उखड़े दरबार का प्रलाप

victory

भारत की जनता ने लोक सभा के चुनावों में जो जनादेश दिया है उससे बुद्धिजीवियों के उस समुदाय में खलबली मची हुई है जो अब तक इस देश के जनमानस को सबसे बेहतर तरीक़े से समझने का दावा करता रहा है । बुद्धिजीवियों का यह समुदाय कैसे निर्मित हुआ , इस की भी एक लम्बी कहानी है । दरअसल इस की शुरुआत उन्हीं दिनों से हो गई थी जब अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय जातियों ने इस देश पर क़ब्ज़ा कर लिया था और इस देश की सांस्कृतिक जीवन रेखा , शिक्षा पद्धति को पंगु बना कर विदेशी हितों का पोषण करने वाली नई शिक्षा पद्धति थोप दी थी । भारतीय परम्परा के शिक्षक वर्ग गुरु को अपदस्थ करके , इस काम के लिये राजकीय कर्मचारियों को विद्यालयों में नियुक्त कर दिया था । अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित इस शिक्षा विभाग ने इस देश की सामाजिक व सांस्कृतिक अवधारणाओं की अपने हितों को ध्यान में रखते हुये नई व्याख्याएँ कीं और भारतीय समाज को विखंडित करने के लिये नृविज्ञान को ढाल बना कर समाज में दरारें उत्पन्न कीं । परिणामस्वरूप इस देश के भीतर ही कुछ लोगों के मन में एक नया मानसिक देश पैदा हो गया जिसे यूरोपीय शासकों ने इंडिया कह कर प्रचारित किया । आम जनता का देश तो भारत ही रहा और जनता के मन मस्तिष्क में वही बसा हुआ था लेकिन यूरोपीय शिक्षा पद्धति की बेकरी में से जो बौद्धिक जगत निकला ,उनका इंडिया आम जनता के भारत से अलग हो गया । अंग्रेज़ दिल्ली को ख़ाली करते समय भारत की सत्ता इसी इंडिया के प्रतिनिधियों को सौंप गये थे और उन्होंने भी सत्ता सिंहासन पर यूरोपीय खड़ाऊँ रख कर अप्रत्याशित रुप से उन्हीं की परम्परा का शासन बरक़रार रखा । अंग्रेजी शासन के राजा के दरबार में विरुदावली के लिये दरबारी होते ही थे । वे शासक वृन्द के तथाकथित बुद्धिजीवी होते हैं , जिनका जन मानस से कुछ लेना देना नहीं होता , वे राजमानस को ही जनमानस कह कर प्रचारित करते रहते हैं और प्रचार करते करते कई बार ख़ुद भी उसी प्रचार का शिकार हो जाते हैं । पुराने ज़माने में इन लोगों को आम फ़हम भाषा में दरबारी कहा जाता था लेकिन नये युग की शब्दावली में इन्हें बुद्धिजीवी कहा जाता है । भाव शायद इन्हें श्रमजीवी से अलग दिखाने का ही होगा । जो श्रमजीवी का देश है वह भारत है और जो तथाकथित बुद्धिजीवी का देश है वह इंडिया कहलाता है । आज तक सत्ता के दरबार में यह इंडिया ही भारत का प्रतिनिधि होने का दावा करता हुआ सारी दुनिया को धोखा देता रहा । लेकिन इस बार भारत के श्रमजीवियों ने एक जुट होकर इंडिया के शासकों को पराजित कर दिया । १९४७ के बाद से भारत की अस्मिता के लिये हो रहे संघर्ष की यह शानदार जीत कही जा सकती है और इसे लोकमान्य तिलक से लेकर महात्मा गान्धी तक के नेतृत्व में चले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का दूसरा अध्याय भी कहा जा सकता है । लेकिन जनता की इस जीत के बाद , उखड़ चुके सत्ता दरबार की तथाकथित बुद्धिजीवी विधवाओं का प्रलाप अभी भी जारी है । मान लेना चाहिये यह कुछ देर और चलेगा । क्योंकि उनका देश की जनता को समझ लेने का दावा बीच चौराहे के फूट गया है ।

लेकिन अभी भी मैं न मानूँ के भाव से   जब समाचार पत्रों में अरुन्धति राय , हर्ष मन्दर , तीस्ता सीतलवाड, कुलदीप नैयर , राजेन्द्र सच्चर , प्रफुल्ल विदवई , सीमा मुस्तफ़ा , आनन्द सहाय , सतीश जेकब, अनुराधा शेनाय और मेघा पाटेकर इत्यादि की फ़ौज विभिन्न विषयों पर क़दमताल करती दिखाई देती है तो उससे अब मनोरंजन तो होता है , नया कुछ प्राप्त नहीं होता । इन के पास नया कहने सुनने के लिये कुछ है भी नहीं । इंडिया को लेकर यूरोपीय अवधारणाओं को वेद वाक्य मान कर ये उसी जूठन की जुगाली बरसों से कर रहे हैं । भारत और भारतीयता की बीन इनके आगे जितनी मर्ज़ी बजती रहे लेकिन ये भैंसें एक ही खूँटे पर खड़ी पगुरा रही हैं । गुज़रे ज़माने के इन सभी दरबारियों ने अपने अपने एन जी ओ बना रखे हैं । उसकी विदेशी पैसे से समय समय पर लिपाई पुताई होती रहती है । दिल्ली के सत्ताधीश भी उस लिपाई पुताई में भारत के श्रमजीवियों की गाढ़ी ख़ून पसीने की कमाई से प्राप्त पैसे से अपना हिस्सा डालते रहते हैं । अपनी उन एन जी ओ की अट्टालिकाओं में बैठ कर यह बिरादरी एक ही धुन बजाती रहती है । बस इतना ही कि ये नीरद चौधुरी की तरह दिल्ली छोड़ कर लन्दन जाकर नहीं बैठे । नीरद चौधुरी की इस बात के लिये तो तारीफ़ करनी पड़ेगी कि उन्हें भारत और भारतीय संस्कृति पसंद नहीं थी तो वे खुले आम लंदन जाकर बैठ गये लेकिन यह बिरादरी दिल्ली को ही लंदन और वाशिंगटन की पूँछ बना देने के लिये आमादा है ।भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य के अधूरे रह गये एजेंडे को पूरा करने का दायित्व इस बिरादरी ने संभाल रखा है । जम्मू कश्मीर को लेकर कुलदीप नैयर का कोई भी आलेख उठाकर देख लिया जाये तो १९४७ से लेकर २०१४ तक वे एक ही बात को बार बार दोहरा रहे हैं । उनको लगता है कि संविधान के अनुच्छेद ३७० को उन्होंने जिस तरह समझा है , बाक़ी सारे लोग भी उसी प्रकार से समझें । जब जम्मू कश्मीर के कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि कम से कम इस बात पर तो बहस करवा ली जाये कि इस अनुच्छेद से राज्य के ही लोगों को कोई लाभ हो रहा है या नहीं तब लगता था कि कुलदीप नैयर की बिरादरी के लोग इस का स्वागत करेंगे । लेकिन हद तो तब हो गई जब वे लाभ हानि पर बहस करने की बजाय लार्ड माऊंटबेटन के १९४७ वाले तर्कों को २०१४ में भी दोहराने से नहीं हटे । लार्ड माऊंटबेटन की मजबूरी समाज आ सकती है कि उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करनी थी । उनका जम्मू कश्मीर की जनता के हितों से कुछ लेना देना नहीं था । लेकिन कुलदीप नैयर और उनकी बिरादरी की अभी भी क्या मजबूरी है , यह समझ पाना सचमुच मुश्किल है । यह स्थिति केवल कुलदीप नैयर की ही नहीं है यह इस पूरी बिरादरी की है जो अब भी इस बात पर अड़ी है कि औरंगज़ेब विदेशी राजा नहीं था बल्कि शुद्ध देसी नस्ल का महान बादशाह था , जिसने हिन्दुस्थान की कीर्ति को चार चाँद लगा दिये थे । अनुच्छेद ३७० की चर्चा तो केवल उदाहरण के लिये की है , अन्य अनेक विषयों पर भी इनकी समझ भारतीय जनमानस के विपरीत ही रहती है ।

अब भारत में राष्ट्रवादी समूह के पास सत्ता आ जाने के बाद इस समूह ने अपने रुदाली कार्यक्रम की शैली बदल ली है । पहले यह समूह तात्विक प्रश्नों पर विचार निबन्ध या आलेख के माध्यम से ही करता था । उससे सहमत होना या न होना तो पाठक पर निर्भर होता था । अब इस बिरादरी ने अपने पर आ गये संकट काल में तात्विक प्रश्नों पर भी रुदाली शैली में भावनाओं को उत्तेजित कर पाठक वर्ग का समर्थन प्राप्त करने के संकटकालीन प्रयास शुरु कर दिये हैं । अब ये लोग गंभीर प्रश्नों पर उपन्यास शैली में लिखने लगे हैं । ऐसे ही एक सज्जन हर्ष मंदर जो कभी सोनिया गान्धी की सलाहकार परिषद के नव रत्नों में रह चुके हैं , असम में विभिन्न समुदायों में दरार बढ़ाने के लिये तांत्रिक साधना करते देखे गये । असम में अवैध बंगलादेशी मुसलमान पिछले कई दशकों से आ ही नहीं रहे हैं बल्कि वहाँ के स्थानीय लोगों को परे धकेल कर वहाँ के संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं । अनेक स्थानों पर स्थानीय लोग अल्पमत में आ गये हैं और अवैध बंगलादेशी बहुसंख्यक होने से असम के सत्ता प्रतिष्ठानों में भी पहुँच रहे हैं । लेकिन हर्षमंदर की बिरादरी को यह स्थापित करना है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा । ये सब बंगलादेशी तो उन्नीसवीं शताब्दी से ही वहाँ क़ानूनी तरीक़े से बसे हुये हैं । वे ख़ुद भी जानते हैं कि उनकी इस तोता-बिल्ली की कहानी पर कोई विश्वास नहीं करेगा । लेकिन भारत लोकतांत्रिक देश है , इस लिये उनको भी अपने तर्क रखने का पूरा अधिकार है । लेकिन वे ख़ुद भी जानते हैं कि तर्क के नाम पर उनके पास केवल ज़िद है । यह अलग बात है कि सोनिया गान्धी के साथी रहने के कारण उनका आग्रह होता है कि उनकी ज़िद को भी तर्क ही मान लिया जाये । पर आम जनता से अपनी ज़िद को तर्क मनवाने के लिये उन्होंने नया तरीक़ा निकाला है । वे उपन्यास शैली का सहारा लेते हैं । असम के बोडो जनजाति के क्षेत्रों में बोडो लोगों में इन बंगलादेशियों को लेकर ग़ुस्सा और उत्तेजना है । ग़ुस्से का कारण यह भी है कि सोनिया कांग्रेस की सरकार स्थानीय बोडो क्षेत्रों में वोटों के लालच में इन बंगलादेशियों को बसाने में मदद करती रहती है । बोडो लोगों और अवैध बंगलादेशियों में कुछ अरसे पहले भिड़न्त हो गई थी । उसमें दोनों पक्षों को नुक़सान हुआ था और उनके लोग मारे गये थे । यहाँ बंगलादेशियों की निरंतर घुसपैठ के कारण स्थानीय लोगों के साथ इनकी भिडन्तें होती रहती हैं और दोनों पक्षों को ही जानमाल की हानि झेलनी पड़ती है । यदि कोई व्यक्ति सचमुच इस स्थिति से दुखी हो , तो ज़ाहिर है कि वह निर्दोष लोगों की मृत्यु पर दुख प्रकट करने के बाद यह कहेगा कि अवैध बंगलादेशी मुसलमानों की शिनाख्त करने के बाद उनको वापिस उनके देश भेजा जाये । लेकिन हर्षमंदर की बिरादर का तो गुप्त एजेंडा दूसरा है । वे आजकल अख़बारों में उपन्यासनुमा शैली में लिख रहे हैं की बोडो क्षेत्र के स्थानीय लोगों ने किस प्रकार मुसलमानों पर अमानवीय अत्याचार किये । उपन्यासनुमा भावुक शैली में इस लिये ,ताकि पाठकों के मन में बंगलादेशी मुसलमानों के पक्ष में करुणा रस पैदा किया जा सके और स्थानीय बोडो लोगों के प्रति घृणा पैदा की जा सके । हर्ष मंदर प्रशासनिक सेवा में भी रह चुके हैं और सोनिया गान्धी की दरबारी सलाहकार परिषद के भी नूरे नज़र रहे हैं , इसलिये इतना तो जानते ही होंगे की उनके इन कारनामों से बोडो लोगों के मन में भी ग़ुस्सा भड़क सकता है और स्थितियाँ और भी ख़राब हो सकती हैं । फिर आख़िर वे यह सब क्यों कर रहे हैं ? यदि उन्हें सचमुच लगता था कि इन अवैध बंगलादेशी मुसलमानों , (जिन्हें वे केवल मुसलमान कहना पसन्द करते हैं ), के साथ यहाँ के बोडो जनजाति के लोग,( जिन्हें वे आतंकवादी या उग्रवादी कहना पसन्द करते हैं, ) के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं , तो उन्हें उन बोडो लड़कियों की कथा का भी उसी शैली में वर्णन करना चाहिये था जिनके साथ उनके इन मुसलमानों ने बलात्कार ही नहीं किया बल्कि उनकी बाद में दरिंदगी से हत्या भी कर दी , तो कम से कम उनकी इस औपन्यासिक कथा में संतुलन तो बना रहता । हर्षमंदर और उनकी बिरादरी यह भी जानती होगी कि अर्धसत्य झूठ बोलने से भी ज़्यादा ख़तरनाक होता है । लेकिन शायद यह बिरादरी यह मान कर चलती है कि इस देश में सैकड़ों साल की ग़ुलामी के कारण अंग्रेज़ी में बोला गया झूठ भी सत्य ही मान लिया जाता है ।

आज जब उच्चतम न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालयों तक ने , राज्यपाल से लेकर राज्य के पुलिस प्रमुखों ने माना है कि असम इन अबैध बंगलादेशियों की बाढ़ में डूब कर अपनी सांस्कृतिक पहचान खो देने की ओर बढ़ रहा है तब भी हर्षमंदरों की टोली यही स्थापित करने में लगी हुई है कि ये बंगाला देशी मुसलमान तो शताब्दियों से यहीं बसे हुये थे । पिछले दिनों यह रहस्योदघाटन हुआ था कि कुछ एन जी ओ विदेशों से पैसा लेकर भारत में इस प्रकार की गतिविधियों में लगे हुये हैं जिससे भारत की प्रगति अवरूद्ध होती है और भारतीय हितों को नुक़सान पहुँचता है ।विभिन्न भारतीय समुदायों में घृणा भाव पैदा होता है । सोनिया गान्धी के नेतृत्व में बनी सलाहकार परिषद , जिसका करोड़ों रुपये का ख़र्चा भारत के सर्वहारा वर्ग ( सर्वहारा का अर्थ तो हर्ष मंदर अच्छी तरह जानते ही होंगे ? ) की गाढ़ी ख़ून पसीने की कमाई में से ख़र्च होता था , के नवरत्नों की एन जी ओज का ख़ुलासा ही नहीं किया जाना चाहिये बल्कि उनके धन स्रोतों की छानबीन भी की जानी चाहिये । इन के सूत्र अन्दर ही अन्दर कहाँ कहाँ जुड़े हुये हैं और उनकी गतिविधियाँ कैसे परस्पर सहयोग से संचालित होती हैं , इसकी भी जाँच भारत सरकार को करवाना चाहिये । अपने शासन के अंतिम काल में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी इस का आभास हो गया था और उन्होंने संकेत में इशारा भी कर दिया था कि कुछ ग़ैर सरकारी संस्थाएँ विदेशी पैसे के बलबूते भारत विरोधी गतिविधियों में लगी हुई हैं । लेकिन शायद मनमोहन सिंह सोनिया गान्धी के दबाव के चलते इसकी जाँच नहीं करवा सके । अभी तक सभी के ध्यान में ही होगा कि अमेरिका में ग़ुलाम नबी फ़ाई द्वारा आयोजित सैमीनारों में जा जाकर जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान की ही भाषा बोलने वाले भारतीय पत्रकारों के कपड़े गीले हो गये थे जब यह ख़ुलासा हुआ था कि फ़ाई के ये सारे तथाकथित बौद्धिक सैमीनार पाकिस्तान की आई एस आई द्वारा ही संचालित होते थे । यह अलग बात है कि इस रहस्योद्घाटन के बाद कपड़े गीले हो जाने को भी इन विद्वानों ने अपनी बौद्धिक शूरता कह कर प्रचारित करना शुरु कर दिया था । इसी प्रकार नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जब यह संकल्प दोहराया की विदेशी भाषाओं की बजाय भारतीय प्रशासन में भारतीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ाना चाहिये तो बुद्धिजीवियों की इस बिरादरी ने इसे हिन्दी थोपने की चाल कह कर विभिन्न भाषा भाषियों में कटुता फैलाने के लिये अपने मोर्चे संभाल लिये । लगता है दरबार से बेदख़ल हुये इन तथाकथित बौद्धिक शूरों की जमात अभी और आग उगलेगी , लेकिन देश की मेहनतकश जनता को सावधान रहना होगा की नफ़रत फैलाने के अपने अभियान में यह बिरादरी सफल न हो सके ।

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