संकट में अन्नदाता किसान

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Rainनिर्मल रानी
हमारे देश का अन्नदाता यानी भारतीय किसान वैसे तो लगभग प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी हिस्से में आने वाली बाढ़ अथवा सूखे के कारण संकट का सामना करता ही रहता है। खासतौर पर गरीब व मध्यमवर्गीय किसान तो ऐसे हालात से प्राय: प्रभावित ही रहता है। परंतु इस वर्ष मार्च के महीने में हुई बेतहाशा बारिश व इसी के साथ-साथ आने वाले आंधी-तूफान व ओलावृष्टि ने तो मानो देश के किसानों विशेषकर उत्तर व मध्य भारत के ‘अन्नदाता’ की तो कमर ही तोड़ कर रख दी। किसानों के खेतों में रबी की फसलों के रूप में तैयार हो रही गेहूं,सरसों,अरहर,चना,लाही के अतिरिक्त मटर,टमाटर,आलू जैसी और भी कई सब्जि़यां व तंबाकू,तिलहन व दलहन की कई किस्में जो तैयारी के कगार पर थीं लगभग नष्ट हो गई हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार वेस्टर्न डिस्टर्बेंस ने बंगाल की खाड़ी तथा हिंद महासागर से अर्थात् देश के पूर्वी और पश्चिमी देानों ही छोर से एक साथ नमी उठाई जोकि इतने बड़े पैमाने पर होने वाली बारिश का कारण बनी। दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में तो मार्च के महीने में होने वाली इस बारिश ने पिछले सौ वर्षों की बारिश का रिकार्ड तोड़ दिया। बताया जाता है कि इसके पूर्व 1915 में दिल्ली में इतनी वर्षा रिकॉर्ड की गई थी। बारिश के साथ-साथ सक्रिय रही चक्रवाती हवाओं ने भी किसानों की आजीविका पर भारी कहर बरपा किया है।
देश के विभिन्न भागों से किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने, अपनी तबाह फसल को देखकर हृदयगति रुक जाने से उनका देहांत होने जैसे हृदयविदारक समाचार भी सुनाई देने लगे हैं। ज़ाहिर है विभिन्न राज्यों की सरकारें ऐसे संकट के समय में किसानों के साथ उनका दु:ख बांटने हेतु सहायतार्थ आर्थिक पैकेज घोषित करती भी नज़र आ रही हैं। किसानों पर टूटे इस प्राकृतिक कहर के प्रभाव से आम नागरिक भी अछूता नहीं रहने वाला। विशेषज्ञों के अनुसार शीघ्र ही दलहन,तिलहन और तत्काल रूप से विभिन्न सब्जि़यों की कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में आम देशवासियों को इस मौसम का भुगतान करना पड़ सकता है।
ऐसे में सवाल यह है कि ग्लोबल वार्मिंग या मौसम के लगातार बदलते जा रहे मिज़ाज के परिणामस्वरूप प्रकृति के बदलते तेवर के मध्य क्या अब वैज्ञानिकों तथा कृषि विशेषज्ञों को यह सोचने की ज़रूरत नहीं कि क्यों न प्रकृति पर आश्रित रहने वाली खेती के स्वरूप में बदलते मौसम के अनुरूप परिवर्तन लाए जाने पर विचार-विमर्श किया जाए? ग्लोबल वार्मिंग से केवल भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशियाई देशों सहित लगभग पूरी दुनिया बदलते मौसम के कारण होने वाले प्राकृतिक व पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों का शिकार है। कहीं रेगिस्तान में बाढ़ आने, गर्म प्रदेशों में बर्फबारी होने जैसे समाचार मिलने लगे हैं तो कहीं हरियाली वाले क्षेत्र बिना बारिश के सूखे का शिकार होते सुने जा रहे हैं। और पश्चिमी देशों में तो कहीं-कहीं ऐसे बर्फीले तूफानों के समाचार मिल रहे हैं जैसे कभी सुने नहीं गए। क्या समय का तकाज़ा यह नहीं कि हम कुदरत के इस बदलते मिज़ाज के अनुरूप स्वयं को व अपने कृषि व्यवसाय को भी यथाशीघ्र एवं यथासंभव ढालने की कोशिश करें?
भारत जैसे कृषि प्रधान देश का गरीब व मध्यम वर्ग का किसान न केवल अपनी रोज़ी-रोटी बल्कि परिवार की सभी ज़रूरतों मसलन शादी-विवाह,पढ़ाई-लिखाई,बीमारी, कपड़ा,भवन निर्माण यहां तक कि खेती-बाड़ी से संबंधित सभी खऱीद-फरोख्त के लिए अपनी फसलों पर ही निर्भर रहता है। देश के करोड़ों किसान खाद व बीज के लिए अथवा अपनी पारिवारिक ज़रूरतों के लिए कहीं साहूकार से तो कहीं अपने आढ़ती से अथवा कोओपरेटिव बैंक या दूसरे बैंकों से कजऱ् लेकर अपना काम चलाते हैं। उन्हें इसी बात की आस रहती है कि उनके खेतों में फ़सल तैयार होते ही वे इसे बेचकर अपने कजऱ् अदा करेंगे तथा अपनी अन्य ज़रूरतों को पूरा करेंगे। परंतु कुदरत का ऐसा कहर जैसाकि इन दिनों देखने को मिल रहा है ज़ाहिर है किसानों के सभी अरमानों पर पानी फेर देता है। इतना ही नहीं बल्कि उसे कजऱ्दार भी बना देता है। यहां तक कि किसानों के बच्चों की शादी-विवाह व पढ़ाई-लिखाई सब कुछ ही बुरी तरह से प्रभावित हो जाता है। ऐसे में जब किसान यह महसूस करता है कि उसे न तो सरकार का संरक्षण प्राप्त है न ही उसकी फसलों का ईश्योरेंस मिलने वाला है ऐसे में साहूकार के डर से तथा बैंकों के कजऱ् की चिंता से तंग आकर किसान यदि आत्महत्या न करें तो क्या करे?
किसानों की खुशहाली केवल किसानों तक ही सीमित नहीं रहती बल्कि अच्छी फसल का प्रभाव पूरे बाज़ार पर तथा देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है। जब देश का किसान खुशहाल रहता है, उसे अपनी फसल की अच्छी व भरपूर कीमत मिलती है तो वह बाज़ारों में खरीददारी करता है जिससे बाज़ार में रौनक़ बढ़ती है। हमारी जीडीपी में इज़ाफा होता है। परंतु जब कभी इस प्रकार की प्राकृतिक विपदा से हमारा अन्नदाता रूबरू होता है ज़ाहिर है उसका दुष्परिणाम भी भारतीय बाज़ारों से लेकर देश की अर्थव्यवस्का तक को भुगतना पड़ता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता के लगभग 70 वर्ष बीत जाने के बावजूद आज तक हमारे देश में किसानों की फसलों की शतप्रतिशत सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किए जा सके हैं।
शहरी आबादी की ही तरह किसान समुदाय में भी जो अत्यंत संपन्न किसान हैं वह तो आगे बढ़ते जा रहे हैं जबकि मध्यम व निम्र वर्गीय किसान हमेशा अपनी आजीविका तक से जूझता दिखाई देता है। आज उत्तर भारत के कई राज्यों के ऐसे किसान जो स्वयं अच्छी-खासी ज़मीनों के स्वामी तो हैं परंतु अपने खेतों की फसलों की पैदावार में होने वाली अनिश्चितता के कारण खेती से उनका विश्वास उठ चुका है। ऐसे करोड़ों लोग अपनी ज़मीनों को, अपने खेतों को भगवान भरोसे छोडक़र दूसरे राज्यों में अथवा नगरों में जाकर मज़दूरी तथा अन्य रोज़गार करने लगे हैं। किसी ज़मींदार द्वारा खेती-बाड़ी छोडक़र रिक्शा चलाया जाना या मज़दूरी करना अथवा किसी फैक्ट्री में कार्य करना या फिर अपने खेतों को छोडक़र किसी दूसरे संपन्न किसानों के खेतों में जाकर काम करना हमारे देश के अन्नदाता के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मौसम विभाग के विशेषज्ञों,कृषि वैज्ञानिकों व देश के किसान परस्पर मिलकर खेती-बाड़ी के संबंध में एकऐसी नई दिशा की तलाश करें जो ग्लोबल वार्मिंग के रूप में सामने आ रहे मौसम के परिवर्तन के अनुरूप हो। दशकों से हम देखते आ रहे हैं कि शत-प्रतिशत प्रकृति पर आश्रित रहने वाला किसान कभी-कभी तो खुशहाल नज़र आता है। परंतु प्राय: कुदरत की सूखे,बाढ़, अथवा बेमौसमी बरसात के कहर से तबाही व बरबादी का सामना करने के लिए मजबूर हो जाता है। लिहाज़ा ऐसे मौसम के चलते जो किसान साहूकार,आढ़त अथवा बैंकों के कजऱ्दार हों उन्हें तो सर्वप्रथम उनकेे ऊपर लटकने वाली कजऱ् की तलवार से अवश्य निजात दिलाई जानी चाहिए। फसलों के बीमे की नीतियें में भी परिवर्तन करते हुए फसलों का बीमा फसल की कटाई होने के समय तक का किया जाना चाहिए। संसार में खेती की और भी हज़ारों किस्में व हज़ारों प्रकार की फसलें ऐसी हैं जो प्रकृति पर आश्रित रहे बिना की जा सकती हैं। किसानों को अब ऐसे रास्ते अख्तियार करने की भी ज़रूरत है। और हमारे देश व राज्यों की सरकारों को इस विषय पर अध्ययन कर किसानों को प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। जड़ी-बूटियों व आयूर्वेद उपचार संबंधी एवं फल आदि की तमाम किस्में इस श्रेणी में आती हैं।
परंतु दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी समझा जाने वाला कृषि प्रधान देश का अन्नदाता किसान देश की सरकारों से अपने संरक्षण व सहयोग से तो ज़रूर वंचित दिखाई देता है। जबकि आए दिन किसानों पर कभी फसलों की मूल्यवृ िकी मांग करने पर उसपर पुलिसिया बर्बरता के समाचार सुनाई देते हैं तो कभी भूमि अधिग्रहण जैसे तानाशाही वाले बिल से उसकी रूह कांप जाती है। किसानों को उसकी फसलों का संरक्षण तो दूरउसकी छाती पर हमारी सरकारें बिना उसकी मजऱ्ी के कभी देशी तो कभी विदेशी आद्यौगिक घरानों के उद्योग धंधे ज़रूर स्थापित करा देती है। और अन्नदाता अपने घर से बेघर होने के लिए मजबूर हो जाता है। यदि वास्तव में हम स्वंय को कृषि प्रधान देश का नागरिक समझते हैं तथा देश की सरकारों के प्रतिनिधि दुनिया में जाकर स्वयं को ‘जय किसान’ वाले देश का नेता बताकर गौरवान्वित महसूस करते हैं तो निश्चित रूप से हमारी पहली जि़म्मेदारी भी यही है कि हम अपने देश के किसानों खासतौर पर गरीब व मध्यम वर्ग के किसानों की खुशहाली तथा उनकी फसलों का शत-प्रतिशत गारंटी के साथ उपाय सुनिश्चित करें।
:-निर्मल रानी

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  1. मुंशी प्रेमचंद ने अपनी एक कहानी में कहा है कि, “केले का काटना भी इतना आसान नहीं है जितना किसान से बदला लेना”.अर्थात किसान कि स्थिति सदैव ही नाज़ुक बनी रहती है.और जरा सी भी चोट उसे बर्बाद करने के लिए काफी है.कभी सूखा, कभी बाढ़ तो कभी अन्य प्राकृतिक आपदाएं.किसान जो देश का अन्नदाता है सदैव ही इन संकटों से जूझता रहता है.देश की केवल लगभग १७-१८% भूमि ही सिंचाई सुवधा से युक्त है.और इतनी भूमि से कुल खाद्यान्न का लगभग ४०% उत्पादन प्राप्त होता है.इससे पता चलता है की यदि सिंचित क्षेत्र का नुपात बढ़ जाये तो देश का खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ जायेगा. १९६-६६ में जब देश में भयंकर एकऔर सूखा पड़ा था तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को देश के स्वाभिमान से समझौता करके अपमान जनक शर्तों पर पी एल ४८० के तहत अमेरिका से बहुत घटिया गेंहू खाने के लिए मंगाना पड़ा था.इंदिरा जी ने लौट कर कृषि वैज्ञानिकों को निर्देश दिए और उनके सहयोग तथा किसान की म्हणत से देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर ही नहीं हुआ बल्कि सरप्लस की स्थिति में आ गया.
    उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जोहन्सन ने एक समिति के द्वारा भारत के खाद्यान्न उत्पादन क्षमता का अध्ययन कराया था और उस समिति की राय थी की यदि भारत में इंटेंसिव और एक्सटेंसिव कृषि उत्पादन किया जाये तो वो(भारत) २५० करोड़ लोगों के लायक अनाज पैदा कर सकता है.(ये अनुमान १९६५-६७ का था,जबकि वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति और कृषि अभियांत्रिकी और अन्य शोधों से उत्पादन कहींअधिक बढ़ सकता है).इस रिपोर्ट पर आधारित विस्तृत आलेख उस समय टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ग्रुप द्वारा प्रकाशित की जाने वाली मासिक पत्रिका “साइंस टुडे” में प्रकाशित हुआ था.आज यदि उस रिपोर्ट को अपडेट करें तो कमसे काम ३५०-४०० करोड़ लोगों के लिए अनाज उत्पादन हम कर सकने में सक्षम हैं.ये बात इस तथ्य से भी समर्थित है की आज हमरी प्रति एकड़ उपज पडोसी चीन, इजराइल और अन्य देशो से काफी काम है.कुछ वस्तुओं के तुलनात्मक आंकड़े निम्न प्रकार हैं:
    वस्तु का नाम भारत में प्रति अधिकतम उत्पादन अधिकतम उत्पादक
    हेक्ट.उत्पादन प्रति हेक्ट. देश

    धान 3.3 10.8 ऑस्ट्रेलिया
    गेंहू 2.8 8.9 नेदरलॅंड्स
    शुगर केन 66 125 पेरू
    कॉटन 1.6 4.6 इजराइल
    ताज़ी सब्ज़ियाँ 13.4 76.8 अमेरिका
    आलू 19.9 44.3 अमेरिका
    टमाटर 19.3 524.9 बेल्जियम
    सोयाबीन 1.1 3.7 टर्की
    प्याज़ 16.6 67.3 आयरलैंड
    चिक पीज 0.9 2.8 चीन
    ओकरा 7.6 23.9 इजराइल
    बीन्स 1.1 5.5 निकारागुआ
    उक्त आंकड़ों से स्पष्ट है की लगभग प्रत्येक जिंस में हमारी उत्पादकता अधिकतम उत्पादकता वाले देशों से काम से काम एक तिहाई है.
    देश में दूसरी कृषि क्रांति की अक्सर बातें की जाती हैं.लेकिन ये कैसे सफल होगी?
    मेरे विचार में देश में सिंचाई सविधा का विस्तार किया जाना आवश्यक है.केवल विस्तार ही नहीं बल्कि सिंचई की गुणवत्ता भी बढ़ानी होगी. उपलब्ध पानी का अधिकतम उपयोग करना होगा अन्यथा आने वाले समय में पानी का भारी संकट खड़ा हो सकता है.इसके लिए खेतों में सेंसर लगाकर पानी की आवश्यकतानुसार ही उसका उपयोग होना चाहिए.ये संभव है.तकनीक का अधिकतम प्रयोग ही एकमात्र समाधान है.नहरों के स्थान पर लघु सिंचाई की तकनीकें अपनाना बेहतर होगा.इनमे लागत भी कम आती है और पानी का अधिक किफायती उपयोग की गुंजाइश ज्यादा है.
    बाढ़ के वार्षिक प्रकोप से बचने के लिए पिछले पचास सालों से देश की नदियों को जोड़ने की महत्वकांक्षी योजना पर चर्चा होती रही है.लेकिन समितियां बनाने से आगे काम नहीं बढ़ा है.लागत सेंकडों गुना बढ़ चुकी है.क्या अब इस दिशा में ठोस काम हो सकेगा?
    कौन सी वास्तु की पैदावार कहाँ के लिए अधिक स्वाभाविक है इसका प्रकृति ने एक चक्र बनाया है.जहाँ पानी अधि बरास्ता है वहां अधिक पानी वाली फसलें होती हैं और जहाँ काम पानी गिरता है या सूखा क्षेत्र है वहां काम पानी वाली वस्तुएं पैदा होती हैं.महाराष्ट्र की धरती में काम पानी वाली मूंगफली, और कपास की स्वाभाविक खेती थी.लेकिन सतर के दशक के प्रारम्भ में वर्ल्ड बैंक के ‘सुझाव’ पर वहां गन्ने की खेती को बढ़ावा दिया गया .और सारी सिंचाई व्यवस्था का बजट गन्ना ही खा गया.इससे चीनी उत्पादकों को लाभ हुआ लेकिन आम और छोटा किसान क़र्ज़ के जाल में फंस कर आत्म हत्या करने पर मजबूर हो गया.क्या इस फसल चक्र को प्राकृतिक पारिस्थितिक चक्र के अनुरूप किया जा सकेगा?

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