नए-नए संवैधानिक रूप लेता उत्तराखण्ड

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उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन-

harishप्रमोद भार्गव
देवभूमि उत्तराखंड में चल रहा राजनीति संकट एक बार फिर निर्णय प्रक्रिया के चक्रव्यूह में घिरा दिखाई दे रहा है। नैनिताल उच्च न्यायालय के फैसले से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा को दोहरा झटका लगा था,लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र की अपील पर हाईकोर्ट द्वारा हटाए राष्ट्रपति शासन को 27 अप्रैल तक बहाल कर दिया है। इस निर्णय का आधार हाईकोर्ट के फैसले की लिखित एवं सत्यापित प्रति पक्षकारों को तुरंत उपलब्ध नहीं कराना बनाया है। इस प्रक्रिया से उत्तराखण्ड ने जो नया संवैधानिक स्वरूप लिया है,वह राजनीतिक रूप से उसी बिन्दू पर पहुंच गया है,जहां वह पहले था। इसी बीच बागी नौ विधायक भी विधानसभा अध्यक्ष द्वारा सदस्यता रद्द किए जाने के विरुद्ध शीर्ष न्यायालय पहुंच गए हैं। हाईकोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिंह कुंजवाल द्वारा उनकी सदस्यता रद्द किए जाने के फैसले पर मुहर लगाते हुए कहा था कि ‘इन बागियों को संवैधानिक पाप की सजा भुगतनी होगी।‘ यही वे बागी विधायक हैं,जिनके दम पर भाजपा और केंद्र सरकार ने दावा किया था कि रावत सरकार अल्पमत में है।
बड़े राज्यों को विभाजित कर छोटे राज्य इस पवित्र उद्देश्य से अस्तित्व में लाए गए थे,जिससे एक तो चौमुखी विकास की उम्मीद की जा सके,दूसरे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की आवाज को भी मुकम्मल तरजीह दी जा सके ? किंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि करीब 15 साल पहले वजूद में आए उत्तराखंड,झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों में से छत्तीसगढ़ को छोड़ दें तो अन्य दोनों राज्य उद्देश्य की परिकल्पना पर खरे नहीं उतरे हैं। देवभूमि उत्तराखंड जिस राजनीतिक संकट का सामना करते हुए शर्मसार है,वहां 15 साल में सात सरकारें रहीं। नारायण दत्त तिवारी को छोड़ कोई दूसरा मुख्यमंत्री तीन साल से ज्यादा सरकार नहीं चला पाया। साफ है,राज्य में आंतरिक कलह और आशंकाएं इतनी ज्यादा रही है कि मुख्यमंत्रियों का ध्यान विकासोन्मुखी कार्यों में खपाने से कहीं ज्यादा सरकार बचाए रखने की चिंता में लगा रहता है।
खुद हरीष रावत कांग्रेस के ही मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को धकिया कर उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज हुए थे। दरअसल उत्तराखंड में जिन दुविधा के हालातों का निर्माण हुआ है,उनका जनक कांगेस का केंद्रीय नेतृत्व है। यदि सोनिया और राहुल गांधी ने दूरदर्शिता से काम लिया होता तो शायद वर्तमान हालातों का सामना नहीं करना पड़ता। कांग्रेस ने हरीष रावत की अगुवाई में विधानसभा का चुनाव लड़ा और उसे बहुमत भी मिला, किंतु रीता बहुगुणा के व्यावहारिक दबाव में मुख्यमंत्री रीता के भाई विजय बहुगुणा को बना दिया गया। जबकि बहुगुणा लोकसभा के सांसद थे,उन्हें इस्तीफा दिलाकर मुख्यमंत्री बना देने का कोई औचित्य नहीं था। बहुगुणा केदरनाथ में जो प्राकृतिक आपदा आई थी,उसको संभालने में शासन-प्रशासन के स्तर पर असरकारी कुशलता दिखाने में असफल रहे थे। इस असफलता को आधार बनाकर हरीष रावत ने उत्तराखंड का दायित्व संभाला था। इसी कसक से आहत विजय बहुगुणा ने उत्तराखण्ड को मौजूदा संकट में ला खड़ा करने की पृष्ठभूमि रच दी है।
उत्तराखंड विधानसभा में अनिष्चय व अस्थिरता की स्थिति विनियोग विधेयक पेश करने के संदर्भ में बनी। इस विधेयक को लेकर कांगेस विधायकों ने ही हरीष रावत के विरुद्ध बगावत का झंडा बुलंद किया था। बजट सत्र के दौरान ही ये शंकाए उत्पन्न हो गईं थीं कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के 11 से लेकर 13 विधायक विनियोग विधेयक के विरुद्ध मतदान करके सदन में ही रावत सरकार को गिराने पर आमादा हैं। बजट पारित कराते समय यदि एक विधायक भी मत-विभाजन की मांग करता है तो विधानसभा अध्यक्ष के लिए मतदान की मांग मानना संविधान सम्मत बाध्यता है। इस अवसर पर स्थिति तो यह हो गई थी कि 11 या 13 नहीं सदन की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही 35 विधायकों ने लिखित में अध्यक्ष और राज्यपाल से मत-विभाजन की मांग कर दी थी। इस मांग-पत्र पर कांग्रेस के बागी विधायकों का नेतृत्व कर रहे हरक सिंह रावत और विजय बहुगुणा के अलावा भाजपा विधायकों के भी हस्ताक्षर थे। लेकिन इस दस्तावेजी साक्ष्य और विधायकों की विधानसभा में मतदान की प्रत्यक्ष मांग को नजरअंदाज करते हुए विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल ने ध्वनिमत से बजट पारित होने की घोशणा कर दी थी। चूंकि मांग संबंधी पूरी कार्यवाही वीडियो फुटेज में दर्ज है और दस्तावेजी अभिलेख भी मौजूद हैं,इसलिए इसे झुठलाया नहीं जा सकता है ? यही नहीं खुद कुंजवाल ने लिखित में यह माना है कि सदन में मत-विभाजन की मांग हुई थी,लेकिन उन्होंने विधेयक को पारित मान लिया। सदन के अध्यक्ष का यही विशंगतिपूर्ण आचरण उत्तराखंड में तत्काल राष्ट्रपति शासन लागू करने का मुख्य आधार बना था।
उपरोक्त गतिविधियों से साफ है,हरीष रावत सरकार मत-विभाजन की मांग के दौरान अल्पमत में आ गई थी। लिहाजा बागी विधायक और भाजपा की मांग पर राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को 28 मार्च को नए सिरे से अपना बहुमत सिद्ध करने का निर्देष दिया था। सदन में हरीष रावत बहुमत साबित कर दें,इस मकसद से विधानसभा अध्यक्ष ने सभी 9 बागियों को सदन की सदस्यता से आयोग्य घोषित कर दिया था। ऐसा इसलिए किया गया,जिससे बहुमत साबित करने के मौके पर ये विधायक सदन में भागीदारी न कर सकें। कुंजवाल की इस पहल से विधानसभा का समीकरण बदल गया। 70 सदस्यीय विधानसभा में सदस्यों की संख्या घटकर 61 रह गई। इनमें भाजपा के 28,कांग्रेस के 27,बासपा के 2,यूकेडी का 1 और 3 निर्दलीय विधायक रह गए। यदि हरीष रावत को 28 मार्च को बहुमत सिद्ध करने का अवसर मिल जाता तो कांग्रेस के 27, बसपा के 2, यूकेडी के 3 और तीनों निर्दलीय विधायक कांग्रेस के समर्थन में थे। मसलन 33 विधायक हरीष रावत के पक्ष में थे। यानी हरीष रावत सदन में शक्ति परीक्षण में सफल हो सकते थे ? यदि ऐसा सदन में हो जाता तो फिर हरीष को चुनाव तक सत्ता से बेदखल करना मुश्किल था ? इसीलिए जल्दबाजी में नाटकीय ढंग से राष्ट्रपति शासन लगाने की केंद्र की मंशा को अंजाम दिया गया। राष्ट्रपति शासन औपचारिक तौर पर भले राष्ट्रपति की मंजूरी से लगाया जाता है,पर इसका निर्णय केंद्र सरकार की अनुशंसा पर राष्ट्रपति करते हैं और इसकी जबावदेही भी केंद्र पर होती है। इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा कि ‘राष्ट्रपति कोई राजा नहीं है,लिहाजा उनके फैसले की भी समीक्षा हो सकती है। लेकिन हाईकोर्ट ने यहां इस अहम् बिन्दू पर विचार नहीं किया कि एक स्टिंग आॅपरेषन से हरीष रावत द्वारा विधायकों की खरीद फरोख्त का जो मामला सामने आया था, उस परिप्रेक्ष्य में रावत को अनैतिक कदाचरण दायरे में क्यों नहीं लाया गया ?
यहां यह भी गौरतलब है कि केंद्र सरकार बार-बार यह दलील दोहराती आ रही है कि राष्ट्रपति शासन इसीलिए लगाया गया,क्योंकि हरीष रावत सरकार अल्पमत में आ गई थी। दरअसल 18 मार्च को विनियोग विधेयक पारित करते वक्त भाजपा और कांग्रेस के बागी विधायकों की मत-विभाजन की मांग विधानसभा अध्यक्ष कुंजवाल ने नहीं मानी। किंतु इस मामले की सुनवाई कर रही दो सदस्यीय पीठ ने कहा है कि राज्यपाल ने राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में इस बात की कोई जानकारी नहीं दी है कि कांग्रेस के बागियों समेत 35 विधायकों ने मत-विभाजन की मांग की थी। जब राज्यपाल की रिपोर्ट में यह मांग दर्ज नहीं थी तो फिर राष्ट्रपति शासन क्यों लागू किया गया ? वह भी बहुमत सिद्ध करने की राज्यपाल द्वारा तय की गई तारीख के ठीक एक दिन पहले ? साफ है,राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने से पहले सदन में बहुमत साबित करने का अवसर देने की जरूरत थी। न्यायालय द्वारा प्रगट किए गए इस तथ्य से यह मुद्दा गौण हो जाता है कि राष्ट्रपति शासन समाप्त हो जाने का राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा ? बल्कि यहां सवाल यह खड़ा होता है कि राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए जो निर्णय प्रक्रिया अपनाई गई वह न्यायसंगत नहीं थी। भाजपा ने धारा-356 के इस्तेमाल में जल्दबाजी की। साफ है,निर्णय प्रक्रिया में राजनीतिक दुराग्रह की मंशा की झलक अदालत को दिखाई दी है। जिसकी परिणति राष्ट्रपति शासन की समाप्ती और हरीष रावत सरकार की बहाली में हुई होती। अब 27 अप्रैल तक सुप्रीम कोर्ट ने फिर से राष्ट्रपति शासन लगा दिया है।

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