फौजी साये में थाईलैंड

-अंकुर विजयवर्गीय-
thailand army

‘शांति और व्यवस्था’ बहाल करने के नाम पर थाईलैंड की सेना ने राजनीतिक रूप से अशांत देश में मार्शल-लॉ लगा दिया है। निराशाजनक घटनाक्रमों की श्रृंखला में यह सबसे ताजा घटना है, जिससे देश का लोकतंत्र व उसकी अर्थव्यवस्था, दोनों ही खोखले होंगे। वैसे थाई सेना के कमांडर जनरल चानओचा ने जोर डालकर कहा कि उनका यह कदम तख्तापलट नहीं है। लेकिन जो कुछ हुआ है, उसे तख्तापलट के सिवाय शायद ही कुछ और कहा जाएगा। अपने कदम को न्यायोचित ठहराने के लिए जनरल ने 1914 के उस कानून का हवाला दिया, जो सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सेना को ‘नागरिक शासन के मुकाबले सर्वोच्च सत्ता’ की अनुमति देता है।

थाईलैंड में सत्ता की बागडोर संभाल चुके सैन्य शासन की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सुधार लाने की घोषणा से स्पष्ट संकेत है कि बैंकाक में इस बार का फौजी शासन इतिहास में सर्वाधिक लंबा होगा। सेना प्रमुख जनरल प्रयुत चानओचा ने 12वां तख्तापलट करके स्वयं को देश का नया प्रधानमंत्री घोषित करके अपने छह विश्वास पात्र शीर्ष अधिकारियों को सरकार चलाने का दायित्व सौंप चुकें हैं। सरकार पर सिर्फ नियंत्रण की बात करने वाले 60 वर्षीय जनरल प्रांतीय सरकारों की बागडोर अपने कमांडरों के हवाले कर चुके हैं। पिछली सरकार के सभी मंत्रियों को हिरासत में लिया जा चुका है और प्रशासन को सैन्य शासन की मदद करने का आदेश दिया गया है। जनरल ने देश में आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सुधार लाकर ही संसदीय चुनाव कराने की बात कही है।

सुधारों की इस लंबी प्रक्रिया की घोषणा करने से पहले वह प्रधानमंत्री मिंगलिक शिनावात्रा को हिरासत में ले चुके हैं। सभी मंत्रियों को सैन्य मुख्यालय में रहने को कहा गया है, पांच से अधिक लोगों को एक जगह पर बैठक करने अथवा सार्वजनिक स्थल पर खडा होने पर प्रतिबंध लगाया गया है। सैकडों लोगों को इस अवज्ञा के कारण जेलों में ठूंसा जा चुका है। मीडिया पर नियंत्रण लगाया जा चुका है और रात 10 बजे से सुबह पांच बजे तक शहरों में कर्फ्यू लगाया गया है। देश के 155 प्रमुख राजनेताओं के विदेश जाने पर रोक लग गई है।

जनरल चानओचा का कहना है कि पिछले छह माह से जारी राजनीतिक आंदोलन के कारण देश को हुए नुकसान को देखते हुए सत्ता पर सैन्य नियंत्रण हुआ है। उनका कहना है कि सरकार आंदोलन नहीं रोक पा रही थी और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही थी, जिससे जानमाल का बड़े स्तर पर नुकसान हो रहा था और सेना ने इन्हीं विपरीत स्थितियों से बचाने के लिए यह कदम उठाया है। कमाल यह है कि दुनियाभर के प्रमुख देशों की हिदायत के बाद भी जनरल ने सत्ता का मोह नहीं छोड़ा। अमेरिका ने तख्तापलट पर सख्त रुख अपनाया है और थाईलैंड के साथ 10 अरब की सैन्य सहायता के समझौते पर पुनर्विचार करने की बात कही है। ऑस्ट्रेलिया के पर्यटकों की मनपसंद जगह पर सैन्य शासन लगाने को ऑस्ट्रेलिया सरकार ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया और अपने नागरिकों को स्थिति सामान्य नहीं होने तक थाईलैंड नहीं जाने की हिदायत दी है। इसी तरह से जापान और फ्रांस ने भी तख्तापलट की आलोचना की और जनरल से लोगों की स्वतंत्रता का सम्मान करने को कहा है।

थाईलैंड अब तक 12 बार तख्तापलट का गवाह बन गया है। वहां सबसे पहले 1932 में तख्तापलट हुआ। इस तख्तापलट में कोई खून खराबा नहीं हुआ। उससे थाईलैंड के सात शताब्दियों से जारी राजशाही खत्म हुई। वर्ष 2000 तक देश में 10 बार तख्तापलट की घटनाएं हुईं और ज्यादातर घटनाएं जन आंदोलनों के कारण उपजी कुव्यवस्था को रोकने के बहाने की गई। थाईलैंड में तख्तापलट की आखिरी घटना सितम्बर 2006 में हुई। उस समय देश में सैन्य शासन करीब 16 माह तक चला। राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि इस बार राजनीतिक जोखिम ज्यादा बड़ा है और सैन्य शासक भी सुधारों की लम्बी प्रक्रिया का लक्ष्य हासिल करने की बात कह रहे हैं। इसलिए बहुत संभव है कि इस बार थाईलैंड को ज्यादा लंबे समय तक फौजी शासन में रहना पड़े।

इस बार के सैन्य शासन में देश की अर्थव्यवस्था को ज्यादा नुकसान पहुंचने की संभावना जताई जा रही है। पर्यटन पर ज्यादा निर्भर रहने वाली अर्थव्यवस्था के कई प्रमुख देशों के अपने नागरिकों को थाईलैंड नहीं जाने की हिदायत के कारण चरमराने की संभावना बन गई है। हालांकि विश्लेषक कहते हैं कि इस तरह की चेतावनी हर बार दी जाती है। पिछली बार भी यही हुआ था। लेकिन तब सैन्य शासन से देश की आर्थिक विकास दर प्रभावित नहीं हुई थी। जानकारों के मुताबिक थाईलैंड में अब तक तख्तापलट की छोटी बड़ी कुल 19 घटनाएं हुई हैं। सात घटनाओं में कई बार सैन्य शासन के दौरान हुए आंतरिक फेरबदल को भी शामिल किया गया है, लेकिन देश में सिर्फ 12 बार ही सैन्य तख्तापलट की घटनाएं हुई हैं, जिनमें सर्वाधिक 1950 से 1980 के बीच छह बार हुई।

जनरल कहते हैं कि वह सरकार समर्थक और सरकार विरोधी ताकतों के बीच की हिंसक झड़पों से थाईलैंड को बचाना चाहते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वह प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक ताकतों के बीच ‘देश की खातिर त्वरित व स्थायी समाधान चाहते हैं।’ लेकिन जनरल ने यह नहीं बताया कि वह इस सियासी समझौते तक कैसे पहुंचेंगे, या कब वह एक चुनी हुई सरकार के हाथों में देश की सत्ता सौंपेंगे?

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अंकुर विजयवर्गीय
टाइम्स ऑफ इंडिया से रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता की विधिवत शुरुआत। वहां से दूरदर्शन पहुंचे ओर उसके बाद जी न्यूज और जी नेटवर्क के क्षेत्रीय चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ के भोपाल संवाददाता के तौर पर कार्य। इसी बीच होशंगाबाद के पास बांद्राभान में नर्मदा बचाओ आंदोलन में मेधा पाटकर के साथ कुछ समय तक काम किया। दिल्ली और अखबार का प्रेम एक बार फिर से दिल्ली ले आया। फिर पांच साल हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम किया। अपने जुदा अंदाज की रिपोर्टिंग के चलते भोपाल और दिल्ली के राजनीतिक हलकों में खास पहचान। लिखने का शौक पत्रकारिता में ले आया और अब पत्रकारिता में इस लिखने के शौक को जिंदा रखे हुए है। साहित्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं, लेकिन फिर भी साहित्य और खास तौर पर हिन्दी सहित्य को युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाने की उत्कट इच्छा। पत्रकार एवं संस्कृतिकर्मी संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक “कुछ तो लोग कहेंगे” का संपादन। विभिन्न सामाजिक संगठनों से संबंद्वता। संप्रति – सहायक संपादक (डिजिटल), दिल्ली प्रेस समूह, ई-3, रानी झांसी मार्ग, झंडेवालान एस्टेट, नई दिल्ली-110055

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