तसलीमा नसरीन का कसूर

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शंकर शरण

बंगलादेशी लेखिका तसलीमा की आत्मकथा के नए खण्ड ‘निर्वासन’ का विमोचन समारोह कोलकाता पुस्तक मेले में रद्द कर दिया गया। क्योंकि इस्लामी उग्रवादियों ने विरोध किया। ऐसी पुस्तक जो अभी सामने आई भी नहीं, न लेखिका उस कार्यक्रम में उपस्थित होने वाली थी। फिर भी उग्रवादियों को उस के विमोचन से आपत्ति थी! और अधिकारियों ने डर से कार्यक्रम रद्द कर दिया। क्या सचमुच भारत में संविधान का शासन चल रहा है?

 

इस से पहले तसलीमा को भारत में रहने का वीसा भी पुनः किसी तरह मिला। कारण वही मजहबी कट्टरपंथियों का विरोध। स्थाई वीसा का उनका आवेदन वर्षों से अनिश्चित अवस्था में पड़ा है। इस बीच उलेमा का एक वर्ग उन्हें निकालने की माँग करते हुए दबाव डाल रहा है। यहाँ तक कि चार वर्ष पहले में हैदराबाद में उन पर जानलेवा हमला किया गया। तब आंध्र विधान सभा के तीन विधायकों ने अफसोस जताया कि वे नसरीना को मार डालने से चूक गए। उन विधायकों और हमलावरों को कोई सजा नहीं मिली! पेशेवर आतंकवादियों के लिए भी ‘मानव अधिकार’ के जोशीले भाषण देने वाले हमारे रेडिकल बुद्धिजीवियों ने उस पर भी एक शब्द नहीं कहा। उन्हें भारत में रहने की अनुमति मिल जाने के पीछे भी विदेशी बौद्धिकों के आग्रह का अधिक योगदान है, हमारे लोग तो चुप से ही रहे।

एक अर्थ में तसलीमा रूपी यह अकेली, निर्वासिता नारी एक दर्पण है जिस में हम अपना चेहरा देख सकते हैं। हमारा सेक्यूलरिज्म, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानून का शासन, मीडिया का अहंकार, न्यायाधीशों का रौब, इस्लामी कट्टरपंथियों का ‘मुट्ठी-भर’ होना, उदारवादी मुसलमानों का हवाई अस्तित्व, नारीवादियों की उग्र दयनीयता और मानवाधिकार आयोग के पक्षपात – सभी इस दर्पण में देखे जा सकते हैं। तसलीमा कितनी अकेली, दर-दर भटकी और किसी तरह अपनी घर वापसी की कैसी भूखी है, यह उस की आत्मकथा के एक पिछले भाग ‘मुझे घर ले चलो’ पढ़ने वाला कोई भी महसूस कर सकता है। कोई भी भारतीय पाठक उन शब्दों, बिंबों और मुहावरों से अनछुआ नहीं रह सकता जो उस में लेखिका की आत्मा की पुकार बन कर रह-रहकर उठते हैं। यह पंक्तियाँ देखें, “ब्रह्मपुत्र सुनो, मैं लौटूँगी। सुनो शालवन विहार, महास्थान गढ़, सीताकुंड पहाड़ – मैं वापस लौटूँगी। अगर न लौट पाऊँ, मनुष्य के रूप में, लौटूँगी किसी दिन पंछी ही बनकर।”

यही अकेली अबला वह आइना है जिस में हमारे सत्ताधीश, न्यायाधीश, मीडियाधीश, मानवाधिकाराधीश और बौद्धिक विचाराधीश अपनी-अपनी शक्लें देख सकते हैं। इस दर्पण में उन को भी पहचान सकते हैं जो किसी समुदाय विशेष के संदिग्ध आतंकवादी से पूछ-ताछ होने पर भी दुःख से रात की नींद खो बैठते हैं। वही लोग एक शरणार्थी, एकाकी लेखिका पर कातिल गिरोहों के हमलों से भी निर्विकार रहते हैं।

 

पेशे से डॉक्टर रही तसलीमा का कसूर यह है कि उस ने मुस्लिम स्त्रियों की दुर्गति पर निरंतर आवाज उठाई है। कितनी भी धमकियाँ मिलने पर भी वह मौन नहीं हुईं। सच है कि मुस्लिम स्त्री की तुलना किसी अन्य समुदाय में स्त्री की स्थिति से नहीं की जा सकती। इसे मुस्लिम स्त्रियाँ ही अधिक अच्छी तरह जानती हैं। तसलीमा नसरीन की ‘लज्जा’ में जो बातें कही गई गई हैं, वह अक्षरशः सत्य हैं। उस की पुष्टि ईरान की वफा सुल्तान की पुस्तक ‘ए गॉड हू हेट्स’, उगांडा की इरशद माँझी की पुस्तक ‘द ट्रबुल विद इस्लाम टुडे’, पाकिस्तानी फहमीना दुर्रानी की ‘माई फ्यूडल लॉर्ड’, सोमालिया की अय्यान हिरसी अली की ‘द केज्ड वर्जिन’ आदि से भी होती है। यह सभी विभिन्न देशों की मुस्लिम लेखिका हैं। उन सब के अनुभव और विचार उस से भिन्न नहीं, जो तसलीमा ने व्यक्त किए हैं। तो क्या ये सारी लेखिकाएं गलत हैं, और केवल इस्लामी कट्टरपंथी, हिंसक फतवे देने वाले सही हैं? दुनिया कब तक एक असहिष्णु विचारधारा की विश्व-व्यापी मनमानी बर्दाश्त करेगी?

 

तसलीमा के कसूरों की झलक देखिए। उन के विचार में, “इस्लामी समाज में महिलाओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता है। उन्हें सिर्फ एक वस्तु और बच्चे जनने वाली मशीन समझा जाता है। यदि कोई स्त्री इस पर बोलती है तो उसे तरह-तरह से जलील होना पड़ता है।” सरसरी तलाक प्रथा पर तसलीमा कहती हैं कि पुरुषों द्वारा स्त्रियाँ लाना-छोड़ना जूठे भोजन फेंकने जैसा कार्य नहीं होना चाहिए।

 

निस्संदेह यह एक कठिन और दुःखद विषय है। मुस्लिम समाज में स्त्रियों की स्थिति कानूनी से अधिक विचारधारात्मक है। लफ्फाजियों को छोड़ दें, तो मुस्लिम बुद्धिजीवी भी मानते हैं कि इस्लाम पुरुषवादी विचारधारा है, जिस में स्त्रियों का स्थान अत्यंत निम्न है। पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री जुल्फिकार भुट्टो ने अपने प्रथम विवाह की करुण कथा सुनाते हुए स्वीकार किया थाः “मैं अपने मजहब पर शर्मिंदा हूँ। बहुपत्नी प्रथा बेहद घृणित चीज है। कोई मजहब इतना दमनकारी नहीं जितना मेरा है”। यह उन्होंने प्रसिद्ध पत्रकार ओरियाना फलासी के समक्ष कहा था।

 

भुट्टो ने कुछ गलत नहीं कहा था। मुस्लिम शादी-प्रथा में गरिमा का अभाव बारं-बार दिखता रहा है। वहाँ विवाह कोई शुष्क समझौता या मतलबी सौदेबाजी अधिक जान पड़ता है। निकाह, तलाक या गुजारे के नियम मनमाने हैं। शाह बानो से लेकर अमीना, गुड़िया, इमराना, आदि कई मामले चर्चित होकर यही दिखाते रहे हैं। इस्लामी प्रवक्ता बचाव में कहते हैं कि वह ‘व्यवहारिक’ या ‘यथार्थवादी’ है। किन्तु इसी सफाई में यह भी छिपा है कि वहाँ किसी गंभीरता, पवित्रता और आदर्श का अभाव है।

 

किंतु तसलीमा का सबसे बड़ा कसूर यह है कि उस ने बंगलादेश में हिन्दुओं पर होते रहे अत्याचार पर भी आवाज उठाई, जिन के लिए विश्व भर में कोई नहीं बोलता! स्वयं हिन्दू भी नहीं। बंगलादेश, फिजी हो या स्वयं भारत के कश्मीर या नगालैंड प्रांतों में, हिन्दुओं के लिए बोलने वाला कोई नहीं। मुस्लिम कट्टरपंथ और मुस्लिम उदारवादियों के बीच भी अपनी स्त्रियों की स्थिति पर जो असहमति हो, किंतु गैर-मुसलमानों पर वे प्रायः एकमत दिखते हैं। पूरे मुस्लिम इतिहास में इस पर कोई मुस्लिम स्वर नहीं उठा कि इस्लाम ने सदियों से गैर-मुसलमानों के साथ क्या-क्या अत्याचार किए। यही बात उठाकर तसलीमा ने अपने को उन कथित उदारवादी मुस्लिमों के लिए भी त्याज्य बना लिया जो आधुनिक, सेक्यूलर कहलाते हैं।

 

यही मुख्य कारण है कि हमारे देश के ‘पेज-थ्री’ हिन्दू उदारवादी भी तसलीमा से कतराते हैं। जो विभिन्न कार्यकर्ता हर तरह की ‘सेलिब्रिटी’ के साथ फोटो खिंचवाने को लालायित रहते हैं, अपने कार्यक्रमों में उन्हें बुलाकर धन्य होते हैं, वे भी तसलीमा से बचते हैं! क्योंकि तसलीमा ने एक वर्जित विषय – बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्गति – को भी प्रकाशित कर दिया। इसी लिए वह हमारे उच्च, बौद्धिक, मीडिया वर्ग के लिए अछूत हो गईं! एक अर्थ में मुस्लिम उदारवादियों से भी गई-बीती स्थिति हिन्दू उदारवादियों की है। इन का पहला दुराव हिन्दू पीड़ितों से है। चाहे वह कश्मीर के हिन्दू हों, या नेपाल या बंगलादेश के। हिन्दू सेक्यूलरपंथी उन की पीड़ा पर कुछ नहीं बोलता। परंतु तसलीमा ने अपनी लज्जा में बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा का बेबाक चित्रण कर के रख दिया है।

 

इसी पाप के लिए भारत का हिन्दू सेक्यूलर-वामपंथी उसे क्षमा नहीं कर सकता! वह आतंकवादी मुहम्मद अफजल, कसाब और इशरत जहाँ के पक्ष में खड़ा हो सकता है, किंतु विदुषी तसलीमा नसरीन के पक्ष में हरगिज नहीं। क्योंकि तसलीमा ने हमारे उदारवादियों के शुतुरमुर्गी पाखंड को उघाड़ कर रख दिया, इसीलिए वे उस से रुष्ट हैं। क्योंकि उत्पीड़ित हिन्दुओं के लिए बोलना भारत में चल रही सेक्यूलर-वामपंथी-उदारवादी प्रतिज्ञा में मना है। इसी कारण हमारे रेडिकल पत्रकार भी तसलीमा से कन्नी कटाते हैं। कभी किसी प्रसंग में उस से बयान लेने, टिप्पणी या ‘बाइट’ माँगने नहीं जाते। न किसी सेमिनार, गोष्ठी में उसे आमंत्रित किया जाता है। चाहे प्रसंग ठीक मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति से क्यों न जुड़ा हो, जिस पर प्रमाणिक रूप से लिखने-बोलने का काम तसलीमा करती रही हैं। यह पूरी बात न समझना स्वयं को भुलावा देना है।

 

कभी-कभी लगता है मानो भारत में लोकतंत्र और कानूनी समानता के दिन इने-गिने रह गए हैं। इन्हें ठुकराने का उग्रवादी दुस्साहस जितना बढ़ता जाता है, हिन्दू उच्च वर्ग की भीरुता उसी अनुपात में बढ़ रही है। इस का अंतिम परिणाम क्या होगा? तसलीमा नसरीन पर विगत हमले से पहले भी उन्हें मार डालने की धमकियाँ दी गई हैं। उन्हें भारत से निकालने की माँग भी होती है। किंतु मुखर बौद्धिकाएं, नारीवादी नेत्रियाँ और उन के पुरुष प्रशंसक भी इस्लामी प्रसंगों पर मुँह सी लेते हैं। अमीना, गुड़िया, इमराना, आएशा जैसे कितने भी हृदय-विदारक प्रसंग क्यों न उठें, ‘जेंडर’ ‘जेंडर’ रटने वालों का स्वर तब नहीं सुनाई पड़ता। सब के सब मानो लापता हो जाते हैं! इसीलिए यहाँ इस्लामवादियों को अपनी जबर्दस्ती थोपने का प्रोत्साहन मिलता है।

 

तसलीमा सच्ची मानवतावादी रही हैं, केवल आत्म-प्रचार चाहने वाली ‘मानवाधिकारवादी’ नहीं। उन्होंने अपने विचारों और सत्यनिष्ठा के लिए कष्ट सहा और आज भी उस का परिणाम भुगत रही हैं। इस्लाम में सुधार का प्रश्न उन्होंने साहस से उठाया है। न केवल इस्लाम में स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों की स्थिति, बल्कि विचार-स्वातंत्र्य और खुले विमर्श की कमी का प्रश्न भी। यह प्रश्न कि किसी भी मनुष्य के लिए उस की अंतरात्मा, उस का विवेक ही अंतिम मार्गदर्शक हो सकता है, कोई मजहबी पुस्तक नहीं। इसीलिए तसलीमा ने कुरान में पूर्ण सुधार अपेक्षित बताया था, अन्यथा मुस्लिम स्त्रियों की दुर्दशा जस की तस रहेगी। यही कहने के लिए तसलीमा पर उलेमा ने मौत का फतवा जारी किया था, जो उन के सिर पर सदैव मँडराता रहता है।

 

किंतु तसलीमा की बात में दम है, जिसे मन ही मन हमारे डरु सेक्यूलरवादी भी मानते हैं। हालाँकि कुरान में सुधार की माँग उपयुक्त नहीं लगती। जैसा, हमारे समकालीन मनीषी रामस्वरूप ने कहा था, “किसी सदियों पुरानी श्रद्धेय किताब को वैसे भी यथावत रहने का अधिकार है। कोई किताब उस का लेखक ही सुधार सकता है, किसी अन्य को वह करने का अधिकार नहीं। जो उस किताब से असहमत हैं, वह अपनी बात लिखें। नए नियम और प्रस्ताव दें, वह अधिक उपयुक्त होगा।” अतएव, कुरान की आलोचनात्मक समीक्षा, उस का खुले हृदय से विवेक-पूर्ण परीक्षण ही उपयुक्त है। उस में दिए ऐसे विचार त्यागे जा सकते हैं जिन से स्त्रियों और गैर-मुस्लिमों को चोट पहुँचती हो। उस के बदले नए विचार स्वीकारे जाएं जिस से स्त्रियों का मान-सम्मान और वृहद सामाजिक सामंजस्य बढ़ता हो।

 

पर अभी यह होना दूर है। यह कोई संयोग नहीं कि इस्लाम ने अपने इतिहास में गैर-मुस्लिमों के साथ जो किया, उस के प्रति मुस्लिम विश्व में कभी अफसोस का स्वर नहीं उठा। अतः गैर-मुस्लिम उदारवादियों को उलेमा की लल्लो-चप्पो छोड़ तस्लीमा जैसे स्वरों को समर्थन देना चाहिए। तभी बुखारियों और अयातुल्लाओं को बचाव की मुद्रा में आने को विवश होना पड़ेगा। तभी इस्लामी समाज में परिवर्तेन का मार्ग खुलेगा। वर्तमान स्थिति में मुस्लिम सुधार आंदोलन को गैर-मुस्लिम समाज के विवेकशील लोग ही बल पहुँचा सकते हैं। क्योंकि स्वतंत्र, लोकतांत्रिक, गैर-मुस्लिम देशों के लोगों पर इस्लामी विचार-तंत्र जबरन लादना संभव नहीं। इसीलिए यदि हिन्दुओं, ईसाइयों में सच्चे उदारवादी सच को सच कह सकें तो वास्तव में उन लाखों मुसलमानों की भी मदद होगी जो उलेमा की जकड़ और शरीयत के भय से बोल नहीं पाते। अब तक हिन्दू उदारवादियों ने अपने रवैए से कट्टरपंथी उलेमा को ही मदद पहुँचाई है। उन में एक अबला की सी भी शक्ति नहीं! कट्टर इस्लामवादियों के हर दबाव पर मौन यही दिखाता है।

मगर तसलीमा ने भारतवासियों से उचित ही पूछा हैः “कितने समय तक डरते रहोगे?”

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  1. मुस्लिमों के कथित दलित-प्रेम का भंडाफोड ..इस्लाम के सम्बन्ध में स्वयं बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के विचार –

    १. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)

    २. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”

    ३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा…
    यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)

    ४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)

    ५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)

    ६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए…
    थापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)

    ७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्‌स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)

    ८. इस्लाम और जातिप्रथा-”जाति प्रथा को लीजिए। इस्लाम भ्रातृ-भाव की बात कहता है। हर व्यक्ति यही अनुमान लगाता है कि इस्लाम दास प्रथा और जाति प्रथा से मुक्त होगा। गुलामी के बारे में तो कहने की आवश्यकता ही नहीं। अब कानून यह समाप्त हो चुकी है। परन्तु जब यह विद्यमान थी, तो ज्यादातर समर्थन इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से ही मिलता था। कुरान में पैंगबर ने गुलामों के साथ उचित इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस अभिषाप के उन्मूलन के समर्थन में हो। जैसाकि सर डब्ल्यू. म्यूर ने स्पष्ट कहा है-

    ”….गुलाम या दासप्रथा समाप्त हो जाने में मुसलमानों का कोई हाथ नहीं है, क्योंकि जब इस प्रथा के बंधन ढीले करने का अवसर था, तब मुसलमानों ने उसको मजबूती से पकड़ लिया….. किसी मुसलमान पर यह दायित्व नहीं है कि वह अपने गुलामों को मुक्त कर दें…..”

    ”परन्तु गुलामी भले विदा हो गईहो, जाति तो मुसलमानों में क़ायम है। उदाहरण के लिए बंगाल के मुसलमानों की स्थिति को लिया जा सकता है। १९०१ के लिए बंगाल प्रांत के जनगणना अधीक्षक ने बंगाल के मुसलमानों के बारे में यह रोचक तथ्य दर्ज किए हैं :

    ”मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस पांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं-१. अशरफ अथवा शरु और २. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली…
    ”मुसलमानों का चार वर्गों-शेख, सैयद, मुग़ल और पठान-में परम्परागत विभाजन इस पांत (बंगाल) में प्रायः लागू नहीं है। मुसलमान दो मुखय सामाजिक विभाग मानते हैं-१. अशरफ अथवा शरु और २. अज़लफ। अशरफ से तात्पर्य है ‘कुलीन’, और इसमें विदेशियों के वंशज तथा ऊँची जाति के अधर्मांतरित हिन्दू शामिल हैं। शेष अन्य मुसलमान जिनमें व्यावसायिक वर्ग और निचली जातियों के धर्मांतरित शामिल हैं, उन्हें अज़लफ अर्थात्‌ नीचा अथवा निकृष्ट व्यक्ति माना जाता है। उन्हें कमीना अथवा इतर कमीन या रासिल, जो रिजाल का भ्रष्ट रूप है, ‘बेकार’ कहा जाता है। कुछ स्थानों पर एक तीसरा वर्ग ‘अरज़ल’ भी है, जिसमें आने वाले व्यक्ति सबसे नीच समझे जाते हैं। उनके साथ कोई भी अन्य मुसलमान मिलेगा-जुलेगा नहीं और न उन्हें मस्जिद और सार्वजनिक कब्रिस्तानों में प्रवेश करने दिया जाता है।

    इन वर्गों में भी हिन्दुओं में प्रचलित जैसी सामाजिक वरीयताऔर जातियां हैं।

    १. ‘अशरफ’ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान (प) सैयद, (पप) शेख, (पपप) पठान, (पअ) मुगल, (अ) मलिक और (अप) मिर्ज़ा।

    २. ‘अज़लफ’ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान

    (i) खेती करने वाले शेख और अन्य वे लोग जो मूलतः हिन्दू थे, किन्तु किसी बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्धित नहीं हैं और जिन्हें अशरफ समुदाय, अर्थात्‌ पिराली और ठकराई आदि में प्रवेश नहीं मिला है।

    ( ii) दर्जी, जुलाहा, फकीर और रंगरेज।

    (iii) बाढ़ी, भटियारा, चिक, चूड़ीहार, दाई, धावा, धुनिया, गड्‌डी, कलाल, कसाई, कुला, कुंजरा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी।

    (iv) अब्दाल, बाको, बेडिया, भाट, चंबा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, पनवाड़िया, मदारिया, तुन्तिया।

    ३. ‘अरजल’ अथवा निकृष्ट वर्ग

    भानार, हलालखोदर, हिजड़ा, कसंबी, लालबेगी, मोगता, मेहतर।

    जनगणना अधीक्षक ने मुस्लिम सामाजिक व्यवस्था के एक और पक्ष का भी उल्लेख किया है। वह है ‘पंचायत प्रणाली’ का प्रचलन। वह बताते हैं :

    ”पंचायत का प्राधिकार सामाजिक तथा व्यापार सम्बन्धी मामलों तक व्याप्त है और……..अन्य समुदायों के लोगों से विवाह एक ऐसा अपराध है, जिस पर शासी निकायकार्यवाही करता है। परिणामत: ये वर्ग भी हिन्दू जातियों के समान ही प्रायः कठोर संगोती हैं, अंतर-विवाह पर रोक ऊंची जातियों से लेकर नीची जातियों तक लागू है। उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति…
    उदाहरणतः कोई घूमा अपनी ही जाति अर्थात्‌ घूमा में ही विवाह कर सकता है। यदि इस नियम की अवहेलना की जाती है तो ऐसा करने वाले को तत्काल पंचायत के समक्ष पेश किया जाता है। एक जाति का कोई भी व्यक्ति आसानी से किसी दूसरी जाति में प्रवेश नहीं ले पाता और उसे अपनी उसी जाति का नाम कायम रखना पड़ता है, जिसमें उसने जन्म लिया है। यदि वह अपना लेता है, तब भी उसे उसी समुदाय का माना जाता है, जिसमें कि उसने जन्म लिया था….. हजारों जुलाहे कसाई का धंधा अपना चुके हैं, किन्तु वे अब भी जुलाहे ही कहे जाते हैं।”

    इसी तरह के तथ्य अन्य भारतीय प्रान्तों के बारे में भी वहाँ की जनगणना रिपोर्टों से वे लोग एकत्रित कर सकते हैं, जो उनका उल्लेख करना चाहते हों। परन्तु बंगाल के तयि ही यह दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं कि मुसलमानों में जाति प्राणी ही नहीं, छुआछूत भी प्रचलित है।” (पृ. २२१-२२३)

    ९. इस्लामी कानून समाज-सुधार के विरोधी-”मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखदहैं। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराईयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराईयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं। परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में १९३० में पेश किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु १४ वर्ष् और लड़के की १८ वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रन्थ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा। उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञाअभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छोड़ा गया वह अभ्यिान फेल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध…
    परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने प्रबल विरोधी हैं।” (पृ. २२६)

    १०. मुस्लिम राजनीतिज्ञों द्वारा धर्मनिरपेक्षता का विरोध-”मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उने लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसाु पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों ? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।” (पृ. २२९-२३०)

    ११. मुस्लिम कानूनों के अनुसार भरत हिन्दुओं और मुसलमानों की समान मातृभूमि नहीं हो सकती-”मुस्लिम धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार, विश्व दो हिस्सो में विभाजित है-दार-उल-इस्लाम तथा दार-उल-हर्ब। मुस्लिम शासित देश दार-उल-इस्लाम हैं। वह देश जिसमें मुसलमान सिर्फ रहते हैं, न कि उस पर शासन करते हैं, दार-उल-हर्ब है। मुस्लिम धार्मिक कानून का ऐसा होने के कारण भारत हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों की मातृभूमि नहीं हो सकती है। यह मुसलमानों की धरती हो सकती है-किन्तु यह हिन्दुओं और मुसलमानों की धरती, जिसमें दोनोंसमानता से रहें, नहीं हो सकती। फिर, जब इस पर मुसलमानों का शासन होगा तो यह मुसलमानों की धरती हो सकती है। इस समय यह देश गैर-मुस्लिम सत्ता के प्राधिकार के अन्तर्गत हैं, इसलिए मुसलमानों की धरती नहीं हो सकती। यह देश दार-उल-इस्लाम…
    यह देश दार-उल-इस्लाम होने की बजाय दार-उल-हर्ब बन जाताप है। हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि यह दृष्टिकोण केवल शास्त्रीय है। यह सिद्धान्त मुसलमानों को प्रभावित करने में बहुत कारगर कारण हो सकता है।” (पृ. २९६-२९७)

    १२. दार-उल-हर्व भारत को दार-उल-इस्लाम बनाने के लिए जिहाद-”यह उल्लेखनीय है कि जो मुसलमान अपने आपको दार-उल-हर्ब में पाते हैं, उनके बचाव के लिए हिजरत ही उपाय नहीं हैं मुस्लिम धार्मिक कानून की दूसरी आज्ञा जिहाद (धर्म युद्ध) है, जिसके तहत हर मुसलमान शासक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस्लाम के शासन का तब तक विस्तार करता रहे, जब तक सारी दुनिया मुसलमानों के नियंत्रण में नहीं आ जाती। संसार के दो खेमों में बंटने की वजह से सारे देश या दो दार-उल-इस्लाम (इस्लाम का घर) या दार-उल-हर्ब (युद्ध का घर) की श्रेणी में आते हैं। तकनीकी तौर पर हर मुस्लिम शासक का, जो इसके लिए सक्षम है, कर्त्तव्य है कि वह दार-उल-हब्र कोदार-उल-इस्लाम में बदल दे; और भारत में जिस तरह मुसलमानों के हिज़रत का मार्ग अपनाने के उदाहरण हैं, वहाँ ऐसेस भी उदाहरण हैं कि उन्होंने जिहाद की घोषणा करने में संकोच नहीं किया।”

    ”तथ्य यह है कि भारत, चाहे एक मात्र मुस्लिम शासन के अधीन न हो, दार-उल-हर्ब है, और इस्लामी सिद्धान्तों के अनुसार मुसलमानों द्वारा जिहाद की घोषणा करना न्यायसंगत है। वे जिहाद की घोषणा ही नहीं कर सकते, बल्कि उसकी सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति की मदद भी ले सकते हैं, और यदि विदेशी मुस्लिम शक्ति जिहाद की घोषणा करना चाहती है तो उसकी सफलता के लिए सहायता दे सकते हैं।” (पृ. २९७-२९८)

    १३. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस…
    तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती हैं, तब तक हिन्दू और मुसलमानों के बीच एकता की अपेक्षा करना अस्वाभाविक है।” (पृ. ३३६)

    १४. हिन्दू-मुस्लिम एकता असम्भव कार्य-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की निरर्थकता को प्रगट करने के लिए मैं इन शब्दों से और कोई शबदावली नहीं रख सकता। अब तक हिन्दू-मुस्लिम एकता कम-से-कम दिखती तो थी, भले ही वह मृग मरीचिका ही क्यों न हो। आज तो न वह दिखती हे, और न ही मन में है। यहाँ तक कि अब तो गाांी ने भी इसकी आशा छोड़ दी है और शायद अब वह समझने लगे हैं कि यह एक असम्भव कार्य है।” (पृ. १७८)

    १५. साम्प्रदायिक शान्ति के लिए अलपसंखयकों की अदला-बदली ही एक मात्र हल-”यह बात निश्चित है कि साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने का टिकाऊ तरीका अल्पसंखयकों की अदला-बदली ही हैं।यदि यही बात है तो फिर वह व्यर्थ होगा कि हिन्दू और मुसलमान संरक्षण के ऐसे उपाय खोजने में लगे रहें जो इतने असुरक्षित पाए गए हैं। यदि यूनान, तुकी और बुल्गारिया जैसे सीमित साधनों वाले छोटे-छोटे देश भी यह काम पूरा कर सके तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हिन्दुस्तानी ऐसा नहीं कर सकते। फिर यहाँ तो बहुत कम जनता को अदला-बदली करने की आवश्यकता पड़ेगी ओर चूंकि कुछ ही बाधाओं को दूर करना है। इसलिए साम्प्रदायिक शांति स्थापित करने के लिए एक निश्चित उपाय को न अपनाना अत्यन्त उपहासास्पद होगा।” (पृ. १०१)

    १६. विभाजन के बाद भी अल्पसंखयक-बहुसंखयक की समस्या बनी ही रहेगी-”यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिए कि पाकिस्तान बनने से हिन्दुस्तान साम्प्रदायिक समस्यासे मुक्त नहीं हो जाएगा। सीमाओं का पुनर्निर्धारण करके पाकिस्तान को तो एक सजातीय देश बनाया जा सकता हे, परन्तु हिन्दुस्तान तो एक मिश्रित देश बना ही रहेगा। मुसलमान समूचे हिन्दुस्तान में छितरे हुए हैं-यद्यपि वे मुखयतः शहरों और कस्बों में केंद्रित हैं। चाहे किसी भी ढंग से सीमांकन की कोशिश की जाए, उसे सजातीय देश नहीं बनायाजा सकता। हिन्दुस्तान को सजातीय देश बनाने काएकमात्र तरीका है, जनसंखया की अदला-बदली की व्यवस्था करना। यह अवश्य विचार कर लेना चाहिए कि जब तक ऐसा नहीं कियाजाएगा, हिन्दुस्तान में बहुसंखयक बनाम अल्पसंखयक की समस्या और हिन्दुस्तान की राजनीति में असंगति पहले की तरह…
    ाजनीति में असंगति पहले की तरह बनी ही रहेगी।” (पृ. १०३)

    १७. अल्पसंखयकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपाय-”अब मैं अल्पसंखयकों की उस समस्या की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ जो सीमाओं के पुनः निर्धारण के उपरान्त भी पाकिस्तान में बनी रहेंगी। उनके हितों की रक्षा करने के दो तरीके हैं। सबसे पहले, अल्पसंखयकों के राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान में सुरक्षा उपाय प्रदान करने हैं। भारतीय के लिए यह एक सुपरिचित मामला है और इस बात पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है।” (पृ. ३८५)

    १८. अल्पसंखयकों की अदला-बदली-एक संभावित हल-”दूसरा तरीका है पाकिस्तान से हिन्दुस्तान में उनका स्थानान्तरणकरने की स्थिति पैदा करना। अधिकांश जनता इस समाधान को अधिक पसंद करती हे और वह पाकिस्तान की स्वीकृति के लिए तैयार और इच्छुक हो जाएगी, यदि यह प्रदर्शित किया जा से कि जनसंखया का आदान-प्रदान सम्भव है। परन्तु इसे वे होश उड़ा देने वालीऔर दुरूह समस्या समझते हैं। निस्संदेह यह एक आतंकित दिमाग की निशनी है। यदि मामले पर ठंडे और शांतिपूर्ण एंग से विचार किया जाए तो पता लग जाएगा कि यह समस्या न तो होश उड़ाने वाली है, और न दुरूह।” (पृ. ३८५)

    (सभी उद्धरण बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-’पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २००० से लिए गए हैं)

  2. मुस्लिम वोटों की खातिर का‍क्ग्रेस ने हमेशा गलत नीतियों को आगे बढ़ाया उकसाया और अनीति करने वालों को बचाया
    धर्म आधारित आरक्षण की वकालत की संप्रदाय विशेष के पक्ष में खड़े होकर सच्चाई को झुठलाया |मुस्लिम समाज में नारी की दशा पर तस्लीमा के विरोध को धर्म विरोधी मनना तुष्टीकरण की नीति मात्र है|समाज से उसे कोई लेना देना नहीं है न ही नारियों की दुर्दशा से उसे सिर्फ वोट चाहिये कैसे भी मिलें |

  3. हमारी सरकारों की धरम निरपेक्षता vote के हिसाब से बनती बिगड़ती रहती है.वैसे भी भारत मे मुस्लिम लोब्बी कांग्रेस पर सदा हावी रही है.उसे देख कर, अन्य parties भी वोट के लिए इन्हे खुश करने में पीछे नहीं रहना चाहते. यह देश का दुर्भाग्य है क़ि ये दल देश का सामाजिक वातावरण सता मे रहने के लिए दिन प्रतिदिन और ज्यादा बिगड़ रहे है.आरक्षण का भूत भी इसी और एक कदम है.अब ईश्वर ही मालिक है.

  4. सेकुलरी देवी (ममता बनर्जी) ने कोलकाता पुस्तक मेले में तसलीमा की किताब पर रोक का फैसला ऐसे समय लगाया है जब लेखिका के अपने देश बांग्लादेश में यह पुस्तक बिना किसी हंगामे के रिलीज हो गई है। खास बात यह है कि ढाका में तसलीमा की किताब को सरकारी संस्था बांग्लादेश अकादमी ने रिलीज किया है। इस पर तसलीमा ने खुशी जताते हुए कहा है कि जो कोलकाता नहीं कर सकी वह ढाका ने कर दिखाया……ये है हमारे सेकुलरों का दोगलापन या कहें की कमीनापन……भारत आज अघोषित इस्लामी ही नहीं तालिबानी मुल्क बन चुका है….

  5. तसलीमा और रश्दी के मामले में सेकुलर भाँड़ो के मुंह में बर्फ क्यों जम जाती है??
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    कुछ साल पहले विनोद पांडे नामक प्रतिभाशाली फिल्म निर्देशक ने केरल में एक पादरी द्वारा एक नर्स के बलात्कार और फिर उसकी ह्त्या की सच्ची कहानी पर ‘सिन्स’ नामक फिल्म बनाई थी. इसाइयों के विरोध के चलते फिल्म रिलीज न हो सकी. तब भी भारत के सेकुलर भांड खामोश थे.
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    यही हाल ‘डा नीची कोड’ का हुआ. भारत की सभी सेकुलर राज्य सरकारों ने (जिसमे कोंग्रेस अव्वल थी) इसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी. जबकि यह फिल्म कई ईसाई देशो में दिखाई और सराही गयी. तब भी भारत के सेकुलर भांड खामोश थे.
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    क्या आज तक किसी भी पुस्तक या फिल्म पर हिन्दू विरोध के कारण बैन लगा है??
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