यह शायद संसद के बाहर और भीतर पहला अवसर है जब किसी नेता पर एक युवक द्वारा किए हमले को सियासतदारों की पूरी जमात सहमी दिख रही है। वरना राजस्थान के गंगानगर,नौएडा के भट्टा पारसौल और महाराष्ट के पुणे में अपनी जरुरतों की आपूर्ति के लायक जल और जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी से हुई मौतों पर इन सियासतदारों के चेहरों पर शिकन भी देखने में नहीं आई थी। इस घटना को हम सिरफिरे युवक द्वारा किया हमला कहकर फिलहाल टाल भले ही दें,लेकिन आमजन में उभर रहे इस आक्रोश की तह में जाना है तो हमें भ्रष्टाचार और मंहगाई को तो काबू में लेना ही होगा,राजनीति में लगातार हो रहे अवमूल्यन पर भी अंकुश लगाना होगा। क्योंकि समाज में असंतोष की व्यापकता जिस तेजी से परवान चढ़ रही है उसकी पृष्ठभूमि में सामाजिक समस्याओं का राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर पर निदान निकालने की प्रक्रिया को नजरअंदाज करना भी है। खासतौर से युवाओं में घर कर रही यह नकारात्मक प्रवृत्ति नेताओं के उन गैर जिम्मेबार भाषणों की भी उपज है,जिन्हें वे यह कहकर टाल देते हैं कि हमारे पास समस्या के हल या मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए कोई चमत्कारी जादू की छड़ी नहीं है।
जिस दौरान भ्रष्टाचार और मंहगाई से तिलमिलाया युवक हरविंदर कृषि मंत्री शरद पवार के गाल पर तमाचा जड़ रहा था,लगभग उसी कालखण्ड में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संपन्न हुई केंद्रीय मंत्रीमण्डल की समिति ने प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश को खुदरा कारोबार में निवेश की मंजूरी दी। यह एक ऐसा फैसला है जिसे विसंगति और बेरोजगारी बढ़ाने का पर्याय माना जा रहा है। मसलन हम उन हालातों की परवाह नहीं कर रहे,जिसे कथित आधुनिक विकास और विदेशी पूंजी निवेश के चलते आम आदमी का जीवन जटिल हुआ। जाहिर है हम प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उन्हीं स्थितियों को बढ़ावा दे रहे हैं,जो बेकाबू हो रहे हालातों को और ज्यादा बेकाबू करने वाली हैं। दरअसल स्वंतत्रता हासिल करने के बाद से ही,हमारा समूचा राजनीतिक एवं प्रशासनिक तंत्र उन लोगों के हित संरक्षित करने की चिंता ज्यादा जताता रहा है,जिनके सामाजिक व आर्थिक हित पहले से ही सुरक्षित हैं। सांसद-विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाना और सरकारी नौकरी-पेशाओं को छठा वेतनमान देना,ऐसे ही लोगों के हित संरक्षित करने के उपाय हैं। नौकरी की उम्र भी इन्हीं लोगों की बढ़ाई जा रही है। जबकि उम्र घटाकर रोजगार के नए अवसर पैदा करने की जरुरत है। इन दो उदाहरणों से जाहिर होता है कि अंततः हमारी राजनीति उद्योगपतियों और सक्षम लोगों के कल्याण को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ रही है।
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब उत्तर प्रदेश के युवाओं के गुस्से को मायावती की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ उकसाने की अपील करते हैं तो उन्हें ध्यान रखने की जरुरत है कि भ्रष्टाचारियों की वही जमात उनके और उनके सहयोगी दलों में भी है। लालकृष्ण आडवाणी अपनी रथयात्रा के दौरान बार-बार यह दोहराते हैं कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार आजादी के बाद की सबसे भ्रष्ट सरकार है तो उन्हें यहां आत्ममंथन करने की जरुरत है कि अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार भी भ्रष्टाचार से परे नहीं रही ?भाजपा शासित प्रदेश सरकारें भी भ्रष्टाचा मुक्त नहीं हैं।सूरज की ओर मुंह करे थूकते है तो वह अपने ही मुंह पर गिरता है। यही सवाल जब अन्ना हजारे यह कहकर उठाते हैं कि ज्यादातर सांसद- विधायक और नौकरशाह चोर-लुटेरे हैं तो वे देश की पूरी राजनीतिक व प्रशासनिक तंत्र को कठघरे में खड़ा करते है। अन्ना के इस कथन में एक हद तक सच्चाई भी है।
यदि हम संसद,जिसे मंदिर कहकर सम्मान भी देते हैं के दोनों सदनों के बारे में आई ताजा जानकारियों पर गौर करें तो दीवार से सिर पीट लेंगे। लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों के बारे में तो हम आवाज बुलंद करते रहते हैं,लेकिन संसद के उपरी सदन में भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की गिनती कम नहीं है। राज्यसभा के 242 सांसदों में से 42 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें कांग्रेस के 67 में 8,भाजपा के 48 में से 8,बसपा के 17 में से 5,जदयू के 6 में से 3,और सपा के 5 में से 2 सांसदों पर आपराधिक मामले लंबित हैं। कर्नाटक के निर्दलीय सांसद और किंगफिशर एयरलांइस के मालिक विजय माल्या पर तो संपत्ति में धोखाधड़ी का मामला दर्ज है। संसद के निचले सदन,यानी लोकसभा के 90 सांसदों पर भ्रष्टाचार के मामले विचाराधीन हैं। 180 सांसदों के खिलाफ आपराधिक प्रकरण पंजीबद्ध हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त सामंत बनने की होड़ में लगे भारतीय प्रशासनिक सेवा के करीब 375 नौकरशाहों पर भ्रष्टाचार के मामले लंबित हैं। यह आलेख लिखते-लिखते खबर आई है कि 2000 बैच की उत्तर प्रदेश कैडर की आईएएस अधिकारी धनलक्ष्मी के दिल्ली और बेंगलुरु के चार ठिकानों से तीन करोड़ से भी ज्यादा की संपत्ति बरामद हुई। आय के ज्ञात स्त्रोत से अधिक संपत्ति के आरोप में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत धनलक्ष्मी के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज हो गई है। 425 से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों के खिलाफ भी भ्रष्टाचार और आपराधिक दुष्कृत्यों के मामले दर्ज हैं। एक दर्जन से ज्यादा न्यायाधीशों पर भी ऐसे ही आरोप लगे हैं। हाल ही में कोलकाता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को महाभियोग के कारण हटना पड़ा है।
लोक-प्रतिनिधि,न्यायमूर्ति और उच्चाधिकारी जनाकांक्षाओं की आपूर्ति के कारक माने जाते है। हम इनसे अन्याय की स्थिति में न्याय और समस्या के निर्विवाद हल की अपेक्षा रखते हैं। एक सभ्य और सुसंस्कृत समाज आरोपी और पीड़ित दोनों के लिए ही न्याय चाहता है। लेकिन जब न्याय देने की जिम्मेबारी से जुड़े ही लोग ईमानदारी की कसौटी पर खरे न उतर रहे हों तो न्याय की उम्मीद किससे रखें ।ऐसे हालात में जनमानस के अवचेतन में उमड़ रहा गुस्सा किसी न किसी रुप में बाहर आना लाजिमी है।
हरविंदर जैसे जनसामान्य की बात तो छोड़िए,जब उत्तर प्रदेश के फूलपुर में सुरक्षा घेरा तोड़कर चंद युवक हेलीपेड के दायरे में विरोध प्रदर्शन के लिए घुसे चले आए थे,तब हमारे तीन-तीन केंद्रीय मंत्री अराजक होकर हिंसक नहीं हो उठे थे ?यह घटना क्या हिंसा को प्रोत्साहित करने वाली नहीं है ?जबकि इन मंत्रियों के युवकों के निकट पहुंचने से पहले ही सुरक्षा बलों ने उन्हें काबू में ले लिया था।
इस तरह की घटनाओं की उपज अमेरिकी राष्टपति जॉर्ज बुश पर पत्रकार मुंतजरअल जैदी द्वारा जूता फेंका जाना माना जा रहा है। इस घटना की दुनिया भर में चर्चा हुई। इसके बाद भारत में दर्जन भर घटनाएं घटित हुईं। इसे ‘कॉपी कैट क्राइम,मसलन नकल में किया अपराध कहकर परिभाषित किया जा रहा है। जताया जा रहा है कि ये उपाय खबरिया चैनलों में चर्चित होने की दृष्टि से सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के आसान माध्यम हैं। यहां यह सोचने की जरुरत है कि उलजुलूल हरकत, दिलचस्प खबर भले ही बन जाए, वह जीवन संवार लेने की उपलब्धि बनने वाली नहीं है। इसलिए इन घटनाओं को लोकतांत्रिक स्तंभों में लगातार हो रहे नैतिक क्षरण के भी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरुरत है। इसलिए जनता में बढ़ते इस आक्रोश को हिंसक,असामाजिक व अन्यायपूर्ण ठहराने से कहीं ज्यादा जरुरत राजनीतिज्ञों को इस बात की है कि वे देश और आमजन के बुनियादी व वास्तविक मुद्दों से भटक तो नहीं रहे ?इस लिहाज से लगता है नेताओं की जबावदेही और बढ़ गई है। संसद में थप्पड़ से सहमी हुई इस राजनीति को अपनी जबावदेही के प्रति जागरुक होने की जरुरत है।
तेजवानी साहब यहाँ थप्पड़ के महिमा मंडन की बात नहीं है. बात है इस नौबत को लाने वाले जिमेदार लोगो की. किसी ताकतवर मंत्री को थप्पड़ मारना हर किसी के बस की बात नहीं है. फिर भी कोइ आम आदमी अपनी जान जोखिम में डालकर यह कारनामा करता है तो क्यों करता है. इसा पर मनन कीजिये.
सभी एक सुर में बोल रहे हैं, दूसरे पक्ष के लिए तो जगह ही नहीं है, बडी अच्छी बात है कि हम थप्पड मारने को महिमा मंडित कर रहे हैं
अहिंसा को अपनाना बहुत अच्छी बात है .अन्ना भी यही कह रहे हैं.गाँधी भी यही कहते थे,पर आज के नेता अपने गरेबान में झाँक कर देखें,क्या वे इस अहिंसा को अपनाए हुए हैं? आप दूसरों को अहिंसा और सच्चरित्रता की सीख तब दे सकते हैं ,जब आप स्वयं इस मार्ग पर चल रहे हों.अहिंसक भीड़ पर हिंसक आक्रमण करने वाले भ्रष्ट जब अहिंसा की शिक्षा देने लगते है तो उनका यह कथन एक तरह से आग में घी का काम करता है.अब समय आ गया है कि या तो भ्रष्टाचार को समाप्त करने के अभियान में वे लोग आगे बढ़ें या इसी तरह के हमलों के लिए तैयार रहें.अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के समझाने से भी यह हमला रूकने वाला नहीं.इसको इसी तरह समझा जाना चाहिए जैसे स्वाधीनता के अहिंसक आन्दोलन के साथ ही क्रांतिकारी दल भी अपने ढंग से यह लड़ाई लड़ रहा था.अभी जो छिटपुट घटनाएं हो रही हैं वे संगठित रूप भी ले सकती है.
“तिरुक्कुरळ”का ==>
बुद्धिमानों के लिए केवल एक संकेत (चांटा) ही पर्याप्त है,पर नीच लोग गन्ने की भाँति बहुत कुटने-पिटने पर ही सुधरने को राजी होते हैं।”
क्या पवार इस गर्भित संकेत को समझने की क्षमता रखते हैं?
{ यहां इस “गन्ने” का गन्ने की लॉबी से सम्बंध नहीं है, पर तिरूवळ्ळुवर ने वास्तव में “गन्ना” शब्द प्रयोग किया है।}
पवार यह ना भूलें कि उन्हें बारामति ने चुना है, पर वे सारे भारतके खाद्य मन्त्री हैं।
केंद्रीय मंत्री शरद पवार पर हमला होने के बाद आज सारे नेता एक सुर में चिल्ला रहे हैं कि लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। बेशक! लेकिन यह बात केवल जनता पर लागू होती है, नेताओं पर नहीं?
आपको याद होगा पिछले दिनों इलाहबाद के फूलपुर में जब राहुल गांधी जनसभा के लिये पहुंचे तो वहां हेलीपैड पर कुछ युवक उनको मांगपत्र देने के लिये आगे आये। कांग्रसी नेताओं का आरोप है कि वे युवराज को काले झंडे दिखा रहे थे। माना वे काले झंडे ही दिखा रहे थे तो उनके खिलाफ अगर हो सके तो कानूनी कार्यवाही करानी चाहिये थी लेकिन वहां तो उन युवकों को केंदीय मंत्री और कांग्रेस नेता सरेआम इस गल्ती के लिये बुरी तरह पीट रहे थे। मीडिया में यह सब लोगों ने अपनी आंखों से देखा। उनका यह भी दावा था कि पुलिस चूंकि तमाशाई बनी हुयी थी लिहाज़ा उन्होंने ऐसा किया।
मांगपत्र देने या काले झंडे दिखाने से राहुल गांधी की जान को क्या ख़तरा था? यह भी कहा गया कि ऐसा करने वाले सपा के थे। इसका मतलब कंेद्रीय मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा को खुद कांग्रेसियों ने काले झंडे दिखाये तो कोई अपराध नहीं लेकिन सपाई ऐसा करेंगे तो जुर्म? कांग्रसियों सहित सभी नेताओं को चाहिये कि अपने गिरेबान झांके और सोचें कि अब जनता और नेेेेेेताओं के लिये दो दो पैमाने और कानून नहीं चलेेंगे।
0 हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।।
-इक़बाल हिंदुस्तानी, संपादक, पब्लिक ऑब्ज़र्वर, नजीबाबाद।