कसौटी पर है खाद्यान्न की कमी

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इंसान तभी तक जिंदा रह सकता है, जब तक उसका पेट भरा रहे। कहा भी गया है ॔भूखे पेट कोई भजन नहीं कर सकता है’। बावजूद इसके आज भी भारत में कृषि का क्षेत्र सबसे उपेक्षित है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महंगाई देश की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। सरकार भी इस वस्तुस्थिति को स्वीकार करती है। फिर भी वह मर्ज का इलाज नहीं कर रही है।

सच तो यह है कि महंगाई पर नियंत्रण मूलतः खाद्यान्न का उत्पादन ब़ाकर ही किया जा सकता है। पर सरकार को अभी भी लग रहा है कि कृषि क्षेत्र में 5.4 फीसदी की दर से इजाफा होगा। इतना ही नहीं वह 201011 में इसका जीडीपी में योगदान 14.2 फीसदी रहने का अनुमान लगा रही है। जबकि इसके प्रतिकूल प्रति व्यक्ति खाद्यान्न के उपयोग में कमी आ रही है। भूखमरी व कुपोषण से मरने वालों की संख्या दिन प्रति दिन ब़ती ही जा रही है। तब भी सरकार का व्यवहार शुतूरमूर्ग की तरह का है। हकीकत को जानकर भी वह अनजान बनने का नाटक कर रही है।

हम जानते हैं कि जमीन का रकबा कभी नहीं बता है। हमेशा खाद्य फसलों का उत्पादन जमीन के अनुपात में होता है। लेकिन तकनीक की मदद से हम खाद्य फसलों, बागवनी, पशुधन, मछली पालन, डेयरी इत्यादि के उत्पादन में जरुर वृद्धि कर सकते हैं।

साठ के दशक में भी हमने ॔हरित क्रांति’ की मदद से खाद्यान्न फसलों के उत्पादन को बाने में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी। मूलतः यह क्रांति उन्नत बीज और कृषि के अत्याधुनिक उपकरणों तथा तकनीक की सहायता से लाई गई थी। इस क्रांति के पश्चात हम खाद्य फसलों के बाबत काफी हद तक आत्मनिर्भर हो गये थे।

गौरतलब है कि इंसानों की आबादी ब़ाने के लिए किसी उन्नत तकनीक की जरुरत नहीं पड़ती है और न ही किसी मशीनी उपकरण की। दरअसल भारतीय अपनी जनसंख्या ब़ाने के मामले में बेहद ही उदार हैं।

जिस रफ्तार से भारत की आबादी ब़ रही है, जल्द ही हम चीन को पछाड़ कर आबादी के दृष्टिकोण से विश्व में प्रथम स्थान हासिल कर लेंगे।

जाहिर है आबादी के दबाव के कारण धीरेधीरे हमारे देश में खाद्य सुरक्षा की संकल्पना खतरे में पड़ चुकी है। मांग और आपूर्ति के बीच तालमेल के अभाव में विगत सालों में हमारे देश में महंगाई उफान पर रहा है। वैसे आयात और निर्यात के बीच असंतुलन को भी इसका एक बहुत बड़ा कारण माना जा सकता है।

सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की हर तरह की मौद्रिक कवायद, किसानों की हाड़तोड़ मेहनत एवं बेहतर मानसून भी फिलवक्त महंगाई को काबू नहीं कर पा रहा है। लगता है साल 2011 भी महंगाई की चपेट से बाहर निकल नहीं पाएगा। सरकार की स्वीकारोक्ति भी इस तथ्य पर मुहर लगाती है।

जनवितरण प्रणाली के तहत सरकारी राशन वितरण केन्द्रों से मूलभूत खाद्य पदार्थों मसलन, गेहूं, चावल, दाल इत्यादि का गरीब लोगों के बीच वितरण नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में उल्लेखनीय है कि अगर प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू किया जाता है तो हमें कमसे-कम गेहूं और चावल के उत्पादन को दोगुना करना पड़ेगा।

दूध की मांग और आपूर्ति में भी तालमेल आहिस्ताआहिस्ता छीज रहा है। सूत्रों के मुताबिक अगर जल्दी से हालत पर काबू नहीं पाया गया तो भारत 2022 तक दूध के आयातक देशों में शामिल हो जाएगा।

ज्ञातव्य है कि भारतीय कृषि क्षेत्र में 1960 के बाद से तकनीक के क्षेत्र में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आया है। आज की तारीख में तकरीबन सभी खाद्य पदार्थों की मांग ज्यादा है, जबकि आपूर्ति कम है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए भारत में दूसरी हरित क्रांति की जरुरत को महसूस किया जा रहा है।

धीरेधीरे खाद्य उत्पादन और प्रति हेक्टेयर उपज में कमी आ रही है और इस कमी को पूरा करने के लिए किसान प्रति हेक्टेयर खाद का उपयोग ब़ा रहे हैं, परन्तु इससे न तो उत्पादन ब़ रहा है और न ही यह हमारे स्वास्थ के लिए फायदेमंद है।

घ्यातव्य है कि पहली हरित क्रांति में गेहूं का उत्पादन ब़ाने के लिए विशोष प्रयास किया गया था। किन्तु पोषण से युक्त फसलों यथा दाल, फल व सब्जी का उत्पादन ब़ाने पर घ्यान नहीं दिया गया था। पशुपालन, मछली पालन एवं डेयरी उत्पादन जैसे खाद्य पदार्थ भी उपेक्षित रह गये थे।

भारत में अन्य उद्योगों की तुलना में कृषि सबसे उपेक्षित है। न तो सरकार और न ही कोई औद्योगिक घराना कृषि क्षेत्र में निवेश करना चाहता है। इस में दो मत नहीं है कि इस क्षेत्र में पहले से ज्यादा निवेश हुए हैं, लेकिन वे प्रर्याप्त नहीं हैं।

सिंचित क्षेत्र का दायरा अभी भी बहुत कम है। मार्केटिंग की व्यवस्था संतोषजनक नहीं है। सरकारी व निजी क्षेत्र के बीच अभी भी तालमेल का भारी अभाव है। गाँव आज भी अपने निकटम तहसील, ब्लॉक या शहर से सड़क मार्ग से जुड़े हुए नहीं हैं। गाँव के निकट मंडियों की भारी किल्लत है। न पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोर है और न ही अनाजों के प्रोसेंसिंग की व्यवस्था है।

हर क्षेत्र में सर्वदा सुधार की गुजाइंश रहती है। कृषि क्षेत्र भी इतर नहीं है। खाद्य पदार्थों का उत्पादन अभी भी ब़ सकता है। बशर्ते कृषि क्षेत्र में सुधार किया जाए या फिर दूसरी हरित क्रांति को फिर से अमलीजामा पहनाया जाए। फसलों के उत्पादन में विविधता लाने या मिश्रित खेती करने से भी स्थिति में कुछ हद तक सुधार लाया जा सकता है।

इसके बरक्स कृषि फसलों को बीमा के जद में लाकर काफी हद तक नुकसान पर काबू पाया जा सकता है। इससे किसानों का मनोबल ब़ेगा और वे दूगने उत्साह से अपना काम करेंगे। जिसका कृषि के उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

सिर्फ 9 फीसदी विकास का दंभ भरकर विकास नहीं किया जा सकता है। आंकड़ों से विकास नहीं होता है। विकास और सुधार दोनों मेहनत से की जाती है।

लब्बोलुबाव के रुप में कहा जा सकता है कि जिस तेजी से भारत की आबादी ब़ रही है, उस अनुपात में खाद्य पदार्थों के उत्पादन में ब़ोत्तरी नहीं हो पा रही है।

मानसून पर भरोसा करके हम मांगआपूर्ति में तालमेल नहीं बैठा सकते हैं। यह काम कृषि क्षेत्र में सुधार लाकर ही किया जा सकता है। सरकारी खोखले वायदों से तो ऐसा कदापि नहीं हो सकता है।

निष्कर्षतः कृषि क्षेत्र में मजबूती लाकर महंगाई और भूखमरी पर अवश्य काबू पाया जा सकता है। इंसानों की बेलगाम आबादी पर नियंत्रण करके भी हम ऐसा कर सकते हैं। यदि हम अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण करते हैं तो अन्यान्य बहुत सारी समस्याओं का समाधान स्वतःस्फूर्त तरीके से खुद व खुद हो जाएगा।

 सतीश सिंह

 लेखक परिचयः

श्री सतीश सिंह वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक में एक अधिकारी के रुप में दिल्ली में कार्यरत हैं और विगत दो वर्षों से स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान से हिन्दी पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद 1995 से जून 2000 तक मुख्यधारा की पत्रकारिता में इनकी सकि्रय भागीदारी रही है। श्री सिंह से ेंजपेी5249/हउंपसण्बवउ या मोबाईल संख्या 09650182778 के जरिये संपर्क किया जा सकता है।

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