कश्मीर घाटी में आतंकियों से लेकर फारुक अब्दुल्ला की राजनीति तक नोटबन्दी का क़हर

डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

नोटबन्दी के चलते किसको लाभ हुआ और किसको हानि , राजनीति और अर्थशास्त्र के विद्वान लोग इसके लम्बे अरसे तक अध्ययन करते रहेंगे और अपने अलग अलग निष्कर्ष भी निकालते रहेंगे । लेकिन नोटबन्दी ने जम्मू कश्मीर में आतंकवाद की कमर तोड़ दी है , इसको लेकर सभी सहमत हैं । इस मुद्दे पर मत भिन्नता नहीं है । यह अलग है कि कश्मीर घाटी में नोटबन्दी के इस प्रभाव को सार्वजनिक रुप से स्वीकारने में कुछ लोगों को हिचकिचाहट नहीं है और दूसरे , अनेक कारणों से इसे स्वीकार करने में अभी भी डरते हैं । सभी जानते हैं कि कश्मीर घाटी में आतंक का एक वैचारिक पक्ष है और दूसरा कारोबारी पक्ष है । वैचारिक पक्ष कश्मीर घाटी में ज़्यादा मज़बूत नहीं है । कश्मीर घाटी को पाकिस्तान में शामिल करवाना है , क्योंकि घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं , इस तर्क का सहारा लेकर अपना कैलेंडर जारी करने वाले हुर्रियत कान्फ्रेंस के कुछ बूढ़े नेता ही बचे हुए हैं । उनके इस पाकिस्तान प्रेम के पीछे भी बहुत कुछ कारोबारी मामला ही है । पाकिस्तान शुरु से ही अपने समर्थकों को धन जन मुहैया करवाता रहा है । हुर्रियत के कैलण्डर को असली जामा पहनाने का काम पाकिस्तान द्वारा सम्पोषित अनेक आतंकवादी संगठन करवाते हैं । इन संगठनों का नेतृत्व विदेशी आतंकियों के हाथ में ही रहता है लेकिन अब कुछ संख्या में उनके साथ स्थानीय कश्मीरी युवक भी जुड़ने लगे हैं । उनमें से कुछ को योजना के तहत प्रचारित प्रसारित भी किया जाता है । उनमें नायकत्व भी बताया जाता है । लेकिन वह केवल प्रचार और स्थानीय युवकों को आकर्षित करने के लिए ढाल का काम करता है । भूमि से ऊपर और भूमि के नीचे कार्य कर रहे आतंकी संगठनों की कमान पाकिस्तानी आकाओं के पास ही रहती है । यह ठीक है कि पैसा सउदी अरब तक से भी आता है , क्योंकि कश्मीर घाटी में पूरा आतंकी संगठन मज़हबी धरातल पर काम करता है । आतंकी संगठनों की लम्बी योजना में कश्मीर घाटी की संस्कृति का अरबीकरण करना भी है । ये छद्म योजनाएँ लम्बी दूरी की होती हैं , इसलिए इनमें पैसा भी बहुत ज़्यादा दरकार होता है । कुल मिला कर आतंकी संगठनों को स्थापित कँपना , उन्हें सक्रिय रखना , हथियारों का सतत प्रवाह जारी रखना , हुर्रियत कान्फ्रेंस जैसे छद्म संगठनों का पालन पोषण करना , सांस्कृतिक अरबीकरण को क्रियान्वित करना , स्लीपर सैलों को तैयार करना और पालना, आतंकियों की मौत के बाद उनके परिवारों को आर्थिक सहायता देते रहना , सरकार पर दबाब डालने के लिए सच्चे झूठे समर्थकों को कों पर उतारना , सुरक्षा बलों पर पत्थर इत्यादि फेंकवाना , इन सभी कामों के लिए बहुत धन चाहिए । अमेरिका तक में ग़ुलाम नबी फ़ाई जैसे कितने छद्म विद्वानों को धन देना पड़ता है ताकि सैमीनारों के बहाने भारत विरोधी अभियान को जारी रखा जा सके । उन सैमीनारों में भारत से जाकर कश्मीर सम्बंधी मामलों में अपनी बहुमूल्य राय ज़ाहिर करने वाले विद्वान को हवाई टिकटों के साथ साथ वहाँ होटलों में अतिथ्य के लिए भी धन चाहिए । कश्मीर घाटी में आतंक को चलाए रखने के लिए धन का यह गोरखधन्धा भी उतना ही महत्वपूर्ण है । ज़ाहिर है इस गोरखधन्धे का धन सफ़ेद धन तो हो नहीं सकता । इसलिए आतंक का यह सारा धंधा काले धन के सहारे ही ज़िन्दा रहता है । इस काले धन के भारों को समृद्ध करने के लिए पाकिस्तान की सरकार भारत की जाली करंसी छापती रहती है । पंचतंत्र के चूहे जैसी स्थिति है । बिल के नीचे दबे सोने के कलश की उर्जा से लबरेज़ चूहा दीवार पर ऊँची खूँटी पर लटकी सत्तू की पोटली तक पहुँच जाता था । जब वह कलश निकाल लिया गया तो चूहे की कूदने की क्षमता दयनीय स्तर तक पहुँच गई । कश्मीर घाटी में आतंकियों की कूदने की क्षमता को काले धन का यह अकूत भंडार कई गुना बढ़ा देता है ।
नरेन्द्र मोदी के नोटबन्दी के निर्णय ने आतंकी संगठनों के इस काले धन के भंडारों को एक ही झटके में काग़ज़ में बदल कर रख दिया है । पाँच सौ और एक हज़ार के नोट की मान्यता रद्द कर दी गई है । अचानक पाकिस्तान से आए सभी नक़ली नोट बेकार हो गए । जब असली मिट्टी हो गए तो नक़ली की क्या विसात ? पत्थरबाज़ी तो ख़ैर रुकनी ही थी । आतंकियों की सभी प्रत्यक्ष परोक्ष गतिविधियाँ , जो दौड़ रहीं थीं , वे रेंगने की स्थिति में आ गईं ।
आतंकियों ने पिछले दिनों नई करंसी प्राप्त करने के लिए कश्मीर घाटी में कुछ बैंकों में लूटपाट की वारदातें भी की हैं । इसी से सिद्ध होता है आतंकियों की एशगाहों में धन का संकट खड़ा हो गया है । हो सकता है इस लूट को सरल बणावे में कुछ बैंकों के लोग भी शामिल हों , लेकिन इतना तो साफ़ है कि संकट काल में बचने के लिए चूहे बिलों से बाहर आने शुरु हो गए हैं । नोटबन्दी ने कष्मीरघाटी में आतंकियों को गहरी चोट पहुँचाई है , यह तो सारी कहानी का एक पक्ष है । दूसरा पक्ष है इस नोटबन्दी ने तथाकथित मुख्य धारा के राजनैतिक दलों के चेहरे से भी नक़ाब उतार दी है और उन्हें कश्मीरी जनता के सामने ही नहीं बल्कि देश के आगे भी नंगा कर दिया है ।
कश्मीर घाटी के क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के पास भी अपने काले सफ़ेद धन के भार रहते हैं । घाटी की संवेदनशील स्थिति को देखते हुए सरकार इनको क़ानून का रास्ता दिखाने से डरती रहती है । सरकार की इस मानसिकता को ये दल भी समझते हैं और मुंहमांगी क़ीमत माँगते रहते हैं । लेकिन नोटबन्दी ने उनके छिपे धनागारों को तबाह कर दिया । नैशनल कान्फ्रेंस के नाम पर अपनी राजनीति की दुकान चलाने वाले अब्दुल्ला परिवार की यही स्थिति कहीं जा सकती है । भ्रष्टाचार में संलिप्तता की अनेकों कहाणियां जंग ज़ाहिर हो जाने के कारणँ फारुक और उनके पुत्र को कश्मीर घाटी के लोगों ने सत्ताच्युत कर दिया तो उस खेमे में चिन्ता स्वभाविक थी । धनबाद से आगे फिर सत्ता में आ सकते हैं , इसकी संभावना को नोटबन्दी ने समाप्त कर दिया । पंजाबी में कहावत है, नंगा पुत्त चोरों से खेले । फारुक अब्दुल्ला नोटबन्दी के बाद हुर्रियत कान्फ्रेंस की गोद में जा बैठे ।

जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे डा० फ़ारूक़ अब्दुल्ला पिछले दिनों जम्मू कश्मीर की वर्तमान हालत को देखकर जरुरत से ज़्यादा चिन्तित हो गए हैं । अब्दुल्ला परिवार की पुरानी ख़ूबी है कि जब वह सत्ता से बाहर होता है या सत्ता से बाहर होने का ख़तरा बढ़ जाता है तो वह कश्मीर और कश्मीरियों को लेकर चिन्तित होने लगता है । शेख़ अब्दुल्ला के वक्त , वे चिन्तित होकर अमेरिका या पाकिस्तान की ओर भागते थे । अपने देशीयों हितों के मामलों में इन देशों को वे मूल्यवान दिखाई देते थे , अत उनकी क़ीमत थी । लेकिन अब मामला इक्कीसवीं शताब्दी तक पहुँच गया है और नए हालात में अब्दुल्ला परिवार का अवमूल्यन हो गया है । कम कीमत के माल को कोई बड़ा दुकानदार तो अपने शोरूम में सजाएगा नहीं । उसकी ज़रूरत तो किसी छोटे मोटे किरानी को ही हो सकती है । यही कारण है कि चिन्तित फारुक अब्दुल्ला अब हुर्रियत कान्फ्रेंस की किराना दुकान में सजने के लिए तैयार हो गए हैं । शेख़ अब्दुल्ला की राजनैतिक यात्रा मुस्लिम कान्फ्रेंस से शुरु होकर, रायशुमारी मुहाज की परिक्रमा करती हुई नैशनल कान्फ्रेंस तक पहुँची थी , उनके बेटे और पौत्र उस यात्रा को अन्ततः हुर्रियत कान्फ्रेंस तक ले आए हैं । हुर्रियत कान्फ्रेंस , पुरानी मुस्लिम कान्फ्रेंस का ही रेडीकल संस्करण कहा जा सकता है । फारुक अब्दुल्ला सीधे सीधे ही पाकिस्तान के पक्ष में नारेबाज़ी कर सकते थे लेकिन लगता है अब इस्लामाबाद में भी उन्हें कोई घास डालने वाला नहीं है , इसलिए वाया हुर्रियत कान्फ्रेंस आँख मट्टका करने का प्रयास भी कंगाली के दिनों में , परिवार का पुराना इतिहास देखते हुए बुरा नहीं कहा जा सकता । जिन दिनों दिल्ली में नेहरु परिवार का छत्र झूलता था , उन दिनों कश्मीर घाटी के लोगों से संवाद भी दलालों के माध्यम से होता था । तब अब्दुल्लाओं , बख्शियों, सादिकों और मीर कासिमों पर पराईस टैग कश्मीरी जनता नहीं लगाती थी बल्कि दिल्ली दरबार में लगता था । यही कारण था कि घाटी का ज़ीरो भी दिल्ली से हीरो होकर लौटता था और कश्मीरियों को डराता था । लेकिन अब दिल्ली में सब कुछ बदल गया है । कभी चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन गया है , इसलिए दलालों के दिन लद गए हैं । फारुक अब्दुल्ला जैसों के दिन लद गए हैं । भागते चोर की लँगोटी की तर्ज़ पर फारुक अब्दुल्ला के हुर्रियत कान्फ्रेंस के साथ हम बिस्तर होने के प्रकरण को समझा जा सकता है । क्योंकि हुर्रियत कान्फ्रेंस को भी कभी कश्मीरी जनता के दरबार में जाना नहीं होता , उसे पाकिस्तानी हथियारों को हाथ में थामे आतंकवादियों का भय दिखा कर कश्मीरी जनता को डराना होता है । कश्मीरी जनता से डरे हुए फारुक अब्दुल्ला अन्ततः हुर्रियत कान्फ्रेंस के खेमे में चले गए , यह इस परिवार की राजनीति की स्वभाविक परिंणीति है ।
फारुक अब्दुल्ला ने नैशनल कान्फ्रेंस के सभी कार्यकर्ताओं का आह्वान किया है कि वे हुर्रियत कान्फ्रेंस के समर्थन में जुट जाएं । फारुक अब्दुल्ला को अब कश्मीरियों का भविष्य घाटी की आज़ादी में ही दिखाई देता है । वे स्वयं भी अच्छी तरह जानते हैं कि यह कश्मीरियों का भविष्य नहीं है बल्कि यह उनका अपना भविष्य हो सकता है । अब्दुल्ला परिवार शेख़ अब्दुल्ला के समय से ही अपने भविष्य को कश्मीरियों का भविष्य मानने की ग़लती करते आ रहे हैं । कश्मीर घाटी की बहुत सी समस्याओं के मूल में अब्दुल्ला परिवार की यही राजनीति कहा जा सकता है । यह कश्मीर घाटी की राजनीति का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि कश्मीरी जनता से परित्यक्त लोग , आतंकियों के हम सफ़र हो जाते हैं , और उन्हें ढाल बना कर कश्मीरियों को डरा कर पुनः सत्ता में आने का प्रयास करते हैं । यही कारण है कि फारुक अब्दुल्ला अनेक बार भारतीय संविधान की क़समें खाने के बाद आज बुढ़ापे में फिर कह रहे हैं कि जम्मू कश्मीर के विलय का प्रश्न अभी भी खुला है । इतना ही नहीं फारुक अब्दुल्ला कह रहे हैं कि रियासत के जिस हिस्से पर पाकिस्तान ने क़ब्ज़ा कर रखा है वह पाकिस्तान का ही हिस्सा है । अब्दुल्ला का कहना है कि इस हिस्से को हिन्दुस्तान कभी वापिस नहीं ले सकता । उनका कहने का तरीक़ा और लहजा कुछ इस प्रकार का था मानों इस कल्पना से उन्हें बहुत आनन्द आ रहा हो । भाषा व्यंग्य की थी कि आप अपने आप को जितना चाहो ताक़तवर समझते रहो आप उनसे जम्मू कश्मीर का अनधिकृत हिस्सा छुड़ा नहीं सकते । लेकिन मुख्य प्रश्न केवल इतना ही है कि क्या फारुक अब्दुल्ला जब बोल रहे थे तो क्या वे सचमुच कश्मीर घाटी के लोगों के मन की बात कर रहे थे ? यदि अब्दुल्ला सचमुच कश्मीरियों के मन का प्रतिनिधित्व कर रहे होते तो शायद उन्हें हुर्रियत के मानस का प्रतिनिधित्व करने की जरुरत ही नहीं पडती । यह कश्मीर का दुर्भाग्य है कि जब कोई नेता कश्मीरी समाज से कट जाता है और वहाँ अप्रासांगिक हो जाता है तो चोर दरबाजे से सत्ता पाने के लिए या तो वह दिल्ली दरबार की ओर भागता है या फिर हुर्रियत कान्फ्रेंस की गोद में जा बैठता है । फारुक अब्दुल्ला का वर्तमान व्यवहार इसी का प्रतीक है । नोटबन्दी ने एक साथ गिलान के गिलानी को और सौरा के अब्दुल्ला को धर दबोचा । आमीन ।

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