आतंक की दवा इस्लाम ही करे

terrorist attack in Bruselsडॉ. वेदप्रताप वैदिक
बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में हुए आतंकी हमले से सारी दुनिया में कंपकंपी दौड़ गई है। लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि यूरोप-जैसे सुशिक्षित, मालदार और सुरक्षित राष्ट्रों में ऐसे भयंकर आतंकी हमले क्यों होते रहते हैं? जहां तक बेल्जियम का प्रश्न है, वह देश छोटा जरुर है लेकिन वह सही अर्थों में यूरोप की राजधानी है। बेल्जियम नाटो और यूरोपीय संघ का मुख्यालय है। इस देश में दुनिया की सबसे ताकतवर फौज और सबसे मालदार देशों का आर्थिक संगठन है। यूरोप या बेल्जियम की तुलना पाकिस्तान या अफगानिस्तान से भी नहीं की जा सकती। भारत से भी नहीं।
तो फिर क्या वजह है कि पेरिस और ब्रसेल्स और उसके पहले यूरोप के अन्य देशों में इतने भयंकर हमले हो जाते हैं? इसके कई कारण हैं। पहला, ये हमले यूरोप के मूल निवासी नहीं करते हैं। वे करते हैं, जो अफ्रीकी देशों से आकर यूरोप में बस गए हैं। ये वे लोग हैं, जो यूरोप के उपनिवेशों में रहा करते थे। जिन देशों पर यूरोप ने दशकों तक राज किया, उनके नागरिक अब आकर यूरोप में बस गए हैं। अल्जीरिया, मोरक्को, मिस्र, मोरिशस, सूडान, वियतनाम आदि उपनिवेशों के लोगों को अपने पूर्व स्वामी देशों की नागरिकता आसानी से मिल जाती है। यूरोप के देशों में इन लोगों की संख्या प्रायः 10 से 15 प्रतिशत होती है। इतनी बड़ी संख्या में रहनेवाले ये गैर-यूरोपीय मूल के लोग ही आतंक के गढ़ हैं।
ये लोग अगर शिक्षित हों, संपन्न हों और अपने काम-धंधों में व्यस्त हों तो ये आतंकियों के चक्कर में क्यों फंसेंगे? यूरोप के गोरे लोगों के मुकाबले इनका जीवन-स्तर काफी गिरा हुआ होता है। ये लोग गंदी बस्तियों में रहते हैं। ज्यादातर लोग रोजगार की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं। ये अपराधी गिरोहों में शामिल हो जाते हैं। आतंकी का बाना पहन लेने पर इनके अपराध का राजनीतिकरण हो जाता है। उसका स्तर ऊंचा हो जाता है। अपराध करने पर उसे जबर्दस्त प्रचार मिलता है और मारे जाने पर ‘शहीद’ का दर्जा हासिल हो जाता है। पेरिस और ब्रसेल्स के आतंकियों और उनके षड़यंत्रकारियों की कहानी यही है।
ब्रसेल्स और मोलनबीक के दो आत्म-हत्यारे आतंकी- इब्राहिम और खालिद बकरोई, दोनों भाई मोलनबीक में रहते थे। यह ब्रसेल्स के पास का एक छोटा-सा शहर है, जिसकी 40 प्रतिशत आबादी मुसलमान है। यहां जगह-जगह गंदी बस्तियों में अफ्रीकी लोग ठुंसे रहते हैं। यह अपराधों का अड्डा है। इसी जगह से पिछले हफ्ते पेरिस हमले के अपराधी सालेह अब्दुस्सलाम को पकड़ा गया था। सालेह का भाई पेरिस हमले के वक्त मारा गया था। पेरिस और ब्रसेल्स हमले के पहले ये चारों आतंकी कई संगीन अपराधों– लूटपाट और हत्या– के मामलों में लंबी सजा काट चुके थे। लेकिन अपनी जेल-यात्रा के दौरान इन्होंने जिहाद का पाठ पढ़ा और आतंक का नकाब अपने चेहरे पर चढ़ा लिया। इस्लाम के नाम पर जिहाद करनेवालों को पैसे और हथियारों की कोई कमी नहीं रही। यूरोप में रह रहे बेचारे बेपढ़े-लिखे और गरीब मुसलमानों के बच्चों को भर्ती किया जाने लगा। उन्हें सीरिया में चल रहे ‘इस्लामी खिलाफत’ के अभियान से भी पैसा और प्रोत्साहन मिलने लगा। बेल्जियम जैसे छोटे-से देश से सैकड़ों जिहादी सीरिया पहुंच गए। इन जिहादियों की मदद कौन कर रहा था? सिर्फ सउदी अरब ही नहीं। अमेरिका और यूरोपीय देश भी। सउदी अरब सुन्नी है और सीरिया का शासक बशर-अल-असद शिया है। असद को हटाने में पिछले साल तक ये सभी देश जुटे हुए थे लेकिन जबसे ‘इस्लामी खिलाफत’(आईएसआईएस) का उदय हुआ है, अमेरिका समेत यूरोपीय राष्ट्र पीछे हट गए और उन्होंने रुस के साथ मिलकर इस इस्लामी राज्य के खिलाफ सैन्य-अभियान छेड़ दिया। गोरे राष्ट्रों ने जो यह पल्टी खाई, इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। अब सीरिया के जिहादी अपने संरक्षकों पर ही वार कर रहे हैं।

सीरिया में इस्लामी लड़ाके आजकल बुरी तरह से मात खा रहे हैं। उनमें से ज्यादातर भाग-भागकर अपने घर आ रहे हैं। ये हताश और निराश नौजवान अब यूरोपीय राजधानियों को अपना निशाना बना रहे हैं। जाहिर है कि यूरोपीय राष्ट्रों की गुप्तचरी और फौज इनका मुकाबला नहीं कर पा रही है। इसका एक कारण तो यह है कि यूरोप में मानव अधिकार और स्वतंत्रता को जरुरत से ज्यादा महत्व मिला हुआ है। फ्रांसीसी क्रांति के मूल्यमान अभी भी शिरोधार्य हैं। इसीलिए जैसी सख्ती अमेरिका या जापान या चीन अपने संदेहास्पद नागरिकों पर करता है, यूरोपीय राष्ट्र नहीं करते। पेरिस और ब्रसेल्स हमले के अपराधी पुलिस की नजर में पहले से ही थे लेकिन बेल्जियम की पुलिस की ढिलाई के कारण यह हादसा हो गया। बेल्जियम यह भूल गया कि यूरोपीय संघ के राष्ट्रों में आवागमन की जो आजादी है, उसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग उसी के नागरिक कर रहे हैं। उन्होंने नवंबर 2015 में पेरिस में विस्फोट किए और वे आकर बेल्जियम में छिप गए। एक देश में बैठे-बैठे आप दूसरे देश में आसानी से विस्फोट करवा सकते हैं। इंटरनेट और टेलिफोन सिर्फ व्यापार और प्रेमालाप के लिए नहीं हैं।

तो क्या इन आतंकियों का मुकाबला सिर्फ जासूसी, पुलिस और फौज के दम पर किया जा सकता है? या फिर आतंक का जवाब आतंक से दिया जाए? ताकत के जोर पर अमेरिका ने अपने यहां आतंक का हुक्का-पानी बंद कर रखा है लेकिन यूरोपीय देश या भारत-जैसे देशों और अमेरिका में काफी फर्क है। अमेरिका एक अलग-थलग देश है और वहां प्रवासियों में भी अशिक्षा और गरीबी कम है। इसके अलावा तकनीकी दृष्टि से भी वह बहुत सक्षम राष्ट्र है। इसीलिए यूरोप को अपनी रक्षा के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करने होंगे। जवाबी आतंकवाद भी कोई रास्ता नहीं है। आतंक से निपटने के पारंपरिक रास्तों के साथ-साथ यूरोप को चाहिए कि वह सभी इस्लामी राष्ट्रों से अनुरोध करे कि वे आतंक को ‘काफिराना हरकत’ घोषित करें। कुरान-शरीफ के मुताबिक किसी एक बेकसूर व्यक्ति की हत्या पूरी इंसानियत की हत्या है। इस पवित्र कथन को हर मुस्लिम बच्चे के हृदय में अंकित कर दिया जाए ताकि अपराधी लोग उन्हें अपने जाल में न फंसा सकें। इसके अलावा दुनिया की सारी मस्जिदों में मुल्ला-मौलवी लोग आतंक और हिंसा के विरुद्ध रोज़ उपदेश करें। आतंकवाद के खात्मे की जितनी जिम्मेदारी गैर-मुस्लिमों की है, उससे कहीं ज्यादा मुलसमानों की है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आतंक की आग सबसे ज्यादा भड़की हुई है। वहां कौनसे ईसाई, यहूदी या हिंदू मारे जा रहे हैं? मारनेवाले और मरनेवाले, दोनों ही मुसलमान है। यह ठीक है कि गैर-मुस्लिम देशों में मुसलमान बहुत कम मारे जाते हैं लेकिन आतंक का सबसे ज्यादा खामियाजा वहां के अल्पसंख्यक मुसलमानों को ही भुगतना पड़ता है। उन्हें शक और बदनामी का शिकार बनना पड़ता है। जो आतंक फैलाते हैं, क्या वे सचमुच मुसलमान होते हैं? पेरिस और ब्रसेल्स के मुसलमान आतंकियों को तो नमाज़ पढ़ना भी नहीं आती। उनमें से कई नमाज के वक्त मस्जिद की छतों से शराब पीते हुए और मादक-द्रव्य फूंकते हुए पकड़े गए हैं। नकली इस्लाम के इन प्रेतों की दवा असली इस्लाम को ही करनी होगी।

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