10 अप्रैल, 2012 को जब सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के नेतृत्ववाली सरकार और विद्रोहियों के बीच 13 माह से चल रहे गृहयुद्ध पर संघर्ष विराम की सहमति बनी तो वैश्विक समुदाय को लगा कि शायद अब सीरिया गृहयुद्ध की भयानक त्रासदी से उबर जाएगा। लेकिन पिछले दिनों सीरिया की राजधानी दमिष्क में सेना द्वारा रासायनिक हथियारों के हमले में 1300 से अधिक लोगों का नरसंहार सीरिया को कठघरे में खड़ा कर दिया है। बशर अल असद की सेना पर आरोप है कि उसने दमिष्क के उपनगरीय इलाकों आहन तमरा, जोबर और जमालका में विद्रोहियों के ठिकाने पर रासायनिक हमला किया है। हालांकि सीरियार्इ सरकार ने इससे इंकार करते हुए कहा है कि सरकार को बदनाम और संयुक्त राष्ट्र टीम का ध्यान बंटाने के लिए विद्रोहियों द्वारा जहरीली गैस के इस्तेमाल का अफवाह फैलाया जा रहा है। लेकिन इस हमले का वीडियो दुनिया के सामने आने के बाद सीरियार्इ सरकार की पोल खुल गयी है। वीडियों में ऐसे शव नजर आ रहे हैं जिनपर चोट के निशान नहीं है। यह नर्व गैस के इस्तेमाल की आशंका को बल देता है। बहरहाल सच्चार्इ जो हो लेकिन इतने बड़े पैमानें पर लोगों की हत्या सीरिया में शांति के उम्मीदों को पीछे ढकेल दिया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ रसायनिक हथियार के इस्तेमाल की जांच में जुट गया है। अगर प्रमाणित हो जाता है कि सीरियार्इ सरकार ने जहरीली गैस का इस्तेमाल किया है तो नि:संदेह उसे अमेरिका जैसी वैश्विक शकितयों का कोपभाजन बनना पड़ेगा। अमेरिका सीरिया पर हमले का ताना-बाना बुनना शुरु कर दिया है। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सीरियार्इ सरकार को चेताया भी था कि अगर वह गृहयुद्ध में घातक रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल करती है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। अगर अमेरिका और उसके सहयोगी देश सीरिया पर हमला करते हैं तो स्थिति विस्फोटक होनी तय है। लेकिन इसके लिए सर्वाधिक रुप से सीरिया ही जिम्मेदार होगा। इसलिए कि वह शांति प्रयासों को लगातार हाशिए पर डालता रहा है। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और अरब लीग द्वारा नियुक्त शांतिदूत कोफी अन्नान के प्रयासों से 12 अप्रैल, 2012 को सीरिया में संघर्ष विराम लागू हुआ। मोटे तौर पर छ: बिंदुओं पर सहमति बनी। लेकिन जून, 2012 में यह समझौता विफल हो गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति दूत लएदर ब्राहीमी भी सीरिया के समाधान का हल नहीं ढुंढ सके। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने सीरिया में हिंसा को रोकने और राजनैतिक परिवर्तन करने वाले प्रस्ताव को भारी बहुमत से अगस्त 2012 में स्वीकार किया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद पद छोड़ दें तथा संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की तरफ से राजनयिक संबंधों को बनाए रखा जाए। इस प्रस्ताव में यह भी मांग की गयी कि सीरिया अपने रासायनिक तथा जैविक हथियारों को नष्ट करे। लेकिन इस प्रस्ताव का कोर्इ ठोस फलीतार्थ देखने को नहीं मिला। आज स्थिति यह है कि सीरिया संकट पर अंतर्राश्ट्रीय समुदाय विभाजित है। अमेरिका एवं उसके अन्य पिछलग्गू पषिचमी एवं खाड़ी देश और तुर्की इस मत के हैं कि सीरिया में असद सरकार को हटाकर दूसरी सरकार की स्थापना की जाए। वही चीन, रुस और र्इरान इसके खिलाफ हैं। र्इरान भी नहीं चाहता है कि सीरिया के मामले में खाड़ी देशों का प्रभाव बढ़े। पषिचमी देश जरुर चाहते हैं कि सीरिया में तख्तापलट हो लेकिन वे रुस और चीन के विरोध के कारण सैन्य हस्तक्षेप से बच रहे हैं। इजरायल भी अपने हितों को देखते हुए असद सरकार को मिटते हुए देखना नहीं चाहता है। इसलिए कि असद सरकार जाने के बाद वहां कोर्इ लोकतांत्रिक सरकार नहीं आने वाली। सत्ता उन्हीं इस्लामिक कटटपंथियों के हाथ में जाएगी जो इजरायल को नापंसद करते हैं। यहां उल्लेख करना जरुरी है कि दिसंबर 2012 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा सीरिया में विपक्षी नेशनल कोलिसोन फार सीरियन रिवोल्यूशनरी एंड आपजिशन फोर्सेज को मान्यता दिए जाने से रुस और चीन बेहद नाराज हैं। उन्होंने इसे जून, 2012 में पारित जेनेवा प्रस्ताव का उलंघन माना। रुस के विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव ने तो यहां तक कहा कि अमेरिका अपने इस कदम के द्वारा सीरिया में असद सरकार को उखाड़ फेंकने का मार्ग तलाश रहा है। जबकि अमेरिका और बि्रटेन का मानना है कि चूंकि विपक्षी गठबंधन नेशनल कोलिसोन फार सीरियन रिवोल्यूशनरी एंड आपजिशन फोर्सेज सीरिया के लोगों की नुमाइंदगी करता है इसलिए उसे समर्थन दिया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि जून, 2012 में जेनेवा में हुर्इ बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसके तहत सीरियार्इ पक्षों के वार्ता के द्वारा ही समस्या का समाधान ढुंढने पर सहमति बनी। इस बैठक में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून, पूर्व महासचिव कोफी अन्नान, अरब लीग के महासचिव के अलावा अमेरिका, चीन, रुस, तुर्की, बि्रटेन, फ्रांस, इराक, कुवैत, कतर के विदेशमंत्री शामिल हुए। जेनेवा घोशणा में सीरिया में सत्ता बदलाव के लिए एक ऐसे व्यापक राश्ट्रीय गठबंधन की बात कही गयी जिसमें राष्ट्रपति असद की सरकार की भी भागीदारी सुनिष्चित हो। दिसंबर 2012 में मोरक्को की राजधानी मराकेश में 130 देशों के ‘फ्रेंडस आफ सीरिया समूह के बैठक में सीरियार्इ विद्रोहियों को सीरियार्इ अवाम के असल नुमाइंदे के रुप में भी मान्यता दी गयी। लेकिन सीरियार्इ राष्ट्रपति बशर अल असद ने इसकी कड़ी निंदा की। उन्होंने कहा कि कटटरवादी इस्लामी दल ‘जबाश अल नुसरा जैसे संगठनों को सीरियार्इ अवाम का प्रतिनिधि मानना न केवल सीरिया की जनता के साथ छल है बलिक यह अमेरिका के दोहरे चरित्र को भी उजागर करता है। समझना कठिन हो गया है कि सीरिया संकट का समाधान कैसे होगा? सीरिया के सवाल पर विश्व जनमत का विभाजित होना सीरियार्इ संकट को लगातार उलझा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक सीरिया संघर्ष में अभी तक एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। सीरिया के हालात इस कदर खतरनाक हैं कि वहां रह रहे अन्य देशों के लोग पलायन को मजबूर हैं। संयक्त राष्ट्र संघ की शरणार्थी एजेंसी का कहना है कि सीरिया से हर रोज हजारों शरणार्थी सीमा पार कर इराक और लेबनान में शरण ले रहे हैं। एक आंकड़ें के मुताबिक सीरिया में विद्रोह शुरु होने के बाद से अब तक 20 लाख लोग देश छोड़ चुके हैं। राजधानी दमिष्क, बानियाज, अलहस्का और डेरहामा में आग लगी हुर्इ है। हर रोज सेना और प्रदर्शनकारी भिड़ रहे हैं। बदतर हालात से निपटने के लिए असद की सरकार ने अप्रैल 2011 में आपातकाल लागू किया था। लेकिन दो वर्ष भी हालात जस के तस बने हुए हैं। सीरिया के शासक बशर अल असद की सेना विद्रोहियों के दमन पर उतारु हैं वही विद्रोही समूह उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंकने पर आमादा है। विश्व समुदाय का दो गुटों में बंटना और अमेरिका का भौहें तरेरना विश्व समुदाय के हित में नहीं है। याद रखना होगा कि जब भी वैश्विक शक्तियाँ दो गुटों में विभाजित हुर्इ हैं परिणाम खतरनाक सिद्ध हुए हैं। उचित होगा कि वैश्विक शक्तियाँ सीरिया संकट का राजनीतिक समाधान ढुंढे।