जर्जर व्यवस्था और बूढ़े गार्ड बाघों की कैसे रक्षा करे

जिस तरह से इन्सान बदल गया है ठीक उसी प्रकार से प्राकृति ने भी खुद को बदल लिया है। अब न तो वो गर्मी पडती है और न सर्दी। कोई मौसम कोई त्यौहार अब हमारे लिये उल्लास लेकर नही आता। आज सारे मौसम सारे त्यौहार पछताते से आते है और रस्म अदा कर बीत जाते है। बरसात का महीना होने के बावजूद आज हम बारिश को तरस जाते है, सावन तो आता है पेडो पर झूले भी पडते है पर न तो अब वो झूला झूलने वाले बचे है न सावन के गीत गाने वाले। दरअसल आज हम लोगो ने अपने अपने घर इतने सुविधाजनक बना लिये है कि गर्मी में सर्दी और सर्दी में गर्मी का माहौल बनाया जा सकता है। इन घरो में पास पडौस के लोगो के साथ ही बाहरी हवा धूप धूल के प्रवेश की गुंजारिश नही रहती। जिंदगी की भाग दौड में मां, बाप, त्यौहार रिश्ते नाते सब के सब बहुत पीछे छूट कर आधुनिक समाज की वेदी पर कब के दम तोड चुके है। पिछले दिनो हम लोगो ने गौरैया दिवस मनाया। लोगो ने समाचार पत्रो में अपने उच्च विचारो से बडे भावुक होकर अपने अपने घर आंगन में चहकने वाली गौरैया को हाय आज कहा चली गई, क्यो चली गई, क्यो लुप्त हो गई गौरैया हमे बहुत याद आती है लिखा। पर क्या हम जानते है कि आज कितने फूल जो कल तक खिलते थे अब नही दिखते। कितनी तितलिया जो इन फूलो के आसपास मडराती थी आज नही है। कौओ की संख्या दिन रात घट रही है, और गिद्व कब के बीते दिनों की किस्से कहानी बन चुके है।

आज सरकार और वन्यजीव  बाघ की घटती संख्या को लेकर चिल्ला रहे है। सरकार और सरकारी नुमाईंदे बाघ संरक्षण की आड़ में खूब बहती गंगा में हाथ धो रहे है। कितना बाघों का संरक्षण हो रहा है ये आप और हम अच्छी तरह जानते है। बाघों के आंकडो पर अगर नजर डाले तो अंग्रेजी शासनकाल में बाघों का शिकार खुले आम होता था उस वक्त राजा महाराजाओ और रियासतो का दौर था जिस में अंग्रेजो के साथ रियासत के राजा और नवाब बाघों का शिकार खेलते थे। 1848 तक बाघ अपने अंतिंम शरण स्थल गुजरात के गिर क्षेत्र के अलावा अन्य सभी स्थानो से लुप्त हो चुके थे। 1913 में गिर में केवल 20 बाघ के जीवित बचे रहने का पता चलता है। जूना ग के नवाब ने यदि समय रहते कार्यवाही और शिकार पर पाबंदी न लगाई होती तो शायद आज बाघ केवल किस्सो कहानियो और संग्रहालयो में ही देखे जाते। जूना गढ़ के नवाब प्रयासो के कारण ही 1920 तक इन संख्या 20 बाघो से ये संख्या बकर 100 बाघो से अधिक पहुॅच गईं। और 1955 में ये संख्या बढ़कर 290 को पार कर गई। वर्ष 1965 में काठियावाड़ रियासत के अधीन आने वाले गिर के 1265 वर्ग किमी.इस इलाके को “वन्यजीव अभयारण्य’’ क्षेत्र घोषित कर इस को गुजरात वन विभाग को सौंप दिया गया। लेकिन इस संरक्षित भूमि के बाहर कई प्रकार के दबावो के कारण शिकार जारी रहा। और उसी दबाव के कारण 1976 में यहा बाघों की तादात 177 रह गई और एक बार फिर इन के खत्म होने की आशंका उत्पन्न होने लगी। लेकिन एक बार फिर इस प्रजाति को जीवनदान मिला और इनकी संख्या बकर 327 तक जा पहुॅची। वर्ष 2001 से 2003 तक यहा जिस गति से 60 बाघों की मौत हुई, और वो सिलसिला आज तक कमोबेश जारी ही है। जिस कारण आज गुजराज के गिर क्षेत्र में तकरीबन 250 बाघों से भी कम बाघ बचे है और सरकार का दावा 315 बाघों का है।

वर्ष 1984 तक बनाये गये देश में 15 बाघ अभयारण्यो में बाघों की कुल संख्या 1121 थी जो 2001-2002 में बढ़कर 1141 हो गई। बाघों की संख्या में इतनी लम्बी अवधि में कोई बडा इजाफा न होना सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम बाघ संरक्षण परियोजनाओ के तहत उठाए गए कदमो में कोताही और भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे है। इसी अवधि में देश में बाघों की घटती संख्या ने सरकार की मुश्किले बाढ़ने के साथ ही कोढ़ में खाज का काम किया क्योकि बाघो की कुल संख्या 3623 से घटकर 2906 भी हो गई। और सरकार की तमाम योजनाओ के बावजूद आज देश में 2006-2007 की गणना के मुताबिक केवल 1411 बाघ ही बचे है। आज देश में बाघों की संख्या कम होने की मुख्य वजह जहॉ शिकारियो द्वारा इस वन्य प्राणी को जाल में फंसाकर और जहर देकर मारना तथा बाघ संरक्षित क्षेत्रो का सिकुडना है। भारत के बाघों का शिकार कर के उस के अंगो की तस्करी नेपाल, भूटान के रास्ते चीन, म्यांमार और थाईलैण्ड जैसे देशो में हो रही है। दूसरी ओर वन अधिकारियो और वन सुरक्षाकर्मियो के पास आज न तो काम लायक उपकरण और अस्लाह है और न शरीर में दमखम। आखिर बूढ़े गार्ड और पुराने उपकरण और अस्लाह बाघ अभयारण्यो में बाघों की सुरक्षा तथा संरक्षण आखिर कैसे कर पायेगे। क्यो कि बीते दो दशक से जमीनी स्तर पर काम करने वाले वनकर्मियो की देश के कई राज्यो में भर्ती ही नही हुई है। जो वनकर्मी और सुरक्षाकर्मी इस वक्त है वो बूढ़े हो चुके है।

देश में बाघो की वृद्वि दर में इस प्रकार गिरावट आना चिंतनीय है। और सरकार इस विषय में गम्भीर भी मालुम पड रही है। क्यो कि अब सरकार जंगल के राजा बाघ को बचाने के लिये “प्रोजेक्ट टाइगर’’ और “प्रोजेक्ट एलीफैंट’’ की तरह ही “प्रोजेक्ट लायन’’ शुरू करने जा रही है। इस से पूर्व भी बाघो की देश में संख्या बाने के लिये आज से करीब 20 साल पहले सरकार ने गुजरात के गिर क्षेत्र से आधे बाघों को मध्य प्रदेश के कुनोपालपुर के जंगलो में बनाए गए अभयारण्य में पहुॅचाने की योजना बनाई थी। इस के पीछे सरकार की मंशा थी कि महामारी फैलने पर इस क्षेत्र के सारे बाघ एक साथ बीमारी की चपेट में न आये। यदि कुछ बाघ महामारी में बीमार होकर मर भी जाते है तो इस तरह से काफी तादात में बाघों को बचाया जा सकता है। लेकिन गुजरात सरकार की हठधर्मिता के कारण सरकार की ये योजना अधूरी ही रह गई। क्यो कि गुजरात के मुख्यमंत्री उस वक्त अपने राज्य का एक भी बाघ दूसरे राज्य को देने के लिये राजी नही हुए। दरअसल गुजरात के मुख्यमंत्री बाघों को गुजरात का गौरव मानते थे।

बाघ बडा शक्तिशाली प्राणी है ये एकदम सही बात है पर इस के साथ ही ये जानवर बडा ही शर्मीला और बहुत प्यारा भी है। बाघ का नाम आते ही रोंमांच के साथ ही चेहरे पर थोडा भय भी नजर आने लगता है। कल तक इस जानवर के संरक्षण में पूरा जंगल रहता था पर आज वो ही जानवर संरक्षण मांग रहा है। हम लोग आज लुप्त होते इस प्राणी को मिटाने पर क्यो तूले है। पिछले छः सालो से हर साल औसतन 22 बाघों का शिकार हो रहा है। वनो की रक्षा के लिये जरूरी बाघों को विलुप्त होने से बचाने में विश्व में भारत की आज भी सब से महत्तवपूर्ण भूमिका है। बाघों के दुनिया भर के लगभग 42 प्रजनन स्थलो में से 18 भारत में है। ये सभी स्थल बाघों की संख्या बाने के लिये आखिरी होने के साथ ही इन स्थलो का बाघों की संख्या बाने में अहम योगदान है। इस लिहाज से देखा जाये तो भारत गायब हो रही बाघों की प्रजाति के लिये अंतिम उम्मीद है।

बाघों को जाल में फंसाकर या उन्हे जहर देकर इन का शिकार करने वाले शिकारियो से निपटने के लिये जहॉ सरकार को नौजवान वनकर्मियो की संख्या बानी होगी वही उच्च तकनीक के अस्लेह इन वनकर्मियो को उपलब्ध कराने के साथ साथ उच्च तकनीक से युक्त डिजिटल कैमरो का इस्तेमाल कर बाघ संरक्षित क्षेत्रो में शिकार निरोधी गश्त और निगरानी को मजबूत करना होगा। तभी देश में बाघ और उनके शावको की संख्या के अच्छे आंकडे सामने आ सकते है और लुप्त होने के कंगार पर खडे इस मासूम और बेहद खूबसूरत प्राणी को हम बचा सकते है।

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