तालिबान का काफिराना हमला

अफगानिस्तान के मजारे-शरीफ में हुए आतंकी हमले में 150 से भी ज्यादा लोग मारे गए। कई लोग अभी मरणासन्न हैं। इतने गंभीर हमले पिछले 15-20 साल में कम ही हुए हैं, खासतौर से उत्तरी अफगानिस्तान में। यह वह इलाका है, जिसमें पठान कम, ताजिक, उज़बेक, तुर्कमान आदि ज्यादा रहते हैं। यह हमला तालिबान ने किया है। तालिबान मूलतः पठान लोग हैं। इस हमले से यह सिद्ध होता है कि तालिबान अब काबुल, कंधार, जलालाबाद और हेलमंद जैसे पठान-इलाकों में ही नहीं, अब वे गैर-पठान इलाकों में भी ताकतवर और प्रभावशाली हो गए हैं। उन्होंने पिछले दो-तीन वर्षों में हेरात, मजारे-शरीफ, बल्ख और कुंदुज जैसे इलाकों में भी अपना वर्चस्व जमा लिया है।

तालिबान का यह हमला तब हुआ है, जबकि अमेरिका ने अपना सबसे बड़ा बम पठान-इलाके जलालाबाद में अभी पिछले हफ्ते ही फोड़ा था। हो सकता है कि इस हमले के जरिए तालिबान डोनाल्ड ट्रंप को यह संदेश देना चाहते हों कि यदि तुम क्रूरता दिखाओगे तो हम भी कम नहीं। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस आतंकी हमले को कायराना बताया है और यह भी कहा है कि यह काफिराना है।

यह कायराना था या दुस्साहसिक, इस पर अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन यह सत्य है कि इसे काफिराना हरकत के अलावा क्या कहा जाए? तालिबान ने यह हमला उस मस्जिद पर किया है, जहां अफगानिस्तान के फौजी नमाज़ पढ़ रहे थे। नमाज पढ़ने और खाना खाते हुए निहत्थे जवानों को मारने वाले लोग क्या अपने आप को मुसलमान कहने के हकदार हैं? उन दस आतंकियों में से आठ मारे गए और दो ने आत्महत्या कर ली। अफगानिस्तान में राष्ट्रीय शोक मनाया गया।

तालिबान ने यह हमला उस मस्जिद पर किया है, जहां अफगानिस्तान के फौजी नमाज़ पढ़ रहे थे।  नमाज पढ़ने और खाना खाते हुए निहत्थे जवानों को मारने वाले लोग क्या अपने आप को मुसलमान कहने के हकदार हैं?
इस तरह की खूंखार घटनाओं के लिए पाकिस्तान को कोसना बहुत आसान है। नरेंद्र मोदी और अशरफ गनी ने पाकिस्तान का नाम लिए बिना यही किया है। कुछ हद तक और कभी-कभी वैसे कहना ठीक भी होता है लेकिन इस तरह के भोले बयान अफगानिस्तान के मर्ज की दवा को टालते रहने का काम करते हैं। आज यह समझने की जरुरत है कि इतनी लंबी जद्दोजहद के बावजूद भी तालिबान अफगानिस्तान के हर जिले में मजबूत क्यों होते जा रहे हैं? रुस चीन और पाकिस्तान अब तालिबान को पटाने में क्यों लगे हुए हैं?

विदेशी फौजों ने तालिबान के सामने घुटने टेक दिए और वे लगभग लौट गई हैं। अफगान फौज उनका मुकाबला करने में कदम-कदम पर असमर्थ हो जाती है। लोकतांत्रिक ढंग से चुने जाने के बावजूद गनी और अब्दुल्ला का असर दिखाई नहीं पड़ता। अफगानिस्तान और उसके पड़ौसी देशों के नेतागण क्या इस प्रश्न पर अपना दिमाग कुछ देर के लिए खपाएंगे कि अफगानिस्तान में तालिबान की जड़ें अब भी क्यों हरी हैं?

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