बदहाल कानून के साये में जिंदगी

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राखी रघुवंशी

अपने चरम पर हैं। हर रोज अखबार में अपराध से जुड़ी दो खबरें तो निशिचत तौर पर प्रकाशित होती ही हैं। मर्डर, चोरी, बलात्कार, दुर्घटना या फिर विधार्थियों द्वारा आत्महत्या। इनमें सबसे निर्मम है, ट्रक या डंपर चालकों का आम व्यकित को बेरहमी से कुचलते हुए जाना। हम रोज सुबह की शुरूआत अखबार से करते हैं, एक सकारात्मक सोच लेकर। लेकिन रोज अखबारों में अपराधिक खबरें पढ़कर मन विचलित हो जाता है। कर्इ बार मन में ख्याल भी आता है कि एक दिन तो ऐसा अखबार प्रकाशित होगा जिसमें एक भी अप्रिय घटना का समाचार न हो। शायद वो हमारी जिंदगी का पहला और सबसे अविस्मर्णीय सकारात्मक दिन होगा। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि अंतर्राष्ट्रीय, खेल, व्यवसाय जैसे पेजों की तरह एक दिन अपराध का भी एक अलग से पृष्ठ अखबार में देखने को मिले। यूं तो सारी दुनिया में अपराध हो रहे हैं, पर अगर देश या प्रदेश पर गौर करें तो बढ़ते हुए अपराधों की संख्या के अलावा आपको उसमें विविधता भी देखने को मिलेगी, खासतौर पर अकारण अपराधों की श्रेणी में हमारा मध्यप्रदेश सबसे आगे है।

हाल ही में रीवा में एक बस कडंक्टर द्वारा महज 5 रू के विवाद पर एक छात्र को बस से धक्का दे दिया गया और डिर्वाइडर से टकराकर उसकी मौत हो गर्इ। कभी नाइट्रावेट के नशे में मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है तो कभी मामूली से विवाद में हत्या हो जाती है। हमारे यहां अपराध मौसम की तरह बदलते हैं। कभी राजनैतिक अपराधों का दौर होता है तो कभी घोटालों का या रिश्वतखोरों का। कभी भूमाफियाओ का दौर रहता है तो कभी आर्थिक अपराधों का। हाल ही में दौर चला बलात्कारों का। जिसने सारे देश में प्रदेश को शर्मसार किया और हिंदुस्तान का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश का दिल सारी दुनिया को दिखा दिया। देपालपुर गांव, यहां पर एक मूक बधिर के साथ बलात्कार हुआ और जनता मूक बनी रही और प्रशासन बधिर। देवास नाका वहां पर एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। लूट, डकैती, चोरी ये अपराध तो आजकल आम अपराधों की श्रेणी में आते हैं। हत्या और बलात्कार जैसे संगीन अपराध धीरे-धीरे आम होते जा रहे हैं। कर्इ अपराधियों को सज़ा हो जाती है, कर्इ रिहा हो जाते हैं और कर्इ खुलेआम घूम रहे हैं।

मुरैना में आर्इपीएस अधिकारी नरेंद्र कुमार की ट्रैक्टर से रौंदकर हत्या, भीड़ में जयदेवन पर हमला और खरगौन में हमले से पुलिस जवान की मौत। ये घटनाऐं प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था की गवाही देती नज़र आती हैं। राज्य में पिछले कुछ अरसे से अपराधी तत्वों के हौसले इतने बढ़ गए हैं कि उनके लिए पुलिस का असर भी बौना हो चला है। हाल तो यह है कि पुलिस की वर्दी तक पर हाथ डालने में उन्हें डर नहीं लगता, फिर आम आदमी की क्या औक़ात ? नरेंद्र ने बामौर में अनुविभागीय अधिकारी के पद पर रहते हुए खनन माफियाआें की नाक में दम कर दिया था। उन्होंने पिछले दो माह में कर्इ ऐसे वाहनों को पकड़ा जो अवैध कारोबार में लगे थे। जब पूरा देश होली मना रहा था तब नरेंद्र कुमार अपनी डयूटी को निभाते हुए माफियाओं का शिकार बने। उनकी ट्रैक्टर से कुचलकर हत्या कर दी गर्इ। इसी तरह भीड़ में आर्इपीएस अधिकारी जयदेवन ने शराब माफिया की नकेल कसी तो उन पर हमला कर दिया गया। यह हमला किसी और ने नहीं बलिक भाजपा के पूर्व विधायक और उसके साथियों ने किया। इसके अलावा बीते दिनों राजधानी के कमलानगर थाने में आरएसएस से जुड़े लोगों ने पुलिस जवानों से मारपीट की और बाद में सरकार ने दबाव में आकर पिटे 10 जवानों को ही निलंबित कर दिया।

अगर हम नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 2008 की रपट देखें, तो भारत में मध्यप्रदेश महिलाओं एवं लड़कियों के साथ हो रहे अपराध के मामले में 35 राज्यों में से पांचवे स्थान पर है। बच्चों के साथ हो रहीं आपराधिक घटनाओं में झीलों की नगरी भोपाल का नंबर 13वां है। वहीं सरकार की ओर से जारी आंकडे बताते हैं कि बीते 13 माह में सिर्फ राजधानी में ही पुलिस बल पर 25 हमले हुए हैं। राजधानी में जब पुलिस बल का यह हाल है तो अन्य हिस्सों में क्या हाल होगा, इस बात का सहजता से अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रदेश के मुख्यमंत्री हों या गृहमंत्री, दोनों ही लगातार यह भरोसा दिलाते आ रहे हैं कि कानून से बड़ा कोर्इ नहीं है। प्रदेश में किसी भी कीमत पर आरोपियों को बख्शा नहीं जाएगा। सरकार किसी को संरक्षण नहीं दे रही है। मगर पुलिस बल के साथ जो हो रहा है वह इन बयानों से इतर है। पहले अवैध खनन मामले पर घिरी थी सरकार, अब बिगड़ती कानून व्यवस्था सरकार की मुशिकलें बढ़ा रही है।

आज हमारे देश ने आर्थिक, व्यावसायिक और तकनीकी उन्नति तो काफी रफतार से कर ली है पर उतनी रफतार के साथ सांस्कृतिक और सामजिक पतन भी हुआ है। जब भी अपराध होते हैं तो कलंक संस्कृति, समाज और सभ्यता पर लगता है। अपराध समाज की ही देन है और इस पर रोक भी समाज द्वारा ही लगार्इ जा सकती है कानून तो नियंत्रण का ज़रिया है। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही साथ अपराधों की मात्रा में भी वृद्धि हुर्इ है। इसके कारण ऐसा प्रतीत होता है कि आधुनिक सभ्य समाज में अपराध के सामाजिकरण की प्रकिया गतिशील है। यदि सामाजिक व्यवस्था सुदृढ़ है, आर्थिक सम्पन्नता है, सांस्कृतिक जागरूकता है और समाज में प्रेम, दया आदि मानवीय गुणों को महत्व दिया जाता है तो अपराध की घटनाऐं कम होंगी। इसके विपरीत सामाजिक अव्यवस्था और सांस्कृतिक चेतना शून्य समाज में अपराध बढेंगे। अत: यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने और आपराधिक प्रवृतियों पर अंकुश रखने के लिए एक व्यवसिथत, सुसंस्कृत और जागरूक सामाजिक संरचना बहुत ही आवश्यक है।

प्रेस की भूमिका इस मामले में बहुत महत्व रखती है। एक जिम्मेदार प्रेस अपने समाचारों की प्रस्तृति से समाज में सदगुणों को बढ़ावा देता है और लोगों में जागरूकता फैलाता है। विकासशील लोकतांत्रिक देशों में प्रेस का महत्व इसीलिए बहुत अधिक माना जाता है। यही कारण है कि पुराने मनीषियों ने पत्रकारिता का उददेश्य और संकल्प सामाजिक योगक्षेम माना है। यधपि प्रेस को सही अर्थों में सामाजिक दर्पण की भूमिका के निर्वाह में सामाजिक जिम्मेदारियों के आदर्श को सम्मुख रखना चाहिए। आदर्श पत्रकारिता अतीत के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान पीढ़ी को भविष्य के लिए तैयार करती है। वर्तमान समस्याओं के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालकर वर्तमान पीढ़ी को उन पर सोचने, समझने एंव समाधान प्रस्तुत करने के लिए अनुप्रेरित करती है। पत्र-पत्रिकाओं की निर्भीक वाणी न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में सहायक हो सकती है। अन्यायी, अपराधी, भ्रष्टाचारी को कठघरे के पीछे खड़ा कर सकती है। जन सामान्य को समुचित दिशा निर्देश और प्रशिक्षण दे सकती है तथा जन जागृति एवं दायित्वबोध के गुरूतर दायित्व का निर्वाह कर सकती है। वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता के उददेश्य और लक्ष्य बदल रहे हैं। इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि आज पत्रकारिता मिशन न रहकर पेशे में बदल चुकी है। मीडिया में बढ़ रहे उपभोक्तावाद व प्रतिस्पर्धा ने गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग को जन्म दिया है। परिणामस्वरूप मीडिया अपने उददेश्यों से विमुख हो स्व:हित की अंधी दौड़ में दौड़े जा रही है।

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