कश्मीर में सिर उठाते आतंकी

-अरविंद जयतिलक-
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जम्मू-कश्मीर के हालात फिर बिगड़ने लगे हैं। चरमपंथियों द्वारा दो सरपंचों समेत चार लोगों की हत्या और भयवष 25 सरपंचों का इस्तीफा इस बात का प्रमाण है कि राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। आतंकियों के दहशत के कारण पंचायत प्रतिनिधि थानों और सैन्य शिविरों में रहने को मजबूर हैं। वे उमर सरकार से अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रहे हैं। आतंकी उन्हें निशाना न बनाए इसके लिए वे अपने इस्तीफे का प्रकाशन अखबारों में करा रहे हैं। कई सरपंचों ने लाउडस्पीकरों से अपने इस्तीफे का ऐलान किया है। सवाल लाजिमी है कि जब जनता के प्रतिनिधि ही सुरक्षित नहीं हैं तो फिर आमजन की सुरक्षा कैसे होगी। एक अरसे से उमर सरकार भरोसा दे रही है कि वह पंचायत प्रतिनिधियों की सुरक्षा को लेकर कृतसंकल्प है। लेकिन वह विफल है। आतंकियों के डर से अब तक 400 से अधिक पंचायत प्रतिनिधि इस्तीफा दे चुके हैं। अगर हालात में सुधार नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में स्थिति और भयावह होगी। अचरज है कि ऐसे समय में जब उमर सरकार पंचायती चुनाव की प्रक्रिया को पूरा करने के लिए ब्लॉक व जिला विकास परिषद के गठन की तैयारी कर रही है, वह पंचायत प्रतिनिधियों की सुरक्षा को लेकर गंभीर क्यों नहीं है। वह आतंकियों से निपटने के लिए कड़े कदम क्यों नहीं उठा रही है। जबकि यह तथ्य है कि पिछले आठ महीने में एक दर्जन से अधिक सरपंचों की हत्या हो चुकी है। आतंकी लगातार पोस्टरों और खतों के माध्यम से सरपंचों को धमका रहे हैं कि वे या तो इस्तीफा दें या मरने के लिए तैयार रहें। भला ऐसी स्थिति में पंचायत प्रतिनिधि क्यों नहीं डरेंगे।

गौरतलब है कि राज्य के तैंतीस हजार से अधिक पंचायत प्रतिनिधियों के कई संगठन उमर सरकार से अपनी सुरक्षा की गुहार लगा चुके हैं। लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने उन्हें पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं करायी है। विडंबना यह भी है कि उमर सरकार पंचायतराज अधिनियम के तहत पंचायत प्रतिनिधियों को उनके वाजिब अधिकारों से भी लैस नहीं की है। जबकि संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन के जरिए भारत की सभी पंचायतों को संवैधानिक अधिकार हासिल हो चुका है। उचित होगा कि उमर सरकार पंचायत प्रतिनिधियों को उनके वाजिब अधिकार सौंपे और घाटी में लोकतंत्र को मजबूत करे। मजे की बात यह कि उमर सरकार 2011 में संपन्न हुए पंचायत चुनाव को अपनी उपलब्धियों में षुमार करती है और यह भी दावा करती है कि उसके प्रयासों से ही तीन दशक की अशांति के बाद राज्य में पंचायत चुनाव संपन्न हुआ और 82 फीसदी लोगों ने चुनाव में प्रत्यक्ष भागीदारी की। निश्चित रूप से इसका श्रेय उमर सरकार को जाता है। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह पंचायत प्रतिनिधियों को माकूल सुरक्षा और पंचायत अधिकारों से वंचित रखे। सरकार को समझना होगा कि उचित सुरक्षा और अधिकारों के अभाव में जम्मू-कश्मीर की धरती पर लोकतंत्र की फसल लहलहा नहीं सकती। उल्टे आतंकियों का ही हौसला बुलंद होगा। आतंकी इस निश्कर्श पर जा पहुंचे हैं कि अगर राज्य में पंचायतें मजबूत हुईं तो उनका फिर यहां टिके रहना मुश्किल होगा। सो उन्होंने रक्तपात मचाना शुरू कर दिया है। लश्कर-ए-तैयबा और हिजबुल संगठन से जुड़े आतंकी फिर ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय हो गए हैं और उसके कुपरिणाम भी सामने आने लगे हैं। दो राय नहीं कि विगत कुछ वर्षों में घाटी में आतंकियों द्वारा किसी भीशण वारदात को अंजाम नहीं दिया गया। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि राज्य में पूरी तरह शांति और अमनचैन कायम हो गया है। अगर सचमुच राज्य के हालात में सुधार हुआ होता तो बड़े पैमाने पर विदेशी पर्यटकों का आना-जाना शुरू हो गया होता। पर्यटन विकास को बढ़ावा मिलता। लोगों की रोजी-रोजगार में वृद्धि होती। डल झील में चहल-पहल बढ़ जाती। घाटी से विस्थापित कश्मीरी पंडित अपने घरों की ओर रुख करते। लेकिन ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है। राज्य में अराजकता कायम है। 2011 के पंचायत चुनाव से लेकर अब तक हिंसा की 350 से अधिक घटनाएं हो चुकी है। सैकड़ों लोग मारे गए हैं। दर्जनों सांप्रदायिक दंगों और अलगाववादियों के हड़तालों की वजह से घाटी लहूलुहान हुई है। अर्थव्यवस्था को चोट पहुंची है। अल्पसंख्यक हिंदू-सिक्खों पर अत्याचार बढ़ा है। राज्य सरकार इस नाकामी पर पर्दादारी नहीं कर सकती। लेकिन वह सच स्वीकारने को तैयार नहीं। कहना गलत नहीं होगा कि घाटी की बिगड़ते हालात के लिए उमर सरकार ही जिम्मेदार है।

दरअसल, उसकी दिलचस्पी जेहादी संगठनों की रीढ़ तोड़ने के बजाए घाटी में मौजूद सेना को हटाने में है। अफस्पा पर उसका रुख देश-दुनिया के सामने आ चुका है। पिछले दिनों खुद उमर अब्दुला कश्मीर के भारत में विलय पर सवाल खड़ा करते सुने गए। हालांकि उनकी खूब आलोचना हुई, लेकिन एक सच यह भी है कि उनके बयान से अलगाववादियों और आतंकियों का हौसला बुलंद हुआ। देश के हुक्मरानों को भी समझना होगा कि जब तक जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी शक्तियां मौजूद रहेंगी और उन्हें पाकिस्तान का संरक्षण मिलता रहेगा, तब तक आतंकवाद को खत्म नहीं किया जा सकता। लेकिन विडंबना है कि केंद्र की यूपीए सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही। आतंकियों को मदद पहुंचाने वाले अलगाववादियों पर न तो वह सख्ती बरत रही है और न ही पाकिस्तान पर किसी तरह का दबाव बना रही है। जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी नेता अनेकों बार दिल्ली आकर देश विरोधी तकरीर कर चुके हैं। लेकिन केंद्र सरकार एक बार भी उनके खिलाफ कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखायी। देश-दुनिया को अच्छी तरह पता है कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से भारत झुलस रहा है। उसका सबसे बड़ा मददगार साथी अमेरिका भी कह चुका है कि वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मिल रही मदद को विकास कार्यों पर खर्च के बजाए भारत विरोधी आतंकी गतिविधियों पर लूटा रहा है। लेकिन तमाशा है कि केंद्र सरकार पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई तो दूर विरोध जताने से भी बच रही है। इसके जो भी कारण हों लेकिन इस शुतुर्गमुर्गी आचरण से अलगाववादियों और आतंकियों का हौसला बुलंद है। हाल ही में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की सरकार ने वित्तीय वर्ष 2013-14 के अपने बजट में भारत के खिलाफ आग उगलने वाले जमात-उद-दावा के सबसे बड़े केंद्र को करोड़ों रुपए आवंटित की।

गौरतलब है कि जमात-उद-दावा प्रतिबंधित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का मुखौटा है और उसका नेता हाफिज सईद है जिसने मुंबई आतंकी घटना को अंजाम दिया। भारत सरकार एक अरसे से उसकी मांग कर रही है लेकिन पाकिस्तान उसे सौंपने को तैयार नहीं। भारत की समझदारी इसी में है कि वह जम्मू-कश्मीर में पसरे आतंकियों और अलगाववादियों के साथ कड़ाई से पेश आए। नरमी बरतकर उनका हृदय परिवर्तन नहीं किया जा सकता। आजादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर को मुख्यधारा में लाने का प्रयास हो रहा है। लेकिन अलगाववादी तत्व लगातार रोड़ा अटकाने का काम कर रहे हैं। दरअसल, उनका मकसद येनकेनप्रकारेन जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना है। इसके लिए वे कभी जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता का राग अलापते हैं तो कभी मानवाधिकार हनन के बहाने अफस्पा का विरोध करते हैं। उचित होगा कि अब्दुला सरकार आतंकियों और अलगाववादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे और सरपंचों की सुरक्षा सुनिश्चित करे, अन्यथा घाटी की हालात भयावह होते देर नहीं लगेगी।

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