डॉ. मयंक चतुर्वेदी
स्वास्थ्य किसी भी देश के लिए उसकी रीढ़ की हड्डी से कम नहीं। स्वस्थ शरीर देश के विकास में हर संभव योगदान देने का आधार है, यदि यह भी कहा जाए तो कुछ गलत न होगा। दुनिया के तमाम देशों ने अपने यहां की आवाम के लिए जिन बुनियादी सुविधाओं पर ध्यान दिया है, उसमें सबसे ऊपरी पायदान पर चिकित्सा क्षेत्र है। विकसित देशों ने पहले ही इसे समझ लिया था, अब विकासशील और अन्य देश भी इसे लेकर बेहद गंभीर नजर आते हैं। इसके बावजूद कहना होगा कि महंगी चिकित्सा का लाभ बिना किसी सरकारी सहायता से ले पाना वर्तमान में भी किसी चुनौती से कम नहीं है।
जिस पर कि सरकारी संस्थानों की अपनी मर्यादा और व्यवस्थाएं हैं, भारत जैसे विशाल आबादी वाले देशों में तो यह कतई संभव नहीं कि शासकीय स्तर पर सीमित संसाधनों के भरोसे सभी को उत्तम कोटि की स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जा सके। ऐसे में यह सघन जनसंख्या की मजबूरी ही कहिए कि उसे स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए निजी स्तर पर निर्भर रहना ही पड़ेगा।
इस परिस्थिति में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम चिकित्सा उपकरण और दवाओं के मामले में जितनी जल्दी विदेशों पर अपनी निर्भरता समाप्त कर सके, उतना अच्छा है। इस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदम की जितनी तारीफ की जाए उतनी ही कम होगी, लेकिन इसके साथ यह भी जरूरी हो गया है कि ऐसे तमाम प्रयोग केंद्र के साथ राज्य सरकारों को तेजी के साथ करने होंगे।
वस्तुत: भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने देश में कम लागत में आधुनिक एमआरआई स्कैनर तैयार करने का जिम्मा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मंडी को सौंपा है, जिसके अभिनव प्रयोगों की सफलता के बाद चिकित्सा संस्थानों को आगे मैगनेटिक रेजोनेंस इमेजिग (एमआरआई) मशीन एवं उससे संबंधित कंप्यूटर एडेड डिजाइन (सीएडी) सिस्टम महंगी दर पर नहीं खरीदना पड़ेंगे। अभी होता यह है कि चिकित्सा संस्थानों को विदेश में निर्मित एमआरआई मशीन खरीदने के लिए 3 से 5 करोड़ रुपये तक खर्च करने पड़ रहे हैं। लेकिन निकट भविष्य में भारत अपने दम पर कम लागत से आधुनिक स्कैनर तैयार करने में कामयाब हो जाएगा। साथ में इन कम लागत वाले स्कैनर में चुंबकीय क्षमता भी कमतर रखी जा रही है, जिससे कि एमआरआई के दौरान शरीर पर पडऩे वाला दुष्प्रभाव भी कम हो सके। निश्चित ही एमआरआई में इस पहल के लिए आज केंद्र सरकार को जितना धन्यवाद दिया जाए, उतना ही कम है।
अभी जो विदेश से एमआरआई मशीन के कुछ पार्ट मंगवा कर यहां मशीन तैयार की जाती है। इससे भी मशीन की कीमत बढ़ती है। लेकिन जब यह मशीन पूरी तरह देश में तैयार होने लगेगी तो खर्च घटकर आधा और इससे भी कम रह जाएगा, जिसके कारण जो अभी एक बार एमआरआई कराने में मरीज का खर्च कम से कम एक स्थान का आवश्यकतानुसार 3 हजार से 15 हजार रुपए तक होता है वह भी घटकर 500 से 5 हजार हो जाएंगे। इसका एक प्रभाव यह रहेगा कि दाम कम होने के कारण जिला और तहसील स्तर पर भी यह मशीनें ज्यादा खरीदी जाएंगी तथा स्थानीय स्तर पर ही लोगों की जांचे समय पर सम्पन्न हो सकेंगी, जिसके बाद मर्ज का सही इलाज समय पर शुरू किया जाना आसान हो जाएगा।
वैसे भी भारतीय बाजार में विकसित देशों के घटिया मेडिकल उपकरणों की बाढ़ कई वर्षों से चली आ रही है। कुछ कंपनियों की तो यह आदत बन गई है कि हल्का माल थमाकर भारत से मौटे रुपए बना सकें। कई दवाओं पर विकसित देशों में भले ही प्रतिबंध है लेकिन भारत में उनके विज्ञापन दिखाई देना आम बात है। ऐसे ही उपकरणों का हाल है, वे आधुनिक चिकित्सा जगत में भले ही पुराने हो गए हों, किंतु भारत में उनके खरीदारों की कोई कमी नहीं। विकसित देशों में खारिज की गईं मेडिकल डिवाइस विकासशील देशों में ऊंची कीमतों में बेच कर खपाई जा रही हैं।
विकसित और विकासशील देशों के बीच यह खेल कैसे चलता है यह इससे भी समझा जा सकता है कि चीन ने पश्चमिी देशों और जापन की मेडिकल डिवाइस बनाने वाली कंपनियों के खिलाफ पिछले साल जांच शुरू की थी। ये कंपनियां चीन में बने चिकित्सकीय उपकरणों के मुकाबले ऊंची कीमत पर डायलिसिस किट बेच रहीं थी। इसी प्रकार के मामलों में युगांडा और नाइजीनिया जैसे देशों की शिकायतें भी समय-समय पर विकसित देशों के उच्चाधिकारियों एवं राजनीतिक नैतृत्व से की गईं । इनमें कहा गया कि दान के नाम पर खराब और पुरानी मशीनें उनके अस्पतालों में भेजी जा रही हैं।
भारत के संदर्भ में इसे देखें तो भारतीय निर्माता कहते हैं कि अपने यहां चीन की कंपनियों पर सरकार का नियंत्रण न के बराबर है। वहां से सस्ते और खराब गुणवत्ता वाले मेडिकल डिवाइस भारत में निर्यात किए जाते हैं। ज्यादातर सीटी स्कैनर, एमआरआई स्कैनर और वेंटिलेटर आयात करने में किसी तरह के कायदे कानून का पालन नहीं होता। यहां तक कि भारत में पेशेंट मॉनीटर और डायलिसिस मशीन्स भी बिना किसी नियम के खरीदी जाती हैं।
कई मामलों में तो चीन एवं अन्य विकसित देश भारतीय नियामक ढ़ांचा कमजोर होने का फायदा उठाते हैं और चिकित्सीय मशीनों का अपने यहां एक-दो साल उपयोग करके फिर से नया जैसा बनाकर सस्ते दामों में भारत को बेच देते हैं। इसके पीछे बहुत हद तक सरकार के साथ डाक्टर भी जिम्मेदार हैं, क्यों कि वे भारत में बनी नई मशीनों की जगह विदशों में इस्तेमाल होने के बाद नई जैसी करके बेची जाने वाली पुरानी मशीनों को खरीदने को प्राथमिकता देते हैं। इसके पीछे का कारण मोटी रकम का कमीशन होता है। वे ऐसा इसलिए करपाने में कामयाब हो जाते हैं क्योंकि भारत में चुनिंदा मेडिकल डिवाइस को छोडक़र ज्यादातर सरकार द्वारा अन्य मेडिकल डिवाइस को सर्टिफाइट नहीं किया जाता है। इसका लाभ दुनिया की नामी कंपनियां तक कुछ लोगों के साथ मिलकर लम्बे समय से उठा रही हैं।
वस्तुत: सरकार के ऐसे अभिनव प्रयोगों से इन कंपनियों के कारनामों पर भी अंकुश लग सकेगा। इसके साथ इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता है कि आज भी देश की वास्तविकता यही है कि गरीब लोग चाहकर भी महंगाई के कारण वह सभी टेस्ट नहीं करा पाते, जो उनके स्वास्थ्य की यथा-स्थिित जानने के लिए बेहद जरूरी हैं। कई दफा सही रिपोर्ट के अभाव में चिकित्सक मर्ज समझ नहीं पाते और इसी लेटलतीफी के कारण मरीज की जान भी चली जाती है। वस्तुत: देश में जितने भी जीवन रक्षक उपकरण और दवाएं सस्ती होंगी, वह आम आदमी पहुंच में उतनी ही अधिक होंगी, जिसके कारण बेमौत मृत्यु को प्राप्त होने के आंकड़ों में तो कमी आएगी ही, लोग अपने परिवार वालों का सुख भी अधिक समय तक ले पाएंगे।