प्रमाणित करता हूं कि मैं आम आदमी हूं…!

-तारकेश कुमार ओझा-

vyangya
कहते हैं गंगा कभी अपने पास कुछ नहीं रखती। जो कुछ भी उसे अर्पण किया जाता है वह उसे वापस कर देती है। राजनीति भी शायद एसी ही गंगा हो चुकी है। सत्ता में रहते हुए राजनेता इसमें जो कुछ  प्रवाहित करते हैं कालचक्र उसे वह उसी रूप  में वापस कर देता है। हाल में इसकी बानगी पश्चिम बंगाल में देखने को मिली। जब लंबे समय तक सत्ता में रह चुके एक पूर्व मंत्री को आखिरकार उसी महकमे के दफ्तर के सामने देर तक बैठे रहना पड़ा, जिसके वे लंबे समय तक मंत्री रह चुके थे। दरअसल समय के फेर ने इस राजनेता को सत्ता से बेदखल कर दिया। मंत्रीपद तो गया ही, जनाब विधानसभा का चुनाव भी हार गए। लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में श्रीमान को अपने  शहर का मेयर बनने का मौका जरूर मिल गया। लिहाजा अपने शहर के विकास की चर्चा के लिए जनाब शहरी विकास मंत्री से मिलने राजधानी चले गए। लेकिन समय का फेर देखिए कि मंत्री महोदय ने समय देकर भी उनसे मुलाकात नहीं की। यही नहीं, उन्हें उसी दफ्तर के बाहर आम – मुलाकाती की तरह बैठा कर रखा गया, जिसके वे खुद लंबे समय तक मंत्री  रह चुके थे। कहते हैं इससे खिन्न होकर भुक्तभोगी राजनेता पंचायत मंत्री से मुलाकात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने भी टरका दिया। एक राजनेता के लिए इससे बड़ी सजा और क्या हो सकती है कि उसे आम – आदमी की कतार में खड़े कर दिया जाए। इस घटना से यह भी सवाल उठता है कि एक राजनेता को ही यदि किसी मंत्री से  मिलने में इतनी परेशानी पेश आती है तो आम – आदमी की स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। भुक्तभोगी भली भांति जानते हैं कि किस तरह प्रदेश की राजधानियों में मंत्री की कौन कहे एक सामान्य अर्दली के भी मंत्री जैसे ठाठ होते हैं। मिलना या मुलाकात तो दूर किसी महकमे के दफ्तर जाने पर सुरक्षा गार्ड मुलाकाती से इस तरह पूछताछ करते हैं मानो वह कोई आतंकवादी हो। एक तरह से मुलाकाती को यह प्रमाणित करना पड़ता है कि वह एक आम – आदमी है कोई आतंकवादी नहीं। किसी तरह दफ्तर में घुस भी गए तो अधिकारी हर सवाल का जवाब हां या ना में देकर पिंड छुड़ा लेते हैं। अधिकारियों को तो जनता की अदालत में खड़े नहीं होना पड़ता, लेकिन राजनेताओं को यह अग्नि परीक्षा बार – बार देनी पड़ती है। लिहाजा किसी सभा – समारोह में यदि किसी मंत्री को कोई समस्या बताई और उन्होंने अनुशंसा कर भी दी तो संबंधित अधिकारी तक अनुशंसा पत्र  पहुंचाने में आम – आदमी की चप्पलें घिसती रहती है। ऐसे में उस राजनेता की पीड़ा को आसानी से समझा जा सकता है जो खुद लंबे समय तक बड़ी ठसक के साथ एक महकमे का मंत्री रहा, लेकिन भाग्य के फेर ने उसे उसी दफ्तर के मुलाकातियों के बेंच पर बिठा दिया। तो क्या इसी वजह से राजनेता हर समय सशंकित और भयाक्रांत रहते हैं। राजधानी में रहने वाले बड़े राजनेताओं की तो बात ही छोड़िए , गांव – कस्बों के सामान्य जनप्रतिनिधियों को इस असुरक्षा भाव से हर समय घिरा पाया जाता है कि कहीं उनका पद चला न जाए। सत्ता की डाल से बिछुड़ चुके राजनेता तो हर समय लगभग रूआंसे नजर आते हैं। परिजन भी इस दौरान सदैव इस आशंका से घिरे रहते हैं कि अवसाद की मनः स्थिति में श्रीमान कहीं रोग शैय्या पर न पड़ जाएं या फिर दुनिया से ही विदा न हो जाएं।  कुरदने पर स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जिस तरह मछली पानी के बगैर नहीं रह सकती है उसी तरह हम राजनीतिक जीव बगैर पद – अधिकार के जीवित नहीं रह सकते । यह भी सोचने वाली बात है कि यदि एक बेहद ताकतवर राजनेता के सामने ऐसी परिस्थिति आ सकती है कि उसे उसी महकमे के बाहर बेंच पर बैठना पड़े, जिसका वह दशकों तक मंत्री रहा तो छोटे – मोटे जनप्रतिनिधियों की सत्ता से हटने के बाद क्या हालत होती होगी। देश में जब तरह – तरह से आरक्षण की मांग हो ही रही है तो एक आरक्षण यह भी होना चाहिए कि सत्ता से बेदखल किये जा चुके राजनेताओं के साथ कम से कम ऐसा व्यवहार नहीं होना हो। जरूरी हो तो इसके लिए कानूम में संशोधन या नई आचार संहिता भी बनाई जा सकती है।

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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