धन्यवाद को धन्यवाद

– हृदयनारायण दीक्षित

प्रकृति रहस्यपूर्ण है। मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है। मनुष्य और भी रहस्यपूर्ण है। प्रकृति की गतिविधि में अनंत प्रपंच हैं। हम अपनी 5 इंद्रियों के जरिए संसार से जुड़ते हैं। पांचों इंद्रियों से प्राप्त संकेतों का साझा बोध ही हमारी बुद्धि है। बुद्धि की सीमा है। इंद्रिय बोध ही एकमेव सहारा है। भारतीय दर्शन ने अनुभूति के क्षेत्र में इन्द्रिय बोध की क्षमता को बार-बार छोटा बताया है। ‘अस्तित्व’ विराट है। दृश्य जगत् दिक् काल के भीतर है लेकिन अस्तित्व दिक्काल-टाइम स्पेस के बाहर भी है। अस्तित्व हमारे भीतर है, बाहर भी है, वह पृथ्वी पर है, पृथ्वी के नीचे भी है। आकाश में है, आकाश के परे भी है। वह काल में है, काल के परे भी है। वह सभी दिशाओं में है, दिशाओं से आगे भी है। अस्तित्व के रहस्य अज्ञेय हैं। वह स्वयं ही अपनी तरफ से प्रकट होकर अनुभूति के क्षेत्र में आता है, हमारी अनुभूति उसका स्पर्श करती है। हृदय स्पंदन से उसकी गति जुड़ती है, अघट घट जाता है। वाणी काम नहीं करती। वह हमारी योजना का भाग नहीं होता। अस्तित्व की अनुभूति हमारे कर्मफल का ही भाग नहीं होती। ऐसी अनुभूति हमारा दावा नहीं होती। हमारे परिश्रम का प्रतिफल भी नहीं होती। कह सकते हैं कि किसी अदृश्य की अहैतुक अनुकंपा होती है यह। तार्किक अपनी चलाते हैं। तर्क में रस नहीं होता। दर्शनशास्त्र में तर्क की ही यात्रा है। भारतीय दर्शन तर्क की महत्ता को एक सीमा तक ही स्वीकार करता है आगे तर्क की ताकत ढेर हो जाती है।

कोई भी विचार संपूर्ण नहीं होता। प्रत्येक विचार एक वाद होता है, सो हरेक वाद का प्रतिवाद भी होता है। हीगल के दर्शन में वाद-प्रतिवाद की खूबसूरत व्याख्या है। वे बताते हैं कि वाद और प्रतिवाद (थीसिस और एन्टीथीसिस) अंततः मिल जाते हैं और संवाद (सिन्थेसिस) बन जाते हैं। हीगल के अनुसार, वाद और प्रतिवाद से मिलकर बना संवाद भी आगे चलकर वाद बन जाता है, इसका भी प्रतिवाद होता है। वाद, प्रतिवाद और संवाद की कार्यवाही लगातार चलती है। हीगल का वाद, प्रतिवाद और संवाद कोई ‘समग्र दर्शन’ नहीं बनते। मार्क्सवाद ऐसा ही है। यह पूंजीवाद का प्रतिवाद है। मार्क्सवादियों के अनुसार, सामंतवाद आदिम साम्यवाद का प्रतिवाद है। उनकी मानें तो समूची प्रकृति में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है। भारतीय राजनीति में ढेर सारे वाद-प्रतिवाद हैं। इस तरह पूंजीवाद, समाजवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि का संवाद राष्ट्रवाद है लेकिन भारतीय अनुभूति का ‘धन्यवाद’ बड़ा दिलचस्प वाद है। धन्यवाद का जन्म किसी वाद की प्रतिक्रिया से नहीं हुआ। ‘धन्यवाद’ अंतः क्षेत्रीय है। यहां किसी बौद्धिक कार्रवाई की गुंजाइश नही होती। अस्तित्व अपना मूल प्रकट करता है। अनुभूति उसका आलिंगन करती है। एक दीप्ति उगती है। हृदय ‘धन्य-भाव’ से भर जाता है। बुद्धि धन्यभाव को शब्द देती है और इसे ‘धन्यवाद’ कहती है। ‘धन्यवाद’ अंग्रेजी के थैंक्यू का अनुवाद नहीं है। अनुवाद भी दरअसल अनु-वाद अर्थात् एक वाद ही है। धन्यवाद अस्तित्व के प्रति एक आनंदमगन उमंग है। इस्लामी परंपरा का ‘हाजामिन फजले रब्बी’ – (सब कुछ अल्लाह का ही दिया हुआ) धन्यवाद का पड़ोसी है। ‘हाजामिन फजले रब्बी’ में खूबसूरत ईश-आस्था है। लेकिन धन्यवाद में आस्था की कोई जरूरत नहीं। यहां धन्यवाद के पहले ही अस्तित्व अपने मूल विराट को खोल चुका है। धन्यवाद देखे, जांचे-परखे अनुभूत तत्व के प्रति मस्त अकिंचन होने की ‘सुगंधिम्-पुष्टिवर्ध्दनम्’-अनुभूति है। धन्यवाद की अनुभूति इस नियमित स्तंभ लेखक की अपनी जांची भावना है। यहां उधार के तथ्यों की कोई आवश्यकता नहीं है। तुलसीदास ने भी सब कुछ जांचा था। फिर ‘मूक होंहि वाचाल’ जैसी असंभव को संभव बनाने वाली शक्ति के गीत गाये। धन्यवाद अस्तित्व के प्रति अंगीभूत अनुभूति है।

धन्यवाद को धन्यवाद। वरना विराट के प्रति अहोभाव की अनुभूति व्यक्त करने के लिए हम क्या करते? हम मीरा नहीं हैं, वरना पग घुंघुरू बांध नाच उठते। हम संपूर्ण चेतना से जागृत महाप्रभु चैतन्य के निकट भी नहीं हैं, वरना गीत गाते अस्तित्व में घुलनशील हो जाते। हम ठहरे सीधे-साधे विद्यार्थी। महत्वाकांक्षी राजनीतिक कार्र्यकत्ता। तमाम प्रेषणाएं, राग, द्वेष से भरे पूरे बुढ़ापे के शरीर को जवानी की तरह इस्तेमाल करने वाले आसक्त प्राणी। हम सब दिक्-काल के भीतर हैं। लोग कहते हैं, समय चलता है। ऋग्वेद (1.164.11) के ऋषि कहते हैं सूर्य का चक्र द्युलोक के चारों ओर घूमता है लेकिन जीर्ण नहीं होता। काल कभी बूढ़ा नहीं होता। उसे काहे की चिंता? किसकी और कैसी फिक्र? वह सदा तरुण है। जो जन्म लेते हैं, वे तरुण होते हैं, बुढ़ाते भी हैं लेकिन ऋग्वेद के ऋषियों की देखी ऊषा बार-बार जन्म लेती है। वह पुरानी है, फिर भी प्रतिदिन नई है, अति सुंदर है। निराशा, हताशा, हर्ष, विषाद, अवसाद और बुढ़ापा आदि की भावनाए, मनुष्य जीवन का हिस्सा हैं। देवता इनसे मुक्त हैं। संवत्सर सबको बूढ़ा करता है लेकिन देवता बूढ़े नहीं होते। ऋग्वेद (6.24.7) के इंद्र को संवत्सर या महीने भी क्षीण नहीं कर सकते। कभी जीर्ण न होना देवों का विशेषाधिकार है लेकिन अस्तित्व की सर्वशक्तिमान अनुभूति में घन्यवाद भाव से भर जाने का विशेषाधिकार सिर्फ मनुष्यों को ही मिलता है। भारतीय अनुभूति ने प्रकृति की शक्तियों को सदा नूतन, पुरातन और चिरंतन ही पाया है। वैदिक मंत्र इसी उल्लास धर्मा आनंदमगन चित्त का काव्य अतिरेक हैं। अस्तित्व नित्य नूतन है। प्रकृति उसकी अभिव्यक्ति है। इस अभिव्यक्ति के अनंत रूप हैं। मनुष्य ने अनंत रूपों के सहस्रों नाम रखे हैं लेकिन सारे नाम सिर्फ संज्ञा है। सबका सर्वनाम एक है। ऋग्वेद में ढेर सारे देवता हैं। मरूत् हमेशा बहुवचन-मरूद्गण रूप में स्तुति पाते हैं। अश्विनी देव युगुल हैं। वरुण शासक जैसे हैं। अग्निदेव सृष्टि की पुनर्नवा ऊर्जा हैं। सविता-सूर्य वरेण्य हैं। जल माताएं हैं, बहुवचन रूप में स्तुति पाती हैं। सोम पर ऋग्वेद में एक पूरा मंडल (9) है। सोम रस द्रव्य है। लेकिन यही सोम देव भी है। वैदिक काल के सभी देवता प्रकृति की शक्त्यिां हैं। सब अलग-अलग हैं, लेकिन सब एक ही परम सत्ता के विविध रूप हैं। ऋग्वेद के विश्वविख्यात् मन्त्र (1.164.46) में कहते हैं इन्द्र, वरुण, अग्नि, गरुण आदि अनेक देव हैं लेकिन सत्य एक है, विद्वान उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं – ‘एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।’ वैदिक दर्शन में बेशक बहुदेववाद है लेकिन निष्कर्षतः एक ही परमसत्ता पर जोर है। ऋग्वेद में सविता देव-सूर्य पर खूबसूरत मंत्र है – सविता सामने है, सविता पीछे है, सविता ही दायें-बाएं हैं। अग्नि की स्तुति है, हे अग्नि तुम इंद्र हो, विष्णु हो, ब्रह्मणस्पति हो, मित्र हो अर्यमा हो। (2.13.4) फिर कहा कि हे अग्नि आप ही ऊपर हो, आप ही नीचे भी हो। (10.88.14) उपनिषदों में कहते हैं ब्रह्म आगे है, पीछे है, दाएं, बाएं है वही भीतर है, वही बाहर है। अदिति के लिए कहते है अदिति आकाश है, अंतरिक्ष है, माता हैं, पिता हैं, पुत्र है। सभी देव अदिति हैं, जो कुछ अब तक हुआ और जो आगे होगा वह सब अदिति है। (1.89.10) पुरुष सूक्त में भी कहते हैं पुरुष एवेदें सर्वं, यद् भूतं, भव्यं च – यह सब पुरुष ही हैं, जो भूतकाल में हुआ और जो भविष्य में होगा सब वही है। समूचा वैदिक काव्य ‘धन्यवाद’ भाव का सृजन है। गीता बाद की है। अर्जुन ने विश्व रूप देखा। चित्त धन्यवाद भाव से उफना गया। गीत फूटा हे केशव! तू वायु है, तू यम है, अग्नि वरुण है, चन्द्र है। तुझे नमस्कार है सामने से नमस्कार है, पीछे से नमस्कार। सब तरफ से नमस्कार है – ‘नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्वं।’ आप सब मित्रों, वरिष्ठों, कनिष्‍ठों और प्रकृति की शक्तियों, देवों सभी आस्थाओं के प्रति इस लेखक का ऐसा ही प्रणाम! सब तरफ से। अंतरंग से, बहिरंग से, भाव से, बुद्धि से और काया से भी।

* लेखक उत्तर प्रदेश में मंत्री रह चुके हैं।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here