकृतिक वातावरण में सबसे सौम्य जलवायु के अनुकूल बनाया। ऐसी अनूठी चिकित्सा व्यवस्था विश्व की किसी भी सभ्यता के इतिहास में कहीं नहीं मिली। दादी के बनाए हुये अदरख और शहद के मिश्रण ने दमा पैदा करने वाले कफ को बाहर निकाला, नानी के तुलसी के पत्ते ने वाइरस जनित रोगों से हमारी रक्षा की तो माँ के हाथों की स्पर्श चिकित्सा से हड्डियों को मजबूती मिली जिन्होने सौ साल की उम्र पूरी करने की ताकत पायी……….

 
कितना अनूठा विज्ञान है इस अदम्य और चिरकालिक सभ्यता के पास जिसको ये चंद मूर्ख पाश्चात्य दवा वैज्ञानिक हेय दृष्टि से देखते हैं, उपहास करते हैं…. कल हेपटाइटिस था, फिर बर्ड फ्लू आया, अब स्वाइन फ्लू आ गया है, आने वाले कल में डेंगू और मलेरिया की नयी नयी किस्में इस नए चिकित्सा विज्ञान को चुनौती देने के लिए कमर कस रही हैं। साल दर साल वाइरस, बैक्टेरिया, प्रोटोज़ोआ, फंगस आदि नए नए डी॰एन॰ए॰ संरचना के साथ अपने अस्तित्व को जीवित रखने की भयंकर कोशिश कर रहे हैं…… कभी सोचा है – क्या होगा इसका अंजाम??????

 
अनाज को खाने वाले चूहों की संख्या जब बढ़ जाती है तो बिल्ली पालते हैं, बिल्लियों की संख्या बढ्ने पर कुत्ता लाते हैं लेकिन कुत्तों की संख्या अधिक होने पर रेबीज के डर से फिर उन्हे मारना पड़ता है। ऐसे ही सृष्टि में एक एक जीवन और मृत्यु को नियंत्रित करने वाली कड़ी सदैव गतिमान रहती है जिसमे अस्तित्व के संघर्ष और जीवन की परिभाषा छिपी होती है।

यह नया चिकित्सा विज्ञान नहीं समझ पा रहा।

एक साधारण से फोड़े को सेप्ट्रान की गोली के जरिये दबा कर कैंसर बनाने वाला विज्ञान भला कब तक उस सभ्यता को जीवित रख पाएगा, जिसके पूर्वज उस फोड़े की गांठ को आक के पत्तों से निकाला करते थे……….

 
स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू और इंफ्लुएंज़ा के विविध प्रकार भारतीयों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते यदि हम अपनी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का अनुसरण करें तो। हमारे ग्रंथ बताते हैं कि किसी प्रकार के रोग को उत्पन्न करने के लिए तीन कारक – वात, पित्त और कफ होते हैं। जब इनके मध्य ऋतु परिवर्तन के कारण असंतुलन होता है तो शरीर व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। चूंकि एक विशाल जनसंख्या और उसके द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण अपनी विशालतम स्थिति तक पहुँच चुका है तो इनसे ग्रस्त जीवों की संख्या भी अधिक प्रतीत होती है. लेकिन भारत का जैव मण्डल कभी भी इसके वातावरण को जीवन विरोधी नहीं होने देता और जीवन अनुकूलन व्यवस्था को सदैव अक्षुण्ण रखता है। भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिक साफ साफ लिख गए हैं कि मौसमी बुखार के आगमन का उल्लास मानना चाहिए क्योंकि यह शरीर को आने वाले मौसम के आघात के प्रति प्रतिरोधक क्षमता दे रहा है. इसी प्रकार जुकाम, पेचीस, उल्टी, फोड़े-फुंसियों के छोटे संसकरणों का चिकित्सा विज्ञान में अति महत्वपूर्ण स्थान था।

नयी चिकित्सा प्रणाली, बीमार घोड़ों और बंदरों के शरीर में एंटीबाडीज़ बना कर मानव शरीर में प्रविष्ट कराती है रोग निदान के लिए। लेकिन शरीर किसी भी बाहरी तत्व को अपने भीतर अनिच्छा से ही प्रवेश करने देता है। जबकि इन एंटीबाडीज़ को शरीर खुद ही तैयार कर रहा होता है जो हमारी अस्थियों के संधि स्थल में गांठों के रूप मे प्रकट होते हैं। अब इन भीतरी और बाह्य एंटीबाडीज़ के मध्य भी शरीर के भीतर लड़ाई होती है शरीर इनको धकेलना चाहता है लेकिन निरंतर दवा की खुराक को शरीर में प्रवेश करा कर हम इसकी प्रतिरोधक क्षमता को खत्म कर देते हैं जिसका दीर्घकालिक परिणाम स्वयं के लिए घातक साबित होता है।

भारतीय ग्रंथो में सबसे प्रमुखता आंवले को दी गयी है, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करने के लिए. किसी भी प्रकार से आंवले को शरीर में समाहित करने से pH संतुलित रहता है और रसायनों के अनुपात को जरूरत के मुताबिक नियंत्रित करता है।

 
गूढ विज्ञान निरंतर कर्म कर रहा है स्वयं मानव के भीतर जो अपनी हर क्रिया में जीवन अनुकूलन का सिद्धान्त समेटे है।

कभी ध्यान से देखना जब किसी मनुष्य को चोट लगती है या बीमार पड़ता है तब वह गोल अर्थात सिकुड़ कर लेट जाता है, गहरी व लंबी साँसे लेने लगता है। इससे आशय ये है कि किसी भी हालत में शरीर सबसे पहले हृदय की रक्षा करना चाहता है यानि प्राण की। यदि यह प्राण ऊर्जा सुरक्षित रही तो, जैसा की शरीर को मुड़कर लेटने का आदेश देकर मस्तिष्क अब और भी बचाव के उपायों को करने के लिए इंद्रियों को तत्पर कर सकता है।

 
बहुत गहनता है शरीर के भीतर, जिसको सिर्फ भारतीय चिंतन ही पहचान पाया है। भारतीय संस्कृति के असंख्य शताब्दियों के सतत शोधों के कारण आज विश्व में मौजूद सभी चिकित्सा पद्धतियों का जनक है।

चीन की एक्यूप्रेशर का प्राचीनता का भारत की स्पर्श या मालिश की चिकित्सा में है; विप्श्यना के वैभव का अंदाजा बताने को पक्षाघात को ठीक करने में उँगलियों के पोरों से निकलने वाली ऊर्जा, ग्रन्थों में अपना स्थान लिए है; होमियोपैथी की शुरुआत धन्वन्तरी के सत्व शोधन के साथ प्राण ऊर्जा के संतुलन में स्थित है, शल्य चिकित्सा से लेकर मानसिक व्याधियों को दूर करने के तांत्रिक अनुष्ठानों तक से भारतीय पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान की विशाल क्षमता का प्रदर्शन होता है।

 
साँप का जहर उतारने के लिए प्रेमचन्द्र की कहानी में पात्र पर घंटों ठंडे पानी के घड़े उड़ेले जाते हैं और उसे सोने नहीं दिया जाता। बड़ा सरल वैज्ञानिक सिद्धान्त है की अवचेतन अवस्था में शरीर की अन्य क्रियाओं के सुप्तावस्था में जाते ही जहर शरीर के अन्य हिस्सों में जाने की बजाय मस्तिष्क में इकट्ठा होकर पूरी तरह गिरफ्त में ले लेगा। मस्तिष्क की क्रियाओं को नियंत्रित करने वाली प्रणाली में पक्षाघात होने से एक बार सोया मानव फिर जाग नहीं पाएगा।

न केवल साँप वरन किसी भी प्रकार के जहर को निष्क्रिय करने की हमारे पूर्वजों की अचूक तकनीकी मूर्ख तात्रिकों के फैलाये अंधविश्वास की भेंट चढ़ गयी।

 
गाँव की बूढ़ी औरतों के द्वारा धुले पोंछे चौके में नहाने के पश्चात ही जाने का कट्टर प्रण भारत की अव्वल दर्जे की हाईजीन चिंता तथा व्याधिमुक्त जीवन के प्रति संवेदनशीलता का प्रमाण है।

आयुर्वेद के मूल सिद्धान्त कि जैसा भोजन शरीर में पहुंचता है उसी के फलस्वरूप वैसा बर्ताव शरीर करने लगता है।

इसलिए पारंपरिक चिकित्सा विज्ञान में पथ्य व अपथ्य भोजन का उल्लेख किसी भी बीमारी के निदान से पहले मिलता है। सामुद्रिक शास्त्र में वर्णित शरीर की स्थितियों की जानकारी, माथे के वलय, हथेलियों, पैरों, आँखों, धमनियों के परीक्षण के आधार पर व्यक्ति की मूल व्याधि का इलाज, इस सबसे प्राचीन सभ्यता का अदृश्य आधार थी। विडम्बना ही है कि X-Ray, CT स्कैन, MRI, अल्ट्रासाउंड, रक्त-मल-मूत्र की जाचें न किए जाने के बावजूद चिकित्सा के अतुलनीय कीर्तिमान स्थापित हुये।

ऋतु परिवर्तन, वातावरण के अलावा जीव और निर्जीव पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है यही वजह है कि शीत रक्त समूह वाले जीव एक लंबी नींद के बाद जागने लगते हैं, दीर्घकालिक वृक्षों के पत्ते पीले पड़ कर झड़ने लगते हैं। आने वाली गर्मी का सामना करने के लिए हरे – चमकदार नए पत्तों का स्वागत करते हैं। जबकि छोटे अल्पायु पौधे इस दौरान अपने यौवन की चरमता पर पहुँच रहे होते हैं।

फरवरी-मार्च के दौरान दीर्घायु जीवों की स्थिति असहज होती है, इस काल में शरीर रोग प्रतिरोधकों की क्षमताओं का परीक्षण करता है और जहां भी ये कमी देखता है उसकी भरपाई के लिए बाह्य चिन्ह प्रकट करता है। दो मुख्य ऋतुओं गर्मी व सर्दी के मध्य का समय अल्पायु छोटे जीवाणुओं व पौधों का जीवन काल होता है जबकि दीर्घायु जीवों के लिए कष्टकर समय।

 
अभी फ्लू वाइरस के विविध संस्करणों का प्रभाव देख रहे हैं, इसके बाद 25° से 40° सें॰ का तापमान परजीवों अर्थात पैरासाइटों, प्रोटोज़ोआ के लिए मुफीद हो जाएगा जिससे फेल्सिपेरम मलेरिया, डेंगू, मेनिंजाइटिस, परागज ज्वर आदि का काल होगा। इससे अधिक तापमान आने पर शरीर से लवणों की कमी, डिहाइड्रेशन, जीवाणु जनित व्याधि, फूड प्वायजनिंग, हैजा आदि की प्रचुरता होगी। गर्मी में वाष्पीकरण के फलस्वरूप होने वाली वर्षा ऋतु कवकों और मध्य सूक्ष्म जीवों को जीवित कर देगी जिससे पेट संबन्धित रोग टाइफाइड, पीलिया आदि ग्रास करेंगी।

 
नवीन चिकित्सा इन सभी बीमारियों से लड़कर इनको जन्म देने वाले जीवों को मार कर शरीर को जीवित रखने की कला का प्रदर्शन करती है। उसका एक ही सिद्धान्त है दवाइयों के निर्धारित डोज़ द्वारा विषाणुओं – जीवाणुओं – कवकों को मार दो लेकिन इस पद्धति का परिणाम ये होता है की ये अल्पायु जीव अगले जीवन काल में इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करके सामने आ जाते हैं और उसी बीमारी का नया घातक रूप महामारी के तौर पर प्राण लेने लगता है।

लेकिन अपनी चिर जीवित सभ्यता के मूल सिद्धान्त की पड़ताल में एक ही सूत्र सामने आता है की हम किसी भी जीव को मारकर जीवित नहीं रह सकते हैं बल्कि उनके साथ सहअस्तित्व लिए खुद को सुरक्षित रखने के सतत आविष्कारों का सहारा लेना होगा।

फेफड़ों का कैंसर और अमाशय में अल्सर पैदा करने वाली आल आउट या हिट के धुएं से मलेरिया पैदा करने मच्छरों को मारकर डेंगू मच्छरों को जन्म देने से बेहतर नीम की सूखी पत्तीयों का धुआँ और मच्छरदानी होती थी। नालियों और ठहरे हुये पानी में जब तक हमारे घरों का साबुन, डिटाल और हारपिक नहीं पहुँचा था तब तक मच्छरों को नियंत्रित रखने वाली मछलियाँ हमारा अस्तित्व संभाले रहती थीं।

 
और इन परिस्थितियों को जन्म देने वाली अंधी जनसंख्या नीति का समर्थन करने वाले सत्तालोलुप धर्मांध नेताओं कभी गौर से नीम के पेड़ के नीचे खड़े होकर देखना. बरसात में निंबौरी से लाखों छोटे छोटे नीम पैदा होते हैं लेकिन अगले साल उस जगह सिर्फ एक या दो ही पेड़ खड़े नज़र आते हैं। कभी सोचा है क्यों?

अस्तित्व के संघर्ष में प्रकृति की बेहद जटिल व्यवस्था है। हर जीव के हिस्से में सीमित संसाधन हैं और जो इन संसाधनों को हासिल करने की लड़ाई में जीवित रहता है वही अगली पीढ़ी को जन्म दे पाता है। दवाओं और धन से बढ़ी क्षमता के बल पर हम जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में तो सक्षम हो सकते हैं लेकिन संसाधनों को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसके लिए हमें प्रकृति पर ही निर्भर रहना है।

यदि आज हम अपने मस्तिष्क और नवीन आविष्कारों के दम पर मानव जीवन बचाने में महारथी हैं तो हमारा ये भी कर्तव्य है की इसको सीमित रखने का उपाय भी हमें ही करना है।

अगर हम जनसंख्या को सीमित रखने में असफल रहे तो इन सीमित संसाधनों को हासिल करने की लड़ाई में अपने ही बच्चों को आपस में लड़ा बैठेंगे। जीवित रहने की इस लड़ाई में न कोई पड़ोसी होगा, न कोई गैर धर्मी होगा और न ही कोई विदेशी होगा। वरन अपना ही खून होगा जो मर रहा होगा और जो मार रहा होगा।

 
संतानोत्पति और संभोग को प्रकृति प्रदत्त गुण समझने वाले मानवों….. सभ्यता की इस कड़ी में खुद को पुराने युग से उत्कृष्ट मानने वालों से ब्रह्मचर्य की आशा करना बेमानी है।

लेकिन इस नवीन युग में सभ्यता का चोला लपेटे इंसान क्या अपनी मूर्खता की वेदी में अपने बच्चों को अस्तित्व के संघर्ष में धकेलने को आतुर होगा????

जनसंख्या असंतुलन से उपजा पारिस्थितिक असंतुलन एक नए तरह के विनाश की भूमिका बांध रहा है।

प्रदूषण के विभिन्न प्रकार, वनों का ह्रास, जनसंख्या के दबाव से सीमेंट में बदलती धरती, भूमि के पानी का मूर्खता की हद तक दोहन और पर्यावरणीय ऋतु चक्र में हो रहे परिवर्तनों से न केवल कृषि प्रभावित हो रही है बल्कि कई तरह की नयी बीमारियाँ भी जन्म लेती जा रही हैं।

 
वर्तमान पीढ़ी को एक ठहराव की जरूरत है, आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है। तुलना करनी है इतिहास से वर्तमान की। उन स्तंभों पर चिंतन करना है जिन पर हजारों सालों से ये प्राचीनता नवीनता का मुक़ाबला कर रही है।।।।।।।।

 
आज फिर अन्ना जग उठे हैं. ग्रीनपीस जैसे एन॰जी॰ओ॰ ने अबकी भूमि अधिग्रहण मुद्दे पर अन्ना को उकसाया है। जिन अन्ना के जरिये जन लोकपाल के मुद्दे पर कभी आवाज़ एन॰जी॰ओ॰ ने आगे कर भारत को भी मिस्त्र, सीरिया, लीबिया आदि की तरह राजनैतिक अस्थिरता में फंसाने की चाल चली थी।

अरे विश्व के सभी समाजसेवी और पर्यावरणीय संस्थाओं जरा भारत की आत्मा में बसे ग्रन्थों को उठा कर देखो, इस भूमि की धुरी “गीता” को पढ़कर देखो फिर बताना तुम्हारे समाजसेवा के छलावे से कितना अलग है हमारा प्रकृति विज्ञान, जो हमारी नसों में खून बनकर बह रहा है।

अगर तुम्हें समाजसेवा करनी ही है तो जाओ आर्कटिक ध्रुवों में तेल खोज रही कंपनियों को रोको जो पृथ्वी कि धुरी को तबाह करने का कुचक्र कर रहे हैं. जाओ जाकर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की सुधि लो जहां जनता जुल्म और भूख से बेहाल है, जाओ चीन द्वारा पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में चल रही हिमालय खोदने वाली परियोजनाओं को रोको वरना भारत को तबाह करने की मंशा में मानवता को ही खो बैठोगे, आई॰एस॰आई॰एस॰ को फंड देने वाले अरब देशों को समझाओ और अमेरिका को उन्हें हथियार बेचने से मना करो…………

अरे काहे एक शांत, सभ्य और मानवता रक्षक मुल्क को अस्थिर करने की साजिश रचते हो???????

यहाँ के 18 करोड़ सूफीपंथी और 107 करोड़ शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सिक्ख, अद्वैतवादी, साधु और ईसाइयों से बना सनातन भारत उन विदेशी सलाहों का मोहताज नहीं है जिन देशों में कैथोलिक-प्रोटेस्टेंटो, शिया-सुन्नियों, महायानियों-हीनयानियों के मध्य वैमनस्य की चरमता है।

 
मोदी की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उमर, राहुल, अखिलेश और ओवैसी जैसे दृढ़ भारतीय कंधा जोड़े खड़े हैं। ये वो भारतीय हैं जो इतनी विषमताओं में भी डिगे नहीं हैं। उमर अलगाववादियों से घिरे होने के बावजूद खुद को कश्मीरी पंडितों का वंशज कहते हैं और कश्मीर की भव्यता को पुनर्जागृत करने का स्वप्न लिए हैं, राहुल गरीबों की कुटिया में खाना खा कर भरपूर नींद सो जाते हैं उनके साथ गावों की धूल फाँकने और पसीना बहाने में आनंद का अनुभव करते हैं, अखिलेश खामोशी से उत्तर प्रदेश की सभी सड़कों में साइकिल लेन और वृक्षों को लगाये चले जा रहे हैं, तो ओवैसी धर्मान्धों के बीच खड़े होकर आने वाली मुसलमान पीढ़ी को साक्षर कर रहे हैं और सीमित जनसंख्या नीति की पुरजोर वकालत कर रहे हैं।

 
ये भारत की संतानों की वो अग्रिम पंक्ति है जिन्हें हालात और प्रलोभनों के थपेड़े कभी मीर जाफ़र, जयचंद या विभीषण नहीं बना सकते।

इनके भीतर वो भारत बसता है जो हजारों सालों से अजेय है, ये भारत विज्ञान है, ये भारत अध्यात्म है।

ये भारत मानवता का स्वर्णिम अध्याय है………

ये भारत गीता के एक एक अंश से सराबोर है जो सिर्फ मानवता को जानता है वो शिया – सुन्नी को नहीं पहचानता, वो शैव – वैष्णव को नहीं जानता, वो ब्राह्मण – शूद्र को भी नहीं मानता।

 
ये भारत हिमालय है, पीपल है, गंगा है, सिंधु है, तक्षशिला है, नालंदा है। निगमानन्द का प्राण है जिन्होने तब गंगा की अविरल धारा के लिए भूख और प्यास से देह त्यागे थे, जब विदेशी मीडिया और विदेशी चंदा अन्ना की जय जयकार में लगा था।

लेकिन हे निगमानंद तुम्हारा भारत अभी जीवित है. टाइम्स आफ इंडिया के कोने में छपी तुम्हारी मौत की खबर के रूप में वो आत्मा हम सवा अरब भारतीयों के हृदय में प्रज्ज्वलित है।

 
भारत को तोड़ने की कोशिश करने वालों इस बात को अच्छी तरह समझ लो, भारत से उपजे सुवाक्यों की दम पर हमें अस्थिर करने का सपना मत देखो। भूमि अधिग्रहण के लिए तुम्हारे मीडिया से ज्यादा मुखर सरकारी तंत्र की खुली वेबसाइट है जिसमें बिना धरना दिये भारत का एक एक नागरिक अपनी चिंताओं और सुझावों का वर्णन कर सकता है।

 
इसी प्रकार भारत को विदेशी दुष्प्रचारों के पर्दे के पीछे का षड्यंत्र समझना होगा। ठहर कर सोंचना होगा कि उत्तेजित करने वाली उत्कृष्ट शराब के द्वारा मौतों का आंकड़ा कई गुना अधिक है बनिस्बत निकृष्ट भारतीय भांग के द्वारा शांत नशे में मस्त रहने वाले लोगों से। विदेशी तकनीकी से बने गुट्खा खा कर रात में सो जाने वालों के मुंह में तेज़ाब की तरह भीतरी त्वचा को आघात कर कैंसर से मरने वालों को पढ़ना होगा भारतीय पान के कृमिनाशक तथा एंटी एलेर्जिक गुणों को।

क्या ये संभव हो पाएगा वैश्विक व्यावसायिक युग की पिपासा के मध्य? जहां भारत के प्रकृति विज्ञान पर पश्चिमी भौतिक विज्ञान की श्रेष्ठता को सिद्ध करना ही मकसद हो…….

भले ही आज वही पाश्चात्य विज्ञान “कैनाबिस सैटाइवा” या “भांग” के एंटी ऑक्सीडेंट तथा कैंसर रोधी गुणों पर शोध कर रहा है। आज हमारे पारंपरिक गुड़ को क्यों प्रमुखता दे रहे हो कार्बोनेट शर्करा के दुष्परिणाम से ग्रस्त डाइबिटीज़ मरीजों के ऊपर??????

 
कैसा आश्चर्य है कि जब पाश्चात्य विज्ञान अपने आविष्कारों के दुष्प्रभावों के जाल में फंस जाता है तब वो भारतीय सनातन विज्ञान के ग्रन्थों के तथ्यों पर शोध करना शुरु कर देता है इन दुष्प्रभावों से निजात पाने के लिए…….

 
माँ के द्वारा भूमि आंवले से पीलिया का इलाज या नज़र लगने पर सरसों के तेल से भीगी बाती को जलाकर बुखार को ठीक करना, चोट के दागों को घमरे की पत्ती घिस कर ठीक करना. हर बीमारी का पहला इलाज करने वाली माँ का वो स्वरूप क्या वर्तमान पीढ़ी से आगे जा पाएगा? जो स्त्री आज़ादी के नाम पर माँ और बच्चों को दूर करती जा रही है……..

पुरुषों और वंशों को उत्पन्न करती – पालती – सहेजती ये शक्ति, त्याग और करुणा की मूर्ति क्या धरती माँ का रूप धर पाएगी?????? पर्यावरणीय चक्र में परिवर्तन होने से भयावह दुष्परिणाम, नए विषाणुओं के जरिये विभिन्न महामारियों का जन्म, कड़ी गर्मी और अचानक वर्षा, भूजल की नाजुक स्थिति, रसायनिक और प्रसंस्करित विदेशी अन्न और सब्जियाँ।

साथ ही साथ उस पर बेलगाम जनसंख्या का भविष्य……………

समीप खड़ी बहुत ही विषम परिस्थितियों में क्या माँ हमें बचा पाएगी??????
क्या वो टैनरियों से निकले क्रोमियम वाले पानी से सींचे अनाज और ओक्सिटो्सिन इंजेक्शन से बढ़ी लौकी की बजाय घर में उगी भिंडी, बैंगन, सेम, पपीता, तरोई के बल पर हमें पुष्ट कर पाएगी???? भारत को कभी भूखा न रहने देने वाली गृह बगिया संस्कृति फिर लौटेगी????? क्या वो संस्कृति फिर वापस आएगी जिसमें क्यांरी भी जमीन के पानी को भीतर रोकती थी।

 
कंक्रीट के साम्राज्य पर खड़ा एम्स क्या जंगलों में स्थित सुश्रुत के तक्षशिला का स्थान कभी ले पाएगा???? जहां कभी चिकित्सा सेवा थी, निरंतर खोज थी, समर्पण थी, त्याग थी…………

वो क्या अब व्यवसाय की संकीर्णता और कुटिलता के दुष्चक्र से बाहर निकल पाएगा????

 
क्या हमारी माँ भारत की सर्वाचीन शिक्षा से हमें प्रकृति के करीब ला पाएगी?????

क्या वो भारत को उसके अपने चिरंजीवी संस्कार दे पाएगी जहां से हम सारे संसार के जीवों को इन विषम परिस्थितियों से बचाने निकलेंगे।।।।।।।।।।।।।।।

4 COMMENTS

  1. Adbhut vigyan hai bhartiya sanskriti mein lekin hamari murkhta ke kaaran ham bimaar padte hain aur iska faayda videshi vyavyasaayi uthaate hain.

    • सच में अजय जी, बहुत गंभीर चुनौती है आज की पीढ़ी के सामने की किस तरह पुरातनता और आधुनिकता में सामंजस्य बिठाया जाये।

  2. आपका विश्लेषण सही है. राजीव दिक्षितजी ने हेपे टाई टिस के बारे में बताया था. विदेशी कंपनियों की दवाईयां बेचने का षड्यंत्र। हम पारम्परिक मसालों और घरेलु दवाइयों का निरंतर उपयोग करते रहें तो महामारियों के कुचक्र से बच सकते हैं. हमारे यहाँ विभिन्न मत मतान्तरों ,धर्मो। उपासना पद्धतियों के लोग हैं. शादी विवाहों में यह विविधता देखते ही बनती है. जहँ तक छूट पूठ दंगे फसाद का प्रश्न है तो वे तो पारिवारिक स्तर पर भी होते रहें हैं. भारत का ढांचा टूट नहीं सकता मेरा तो यह मानना है की जो अशांत देश हैं जैसे पाकिस्तान,बांग्लादेश, इराक,सीरिया,सूडान,बर्मा,इथियोपिआ नाइजीरिया ये हमारे देश से हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख ,जैन,बौद्ध और अन्य लोगों को बुलाएं वहां जीवन कैसे व्यतीत किया जाता है इनसे सीखें. सभी धर्म यह मानते हैं की मानव जन्म अनमोल है.इसे व्यर्थ के झगड़ों में क्यों नष्ट करें. यदि सबको मिलकर कोई चीज नष्ट करनी है तो वह हथियारों के सौदागर देशों की चालों को नष्ट करें. ये सौदागर सरकारों को भी हथियार देते हैं और उस सरकार से लड़ने वाले विद्रोहियों को भी हथियार देते हैं. चीत भी इनकी पूट भी इनकी मरें तो एशियाई या अफ़्रीकी।
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