भाषा माध्यम है वास्तविक शिक्षा का

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1913

अशोक “प्रवृद्ध”

hindi

बोलने वाली भाषा शब्दों से बनती है । शब्द अर्थ से युक्त हों तो भाषा बन जाती है । अतः बोलने वाली भाषा अर्थयुक्त वाक्य है । भाषा की श्रेष्ठता भावों को सुगमता से व्यक्त करने की सामर्थ्य है । भावों को व्यक्त करने की सामर्थ्य को ही भाषा की शक्ति माना जाता है । यह वैदिक संस्कृत में सर्वश्रेष्ठ है । भाषाविदों और वैदिक विद्वानों के अनुसार आदि मनुष्य और आदि भाषा अति श्रेष्ठ थी । भाषा जो आरम्भ में बनी, वह अति अर्थयुक्त थी । वैदिक संस्कृत, मध्यकालीन संस्कृत अर्थात रामायण व महाभारत की भाषा , प्राकृत, और फिर बंगला, तमिल, गुजराती, कन्नड़, पंजाबी, राजस्थानी इत्यादि भाषाओं के गहराई से अध्ययन करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सर्वाधिक प्राचीन वैदिक भाषा बाद की अर्थात वर्तमान भाषाओँ से अधिक श्रेष्ठ थी और देवनागरी लिपि स्वाभाविक क्रम और वैज्ञानिक ढंग से प्रवृद्ध, निबद्ध और नियत किये जाने के कारण सभी लिपियों में सर्वश्रेष्ठ । इस समय संस्कृत निष्ठ हिन्दी ही वेद भाषा के सर्वथा समीप है और यदि विभाजन पश्चात देश ने हिन्दी और देवनागरी लिपि को स्वीकार किया होता तो हम अब तक वेद की संस्कृत भाषा और उसकी लिपि देवनागरी के साथ ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति कर चुके होते ।

शिक्षा और भाषा का वही सम्बन्ध है जो हाथ और दस्ताने का है । दोनों में सामंजस्य होना ही चाहिये । वस्तुतः शिक्षा के अन्तर्गत ही भाषा है । कारण यह है कि भाषा माध्यम है वास्तविक शिक्षा का। यही कारण है कि देश की भाषा का प्रश्न उत्पन्न होता है । भाषा के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने भ्रम उत्पन्न कर रखा है कि भाषा का लोगों की सभ्यता और संस्कृति से सम्बन्ध है । यह विचार मिथ्यावाद है। सभ्यता वह व्यवहार है जो सभा, समाज में, परिवार में , मुहल्ले में अथवा नगर में शान्ति, सुख और प्रसन्नता पूर्वक रहने में सहायक हो । इसका सम्बन्ध व्यवहार से है । भाषा बोलने अथवा लिखने से इसका सम्बन्ध नहीं । अभिप्राय यह है कि भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले समान व्यवहार अर्थात समान सभ्यता रखने वाले हो सकते हैं। इसी प्रकार संस्कृति- संस्कृति में भेद-भाव भाषा के आधार पर नहीं होता। उदाहरणार्थ हिन्दू संस्कृति है- परमात्मा, जीवात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म, सनातन धर्मों को मानना और उनके अनुकूल व्यवहार रखना । कोई भी भाषा बोलने अथवा लिखने वाला हो, ये लक्षण सबमें समान होंगे ।

 

दरअसल भाषा के दो उपयोग हैं । एक यह कि जब दो अथवा दो से अधिक व्यक्ति मिलते हैं तो कोई मध्यम ऐसा होना चाहिए जिससे एक दुसरे को अपने मन की भाव अथवा अनुभवों को बतला सकें । इसका दूसरा उपयोग तब होता है जब हम अपने विचार और अनुभव अपने स्मरण रखने के लिए तथा भविष्य में आने वाले मनुष्यों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं । इसके लिए बोली और लिपि दोनों का आविष्कार किया गया । इन दोनों के संयोग को भाषा कहते हैं । शब्द और लिपि दोनों के ही सहयोग से हम अपने विचार दूसरों को बता सकते हैं । वे दूसरे समकालीन भी हो सकते हैं और भविष्य में उत्पन्न होने वाले भी हो सकते हैं । इसी कारण भाषा को ज्ञान का वाहन भी कहा जाता है ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भाषा परस्पर विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम है । एक देश के नागरिकों को एवं भूमण्डल के नागरिकों को परस्पर बात-चीत करने अथवा विचार बतलाने में माध्यम भाषा ही है। मानव-कल्याण के हित में हमें कोई ऐसा माध्यम चाहिए कि जिसमे हम एक-दूसरे की बात को समझ-समझा सकें । होना तो यह चाहिए और इस बात से सभी सहमत भी होंगे कि भूमण्डल के सभी देशों के रहने वालों में, जिन्होंने अपने भाग्य को एक दूसरे से सम्बद्ध कर रखा है, एक साँझी भाषा हो। तभी वे परस्पर सहचारिता से रह सकेंगे और विचारों का आदान-प्रदान कर सकेंगे । और जहाँ तक एक देश की बात है तो एक देश में एक ऐसी भाषा की नितान्त आवश्यकता है जिससे विचारों का आदान-प्रदान हो सके । जब कोई यह कहता है कि बंगाल में बंगला भाषा ही माध्यम हो, तो वह अन्जाने में यह भी कह रहा है कि बंगाल और उत्तरप्रदेश में विचारों के आदान-प्रदान की आवश्यकता नहीं , अथवा पंजाब और बंगाल वालों में किसी प्रकार की संपर्क की आवश्यकता नहीं, उन्हें महाराष्ट्रियनों से भी कोई मतलब नहीं। बंगाल, उत्तरप्रदेश. महाराष्ट्र और पंजाब तथा भारतवर्ष के अन्य राज्यों में समन्वय और सम्बन्ध होना परमावश्यक है । इस विचार से इन्कार करने में कोई कारण नहीं कि देश में एक सभ्य भाषा की परमावश्यकता है। इसमें झगड़ा यही है कि देश के कुछ लोग हैं जो किसी कारण से विदेशी भाषा अंग्रेजी पढ़ गए हैं और वे अंग्रेजी को ही भारतवर्ष की सम्पर्क भाषा बनाना चाहते हैं । उन्होंने ही बंगला, तमिल अथवा तेलुगु भाषा-भाषियों का झगड़ा उत्पन्न कर रखा है जिससे कि अंग्रेजी संपर्क भाषा बनी रहे। तमिल, बंगला, तेलुगु इत्यादि भाषा को वे शतरंज का मोहरा बनाये हुए हैं । वे यह तो जानते हैं कि बंगला, तमिल इत्यादि भाषाएँ राजकीय भाषाएँ हैं, परन्तु वे भारतवर्ष की संपर्क भाषा नहीं बन सकतीं । इससे वे हिन्दी को पराजित करने के लिए बंगला, तमिल, तेलुगु इत्यादि सभ्यताओं और संस्कृति की कूक लगाते रहे हैं । तमिल, बंगला इत्यादि सभ्यताएं यदि पृथक-पृथक हैं तो भी इनका भाषा से सम्बन्ध नहीं है ।ये सभ्यताएं हिन्दी सीख लेने पर अथवा बोलने लगने से भी बनी रहेंगी ।

 

अंगेजी को संपर्क भाषा बनाने अर्थात अंग्रेजी को सामने रखने में कारण यह नहीं कि देश के अधिकांश प्राणी इस भाषा को समझ सकते हैं, न ही इसके पक्ष में यह बात है कि निकट भविष्य में यह भारतवर्ष में बहुसंख्यकों की भाषा होने वाली है, वरन यह केवल इसलिए कि अंग्रेजी काल से यह विद्यालय-महाविद्यालय में पढ़ाई जाती है और बलपूर्वक सरकारी कार्यालयों , दफ्तरों और व्यवसायों में इसका चलन किया गया है । इस पर भारतवर्ष का दुर्भाग्य यह है कि विभाजन के पश्चात जब तक देश में कांग्रेस की सरकारों का वर्चस्व स्थापित रहा है तब तक राज्यों की सरकारें और केन्द्रीय सरकार सिर तोड़ यत्न करती रही हैं कि अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाये रखा जाए । परन्तु दुखद स्थिति यह है कि देश में प्रचण्ड बहुमत से बनी नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी सरकार के आने के बाद भी आशा के विपरीत इसमें कोई सुधार नहीं हो सका है । आज भी देश के अधिकाँश विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बना हुआ है । यह अंग्रेजी काल से चला आ रहा है और सरकार ने इसे बदलने का यत्न नहीं किया है । सरकार के अनेर्क अबुद्ध कार्यों में यह सबसे बड़ा अबुद्ध कार्य है कि सरकार ने देश के बच्चों की शिक्षा पर अपना एकाधिकार बनाकर उसका माध्यम अंग्रेजी बना रखा है । सरकार को भाषा में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । यह राजकीय कार्यों में नहीं कि राज्य शिक्षा को अपने हाथों में ले और फिर उसे अपने हाथों में रखने के लिए यह विधान कर दे कि उसके अधीन शिक्षा केन्द्रों से पढ़े-लिखे हुए ही पढ़े-लिखे माने जायें तथा अन्य शिक्षा केन्द्रों से शिक्षा प्राप्त करने वाले, यदि कोई हैं, तो वे अशिक्षित हैं । ये दोनों कार्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं और देश की कोटि-कोटि जनता को अपार हानि पहुँचाने वाले हैं । सरकार, विशेष रूप से केन्द्र में और उत्तर भारत के राज्यों की सरकारें हिन्दी के पक्ष की बातें तो करतीं हैं, परन्तु भारतवर्ष विभाजन के पश्चात् के विगत सतर वर्षों में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा चालू नहीं कर सकीं जिसमें शिक्षा का माध्यम पूर्णतः हिन्दी हो और फिर उस विश्वविद्यालय के स्नातकों को दुसरे विश्वविद्यालयों पर उपमा दे सकें .

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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  1. Ashokbhaai,
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    सरल भाषा माध्यम है वास्तविक शिक्षा का
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    Posted On September 13, 2015 by &filed under हीन्दी दीवस.
    अशोक “प्रवृद्ध”
    indi
    बोलने वाली भाषा शब्दॉ से बनती है .शब्द अर्थ से युक्त हॉ तो भाषा बन जाती है .अतः बोलने वाली भाषा अर्थयुक्त वाक्य है .भाषा की श्रेष्ठता भावॉ को सुगमता से व्यक्त करने की सामर्थ्य है .भावॉ को व्यक्त करने की सामर्थ्य को ही भाषा की शक्ती माना जाता है .यह वैदीक सन्स्कृत मॅ सर्वश्रेष्ठ है .भाषावीदॉ और वैदीक वीद्वानॉ के अनुसार आदी मनुष्य और आदी भाषा अती श्रेष्ठ थी .भाषा जो आरम्भ मॅ बनी, वह अती अर्थयुक्त थी .वैदीक सन्स्कृत, मध्यकालीन सन्स्कृत अर्थात रामायण व महाभारत की भाषा , प्राकृत, और फीर बन्गला, तमील, गुजराती, कन्नड़, पन्जाबी, राजस्थानी इत्यादी भाषाऑ के गहराई से अध्ययन करने से इस सत्य का सत्यापन होता है की सर्वाधीक प्राचीन वैदीक भाषा बाद की अर्थात वर्तमान भाषाओॅ से अधीक श्रेष्ठ थी और देवनागरी लीपी स्वाभावीक क्रम और वैज्ञानीक ढन्ग से प्रवृद्ध, नीबद्ध और नीयत कीये जाने के कारण सभी लीपीयॉ मॅ सर्वश्रेष्ठ .इस समय सन्स्कृत नीष्ठ हीन्दी ही वेद भाषा के सर्वथा समीप है और यदी वीभाजन पश्चात देश ने हीन्दी और देवनागरी लीपी को स्वीकार कीया होता तो हम अब तक वेद की सन्स्कृत भाषा और उसकी लीपी देवनागरी के साथ ही ज्ञान-वीज्ञान के क्षेत्र मॅ पर्याप्त प्रगती कर चुके होते .
    शीक्षा और भाषा का वही सम्बन्ध है जो हाथ और दस्ताने का है .दोनॉ मॅ सामन्जस्य होना ही चाहीये .वस्तुतः शीक्षा के अन्तर्गत ही भाषा है .कारण यह है की भाषा माध्यम है वास्तवीक शीक्षा का.यही कारण है की देश की भाषा का प्रश्न उत्पन्न होता है .भाषा के सम्बन्ध मॅ कुछ वीद्वानॉ ने भ्रम उत्पन्न कर रखा है की भाषा का लोगॉ की सभ्यता और सन्स्कृती से सम्बन्ध है .यह वीचार मीथ्यावाद है.सभ्यता वह व्यवहार है जो सभा, समाज मॅ, परीवार मॅ , मुहल्ले मॅ अथवा नगर मॅ शान्ती, सुख और प्रसन्नता पुर्वक रहने मॅ सहायक हो .इसका सम्बन्ध व्यवहार से है .भाषा बोलने अथवा लीखने से इसका सम्बन्ध नही .अभीप्राय यह है की भीन्न-भीन्न भाषा बोलने वाले समान व्यवहार अर्थात समान सभ्यता रखने वाले हो सकते है.इसी प्रकार सन्स्कृती- सन्स्कृती मॅ भेद-भाव भाषा के आधार पर नही होता.उदाहरणार्थ हीन्दु सन्स्कृती है- परमात्मा, जीवात्मा, कर्मफल, पुनर्जन्म, सनातन धर्मॉ को मानना और उनके अनुकुल व्यवहार रखना .कोई भी भाषा बोलने अथवा लीखने वाला हो, ये लक्षण सबमॅ समान हॉगे .
    दरअसल भाषा के दो उपयोग है .एक यह की जब दो अथवा दो से अधीक व्यक्ती मीलते है तो कोई मध्यम ऐसा होना चाहीए जीससे एक दुसरे को अपने मन की भाव अथवा अनुभवॉ को बतला सकॅ .इसका दुसरा उपयोग तब होता है जब हम अपने वीचार और अनुभव अपने स्मरण रखने के लीए तथा भवीष्य मॅ आने वाले मनुष्यॉ के लीए सुरक्षीत रखना चाहते है .इसके लीए बोली और लीपी दोनॉ का आवीष्कार कीया गया .इन दोनॉ के सन्योग को भाषा कहते है .शब्द और लीपी दोनॉ के ही सहयोग से हम अपने वीचार दुसरॉ को बता सकते है .वे दुसरे समकालीन भी हो सकते है और भवीष्य मॅ उत्पन्न होने वाले भी हो सकते है .इसी कारण भाषा को ज्ञान का वाहन भी कहा जाता है .
    इस प्रकार यह स्पष्ट है की भाषा परस्पर वीचारॉ के आदान-प्रदान का माध्यम है .एक देश के नागरीकॉ को एवन् भुमण्डल के नागरीकॉ को परस्पर बात-चीत करने अथवा वीचार बतलाने मॅ माध्यम भाषा ही है.मानव-कल्याण के हीत मॅ हमॅ कोई ऐसा माध्यम चाहीए की जीसमे हम एक-दुसरे की बात को समझ-समझा सकॅ .होना तो यह चाहीए और इस बात से सभी सहमत भी हॉगे की भुमण्डल के सभी देशॉ के रहने वालॉ मॅ, जीन्हॉने अपने भाग्य को एक दुसरे से सम्बद्ध कर रखा है, एक साॅझी भाषा हो.तभी वे परस्पर सहचारीता से रह सकॅगे और वीचारॉ का आदान-प्रदान कर सकॅगे .और जहाॅ तक एक देश की बात है तो एक देश मॅ एक ऐसी भाषा की नीतान्त आवश्यकता है जीससे वीचारॉ का आदान-प्रदान हो सके .जब कोई यह कहता है की बन्गाल मॅ बन्गला भाषा ही माध्यम हो, तो वह अन्जाने मॅ यह भी कह रहा है की बन्गाल और उत्तरप्रदेश मॅ वीचारॉ के आदान-प्रदान की आवश्यकता नही , अथवा पन्जाब और बन्गाल वालॉ मॅ कीसी प्रकार की सन्पर्क की आवश्यकता नही, उन्हॅ महाराष्ट्रीयनॉ से भी कोई मतलब नही.बन्गाल, उत्तरप्रदेश. महाराष्ट्र और पन्जाब तथा भारतवर्ष के अन्य राज्यॉ मॅ समन्वय और सम्बन्ध होना परमावश्यक है .इस वीचार से इन्कार करने मॅ कोई कारण नही की देश मॅ एक सभ्य भाषा की परमावश्यकता है.इसमॅ झगड़ा यही है की देश के कुछ लोग है जो कीसी कारण से वीदेशी भाषा अन्ग्रेजी पढ़ गए है और वे अन्ग्रेजी को ही भारतवर्ष की सम्पर्क भाषा बनाना चाहते है .उन्हॉने ही बन्गला, तमील अथवा तेलुगु भाषा-भाषीयॉ का झगड़ा उत्पन्न कर रखा है जीससे की अन्ग्रेजी सन्पर्क भाषा बनी रहे.तमील, बन्गला, तेलुगु इत्यादी भाषा को वे शतरन्ज का मोहरा बनाये हुए है .वे यह तो जानते है की बन्गला, तमील इत्यादी भाषाएॅ राजकीय भाषाएॅ है, परन्तु वे भारतवर्ष की सन्पर्क भाषा नही बन सकती .इससे वे हीन्दी को पराजीत करने के लीए बन्गला, तमील, तेलुगु इत्यादी सभ्यताऑ और सन्स्कृती की कुक लगाते रहे है .तमील, बन्गला इत्यादी सभ्यताऍ यदी पृथक-पृथक है तो भी इनका भाषा से सम्बन्ध नही है .ये सभ्यताऍ हीन्दी सीख लेने पर अथवा बोलने लगने से भी बनी रहॅगी .
    अन्गेजी को सन्पर्क भाषा बनाने अर्थात अन्ग्रेजी को सामने रखने मॅ कारण यह नही की देश के अधीकाॅश प्राणी इस भाषा को समझ सकते है, न ही इसके पक्ष मॅ यह बात है की नीकट भवीष्य मॅ यह भारतवर्ष मॅ बहुसन्ख्यकॉ की भाषा होने वाली है, वरन यह केवल इसलीए की अन्ग्रेजी काल से यह वीद्यालय-महावीद्यालय मॅ पढ़ाई जाती है और बलपुर्वक सरकारी कार्यालयॉ , दफ्तरॉ और व्यवसायॉ मॅ इसका चलन कीया गया है .इस पर भारतवर्ष का दुर्भाग्य यह है की वीभाजन के पश्चात जब तक देश मॅ काॅग्रेस की सरकारॉ का वर्चस्व स्थापीत रहा है तब तक राज्यॉ की सरकारॅ और केन्द्रीय सरकार सीर तोड़ यत्न करती रही है की अन्ग्रेजी को शीक्षा का माध्यम बनाये रखा जाए .परन्तु दुखद स्थीती यह है की देश मॅ प्रचण्ड बहुमत से बनी नरॅद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी सरकार के आने के बाद भी आशा के वीपरीत इसमॅ कोई सुधार नही हो सका है .आज भी देश के अधीकाॅश वीश्ववीद्यालयॉ मॅ शीक्षा का माध्यम अन्ग्रेजी बना हुआ है .यह अन्ग्रेजी काल से चला आ रहा है और सरकार ने इसे बदलने का यत्न नही कीया है .सरकार के अनेर्क अबुद्ध कार्यॉ मॅ यह सबसे बड़ा अबुद्ध कार्य है की सरकार ने देश के बच्चॉ की शीक्षा पर अपना एकाधीकार बनाकर उसका माध्यम अन्ग्रेजी बना रखा है .सरकार को भाषा मॅ हस्तक्षेप नही करना चाहीए .यह राजकीय कार्यॉ मॅ नही की राज्य शीक्षा को अपने हाथॉ मॅ ले और फीर उसे अपने हाथॉ मॅ रखने के लीए यह वीधान कर दे की उसके अधीन शीक्षा केन्द्रॉ से पढ़े-लीखे हुए ही पढ़े-लीखे माने जायॅ तथा अन्य शीक्षा केन्द्रॉ से शीक्षा प्राप्त करने वाले, यदी कोई है, तो वे अशीक्षीत है .ये दोनॉ कार्य सरकार के अधीकार क्षेत्र से बाहर है और देश की कोटी-कोटी जनता को अपार हानी पहुॅचाने वाले है .सरकार, वीशेष रुप से केन्द्र मॅ और उत्तर भारत के राज्यॉ की सरकारॅ हीन्दी के पक्ष की बातॅ तो करती है, परन्तु भारतवर्ष वीभाजन के पश्चात् के वीगत सतर वर्षॉ मॅ एक भी वीश्ववीद्यालय ऐसा चालु नही कर सकी जीसमॅ शीक्षा का माध्यम पुर्णतः हीन्दी हो और फीर उस वीश्ववीद्यालय के स्नातकॉ को दुसरे वीश्ववीद्यालयॉ पर उपमा दे सकॅ .

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