तमिल और संस्कृत का अंतःसंबंध – वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में

डॉ. प्रतिभा सक्‍सेना

तमिल भाषा के प्रथम व्याकरण की रचना वैदिक काल के अगस्त्य मुनि ने की थी, जो उन्हीं के नाम से अगस्त्य व्याकरण जाना गया। तमिल में उनका नाम अगन्तियम है। अगन्तियम में तमिल के 3 भाग दिए गए हैं। प्रथम है इयल अर्थात् पाठ साहित्य, दूसरा इसै अर्थात गेय साहित्य और तीसरा नाटकम अर्थात नाटक साहित्य। अगस्त्य ऋषि को “तमिल का पिता” भी कहा गया है। ऋग्वेद के पहले मंडल में सूक्त संख्या 165 से लेकिर 191 तक कुल मिलाकर 27 सूक्त अगस्त्य के नाम से मिलते हैं .

राम-अगस्त्य मिलन के प्रसंग में वाल्मीकि रामायण का सारा विवरण बहुत ही सजीव है।अगस्त्य से मिलने से पहले राम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ सुतीक्ष्ण से मिलने गए थे और वहीं से उनको अगस्त्य के प्रसिद्ध आश्रम जाने का मार्ग मालूम पड़ा था। तो इस आधार पर तय यह माना जाता है कि अगस्त्य ऋषि राम के समकालीन थे और वैदिक मंत्ररचना के दूसरे सहस्त्राब्द के अन्तिम चरण में हुए थे।

वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा काण्ड सर्ग 47, श्लोक 19 में सुग्रीव ने सीता की खोज में वानरों को भेजते समय कहा था-

ततो हेममयं दिव्यं मुक्तमणि विभूषितम्।

युक्तं कपाटं पांडयानां द्रक्ष्यथ वानरा:।।

इससे सिद्ध होता है कि त्रेतायुग में न दक्षिण भारत के कपाटपुर के पांड्य नरेश थे। प्रारंभिक तमिल भाषा साहित्य के 3 संघमों के वर्णन में द्वितीय संघम का आधारभूत “कपाटपुर” रहा है, जिसका उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में प्रस्तुत किया है। महाभारत में भी महर्षि वेद व्यास पांड्य नरेश सागरध्वज का उल्लेख किया है, जो पांडवों की ओर से कौरवों से लड़ा था, वह कपाटपुर शासक रहा था।

तमिल में अगस्त्य को अगत्तियंगर भी लिखा गया है और उनके व्याकरण को अगत्तियम। इसी आधार पर वैयाकरणा तोलकाप्पियर ने ग्रंथ लिखा तोलकाप्पियम। इससे स्पष्ट है कि अगस्त्य मुनि से ही तमिल इतिहास शुरु होता है। तमिलनाडु में कार्य करके अगस्त्य मुनि कम्बोडिया गए। कहा जाता है कि कम्बोडिया को मुनि अगस्त्य ने ही बसाया है। तमिल के प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ में भी यह प्रसंग है।

तमिल के “मलय तिरुवियाडल पुराणम” में तो यहां तक तमिल भाषा की प्राचीनता और ऐतिहासिकता का उल्लेख है कि शिव जी ने जब मुनि अगस्त्य को दक्षिण भारत जाने को कहा तो उन्हें तमिल भाषा में ही निर्देश दिए थे। भगवान शिव ने ही उन्हें तमिल भाषा की शिक्षा दी थी।

वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड के 30वें सर्ग में अशोक वृक्ष के नीचे शोकमग्ना सीताजी से हनुमान जी की प्रथम वार्ता संस्कृत की बजाय तमिल में बतायी गई है। इससे पूर्व हनुमान जी ने देखा था कि रावण सीता जी से संस्कृत में ही वार्ता कर रहा था। उन्हें शक था कि यदि संस्कृत में बात की तो सीताजी उन्हें रावण का भेजा अनुचर न समझ लें। उस प्रयुक्त भाषा को वाल्मीकि जी ने “मधुरां” विशेषण प्रदान किया है। संस्कृत के बाद भारत में सबसे प्राचीन भाषा तमिल ही मान्य है।

महामुनि अगस्त्य सारे भारत में अपनी बौद्धिकता और कर्मठता के लिये विख्यात थे. उन्होंने ही उत्तर और दक्षिण के बीच विंध्य के आर-पार आवागमन सुलभ किया था .इस विषय में एक कथा है –

एक बार विंध्य पर्वत को गुस्सा आ गया कि क्यों नहीं सूर्य मेरी भी वैसे परिक्रमा करता जैसे वह मेरू पर्वत की किया करता है। सूर्य ने कोई ध्यान नहीं दिया तो विंध्य ने ऊपर आकाश की तरफ अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया। इतना बढ़ा लिया कि सूर्य की गति रुक गई। त्राहि-त्राहि करते लोगों ने अगस्त्य से पुकार लगाई.ऋषि विंध्य के पास

पहुँचे .वह प्रणाम करने नीचे झुका, आशीर्वाद दे कर बोले ,’वत्स ,अभी मैं उस पार जा रहा हूँ ,मैं लौटूँ तब तक झुके रहना .’

और वे कभी लौटे नहीं। और तब से विंध्य नीचे झुका हुआ है .

तमिल-परंपरा के अनुसार संस्कृत और द्रविड़ भाषाएँ एक ही उद्गम से निकली हैं.. इधर भाषा-तत्त्वज्ञों ने यह भी प्रमाणित किया है कि आर्यों की मूल भाषा यूरोप और एशिया के प्रत्येक भूखंड की स्थानीय विशिष्टताओं के प्रभाव में आकर परिवर्तित हो गयी, उसकी ध्वनियां बदल गयी, उच्चारण बदल गए और उसके भंडार में आर्येतर शब्दों का समावेश हो गया.

भारत में संस्कृत का उच्चारण तमिल प्रभाव से बदला है, यह बात अब कितने ही विद्वान मानने लगे हैं.. तमिल में र को ल और ल को र कर देने का रिवाज है.. यह रीती संस्कृत में भी ‘राल्योभेदः’ के नियम से चलती है.. काडवेल(Coldwell) का कहना है की संस्कृत ने यह पद्धति तमिल से ग्रहण की है.विश्व के विद्वानों ने संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के समान तमिल को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिल भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है।

तमिल का लगभग 2,500 वर्षों का अखण्डित इतिहास लिखित रूप में है। मोटे तौर पर इसके ऐतिहासिक वर्गीकरण में प्राचीन- पाँचवी शताब्दी ई. पू. से ईसा के बाद सातवीं शताब्दी, मध्य- आठवीं से सोलहवीं शताब्दी और आधुनिक- 17वीं शताब्दी से काल शामिल हैं। कुछ व्याकरणिक और शाब्दिक परिवर्तन इन कालों को इंगित करते हैं, लेकिन शब्दों की वर्तनी में प्रस्तुत स्वर वैज्ञानिक संरचना ज्यों की त्यों बनी हुई है। बोली जाने वाली भाषा में काफ़ी परिवर्तन हुआ है,

‘बहुत प्राचीन काल में भी तमिल और संस्कृत के बीच शब्दों का आदान-प्रदान काफी अधिक मात्रा में हुआ है, इसके प्रमाण यथेष्ट संख्या में उपलब्ध हैं.. किटेल ने अपनी कन्नड़-इंगलिश-डिक्शनरी में ऐसे कितने शब्द गिनाये है, जो तमिल-भंडार से निकल कर संस्कृत में पहुँचे थे.. बदले में संस्कृत ने भी तमिल को प्रभावित किया.. संस्कृत के कितने ही शब्द तो तमिल में तत्सम रूप में ही मौजूद हैं.. किन्तु, कितने ही शब्द ऐसे भी हैं, जिनके तत्सम रूप तक पहुँच पाना बीहड़ भाषा-तत्त्वज्ञों का ही काम है.. डा.सुनीतिकुमार चटर्जी ने बताया है की तमिल का ‘आयरम’ शब्द संस्कृत के ‘सहस्त्रम’ का रूपांतरण है.. इसी प्रकार, संस्कृत के स्नेह शब्द को तमिल भाषा ने केवल ‘ने'(घी) बनाकर तथा संस्कृत के कृष्ण को ‘किरूत्तिनन’ बनाकर अपना लिया है.. तमिल भाषा में उच्चारण के अपने नियम हैं.. इन नियमो के कारण बाहर से आये हुए शब्दों को शुद्ध तमिल प्रकृति धारण कर लेनी पड़ती है’..-दिनकर जी द्वारा लिखा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से .

दक्षिण भारत की कुछ गुफ़ाओं में प्राप्त तमिल भाषा के प्राचीनतम लेख ई.पू. पहली-दूसरी शताब्दी के माने गए हैं और इनकी लिपि ब्राह्मी लिपि ही है।

सातवीं शताब्दी में पहली बार कुछ ऐसे दानपत्र मिलते हैं, जो संस्कृत और तमिल दोनों ही भाषाओं में लिखे गए हैं। संस्कृत भाषा के लिए ग्रन्थ लिपि का ही व्यवहार देखने को मिलता है। तमिल भाषा की तत्कालीन लिपि भी ग्रन्थ लिपि से मिलती-जुलती है।

पल्लव शासक, अपने उत्तराधिकारी चोल और पाण्ड्यों की तरह, संस्कृत के साथ स्थानीय जनता की तमिल भाषा का भी आदर करते थे, इसीलिए उनके अभिलेख इन दोनों भाषाओं में मिलते हैं। नौवीं-दसवीं शताब्दी के अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि तमिल लिपि, ग्रन्थ लिपि के साथ-साथ स्वतंत्र रूप से विकसित हो रही थी।

इन दो चोल राजाओं का शासन दक्षिण भारत के इतिहास का अत्यन्त गौरवशाली अध्याय है। इन्होंने संस्कृत के साथ-साथ तमिल भाषा को भी आश्रय दिया था। इनकी विजयों की तरह इनका कृतित्व भी भव्य है। इनके अभिलेख संस्कृत भाषा (ग्रन्थ लिपि) और तमिल भाषा (तमिल लिपि) दोनों में ही मिलते हैं। राजेन्द्र चोल का ग्रन्थ लिपि में लिखा हुआ संस्कृत भाषा का तिरुवलंगाडु दानपत्र तो अभिलेखों के इतिहास में अपना विशेष स्थान रखता है। इसमें तांबे के बड़े-बड़े 31 पत्र हैं, जिन्हें छेद करके एक मोटे कड़े से बाँधा गया है। इस कड़े पर एक बड़ी-सी मुहर है।

तमिल लिपि में राजेन्द्र चोल का तिरुमलै की चट्टान पर एक लेख मिलता है। उसी प्रकार, तंजावुर के बृहदीश्वर मन्दिर में भी उसका लेख अंकित है। इन लेखों की तमिल लिपि में और तत्कालीन ग्रन्थ लिपि में स्पष्ट अन्तर दिखाई देता है।

15वीं शताब्दी में तमिल लिपि वर्तमान तमिल लिपि का रूप धारण कर लेती है। हाँ, उन्नीसवीं शताब्दी में, मुद्रण में इसका रूप स्थायी होने के पहले, इसके कुछ अक्षरों में थोड़ा-सा अन्तर पड़ा है। शकाब्द 1403 (1483 ई.) के महामण्डलेश्वर वालक्कायम के शिलालेख के अक्षरों तथा वर्तमान तमिल लिपि के अक्षरों में काफ़ी समानता है।

‘सदियों पहले भारत को एक करने की कोशिश भक्ति काल में हुई थी, जब दक्षिण के गुरुओं ने उत्तर का रुख किया था। उससे भी सदियों पहले शंकराचार्य ने इस धरती को जोड़ने के लिए हदबंदी की थी। वक्त ने उन कोशिशों को भुला दिया। अब वक्त बदलने के साथ जो सिलसिला चल पड़ा है, उसे आगे ले जाने की समझदारी नॉर्थ को दिखानी चाहिए। और इसका सबसे कारगर तरीका है तमिल या मलयालम को तालीम में शामिल करना। स्कूलों में पुरानी भाषाओं की तकलीफदेह रटंत की जगह त्रिभाषा फॉर्म्युले में साउथ की भाषाओं को जगह देने भर से वह कच्चा पुल तैयार हो जाएगा, जो विंध्य पर्वत को इतना बौना कर देगा, जितना अगस्त्य मुनि भी नहीं कर पाए थे।’ –संजय खाती का ज़िन्दगीनामा. 

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डॉ. प्रतिभा सक्‍सेना
मध्यप्रदेश (भारत) में जन्मी डॉ. प्रतिभा सक्सेना आचार्य नरेन्द्रदेव स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय कानपुर ( उ.प्र.) में शिक्षण सेवा से १९९८ में सेवानिवृत्त। कविता , कहानी,लघुउपन्यास , लेख, वार्ता एवं रंगमंच के लिये नाटक,रूपक एवं गीति-नाट्य आदि का लेखन । रचनाएँ अन्तर्जाल पर कविता एवं गद्यकोष में संकलित। भारत, अमेरिका एवं अन्तर्जाल की हिन्दी की साहित्यिक विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन।पुस्तकें: 1 सीमा के बंधन - कहानी संग्रह, 2. घर मेरा है - लघु-उपन्यास संग्रह .3. उत्तर कथा - खण्ड-काव्य सम्प्रति : आचार्य नरेन्द्रदेव स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कानपुर में शिक्षण. सन्‌ 1998 में रिटायर होकर, अधिकतर यू.एस.ए. में निवास

5 COMMENTS

  1. विदुषी बहन प्रतिभा जी का यह लेख उनके गहन अध्ययन व बुधिमत्ता पूर्ण मनन का परिचायक है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है की प्रचलित भेड़ चाल से हट कर मौलिक चिंतन पर आधारित है. इस छोटे से आलेख में शक्ति है की भारक को द्रविड़-आर्य में बांटने के विशाल षड्यंत्र को धराशाई कर दे. इतिहास का छात्र होने पर भी मैं लेख में वर्णित अति महत्व के इन तथ्यों से अपरिचित था. लेखिका के इस अमूल्य योगदान के लिए बधाई व धन्यवाद.

  2. प्रतिभा जी का सशक्त एवं प्रभावी आलेख संस्कृत एवं तमिल की अन्तरंगता को परिभाषित करता है।प्राचीन ग्रंथों एवं शिलालेखों के साक्ष्य उनके तथ्यों को सम्पुष्टि प्रदान करते हैं,जो दोनों भाषा -प्रेमियों के मन को आश्वस्त करने के साथ ही , उनमें सौहार्द को जन्म देंगे।मधुसूदन जी एवं प्रतिभा जी के ऐसे उत्कृष्ट एवं विश्वसनीय आलेख सांस्कृतिक एकता बढ़ाएँगे- ऐसा मेरा विश्वास है।
    लेखिका की ज्ञान-गरिमा और वैदुष्य के लिये उनका साधुवाद !!
    शकुन्तला बहादुर

  3. प्रतिभा जी,
    आपका आलेख संस्कृत एवं तमिल के परस्पर सम्बन्ध को सम्पुष्टि प्रदान करता है। आपके द्वारा जो शोधपरक तथ्य प्रस्तुत
    किए गए हैं, वे विश्वसनीय और मन को आश्वस्त करने वाले हैं। ग्रन्थों और शिलालेखों के साक्ष्य आपके तर्कों की सत्यता को
    सुप्रमाणित करते हैं , साथ ही आपके गहन अध्ययन , ज्ञान-गरिमा एवं वैदुष्य की ओर भी संकेत करते हैं । ऐसे खोजपूर्ण आलेख निश्चय ही इन दोनों भाषा- भाषियों के मनों में सौहार्द को जन्म देने के साथ ही सांस्कृतिक एकता को भी सुदृढ़ करेंगे – ऐसा मेरा विश्वास है ।
    इस उत्कृष्ट आलेख के लिये आपको हार्दिक-बधाई एवं साधुवाद!!

    शकुन्तला बहादुर

  4. (१)लेखिका ने नितांत समयोचित अवसर पर, और तमिल-संस्कृत के द्वंद्व समास जैसे सम्बन्ध पर ऐतिहासिक प्रक्रियाओं का विस्तार सहित प्रकाश फेंका है| ह्र्दय तल से धन्यवाद। आगे भी आप इसी प्रकार लेखन करे यह अनुरोध।

    (२) काल्डवेल दूसरा मैकाले था, जिसने आर्य -द्रविड़ भेद उकसाया था, “मानसिक जातियां भाग ३” में, निम्न परिच्छेद लिखा था. उसीको उद्धृत करता हूँ| डर्कस ने अभी अभी लिखी पुस्तक में यही वास्तविकता उभर कर आयी है।

    (३) आर्य-द्रविड भेद का धूर्त बीजारोपण करने वाला भी एक पादरी काल्डवेल ही था।
    उसके पहले आर्य द्रविड भेद कहीं नहीं था। उलटे आप सभीको जान कर हर्ष होगा कि हिंदु के चार आचार्यों में से तीन आचार्य द्रविडी प्रदेशों से थे। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, शंकराचार्य यह तीन आचार्य दक्षिण के द्रविड प्रदेश से थे। केवल वल्लभाचार्य उडिसा से थे।
    काल्ड्वेल की मृत्यु जब १८९१ में हुयी, तो उनकी असामान्य उपलब्धि थी, आर्य-द्रविड का भारतीयों की मानसिकता में धूर्त बीजारोपण। इसी बीजा रोपण के कारण, हमारा भारी घाटा हुआ है। वैसे विवेकानन्द जी की उक्ति स्मरण है, वे कहते थे, ”मुझे मेरे द्रवीड पूरखों का उतना ही गौरव है, जितना मुझे मेरे आर्य पूरखोंका।”–
    हमारे D N A का डेटा भी आज यही प्रमाणित कर रहा है। (२०१० )दो वर्ष पहले University of मेसाचुसेट्स, Dartmouth के Center for Indic Studies में आयोजित कान्फ़रेन्स में, D N A डेटा पर शोध पत्र पढे गए थे। उस से भी यही प्रमाणित किया गया था।

    (४) पर, जहां हमारे पूरखें ”विविधता में एकता” देखने का युगों युगों से एक सफल उद्यम आरंभ कर चुके थे, वहां एक मिशनरी अपने मत से भिन्न मतवालों को नर्क में भेजने वाली विचार प्रणाली के प्रचार में, एकता में ही भिन्नता दिखाकर अपना कन्वरजन का धंधा चलाना था। द्रविडियिन भाषा ओं का इतिहास और ढांचे के विषयमें भाषा शास्त्रीय खोज(?) यही काल्डवेल का योगदान माना जाता है।
    उन्हों ने दक्षिण में धर्मांतरण करने के उद्देश्य से ”द्रवीडियन-आर्यन” भेद को उकसा कर उन्हें आर्यों से अलग दिखा ने का प्रयास किया। पर वहां की जनता और उनका नेतृत्व, अपनी संस्कृति को ब्राह्मणों से, अलग मानने के लिए तैय्यार नहीं था।

    • सहमत हूँ मधुसूदन जी ,, विदेशी शासन में भारतीय इतिहास और परंपराओं को बहुत विरूपित कर प्रस्तुत किया गया और सदियों तक उसे दोहरा-दोहरा कर ,इतनी पुष्टि की गई कि हमारी कई पीढियों ने ग़लत संदेश पाया .उसे सही करने का प्रयास हम लोगों का दायित्व बनता है.

      .

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