हिन्द स्वराज का दूसरा पलड़ा

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शंकर शरण

डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1963 में लिखा था, “गाँधीजी ने दार्शनिक और कार्यक्रम-संबंधी उदारवाद का जो मेल बिठाया, उसका मूल्यांकन करने का समय शायद अभी नहीं आया है। … अधिकांश देशवासी आजादी की प्राप्ति को ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। दरअसल वह कोई उपलब्धि नहीं है। उनके बिना भी देश अपनी आजादी हासिल कर लेता, शायद ज्यादा जल्दी, और ज्यादा अच्छी तरह। उनके रहते कौम और देश का बँटवारा हुआ। कुछ विवेकशील विदेशियों की राय में गाँधी दुःखी, पीड़ित और दबे हुए लोगों की सच्ची आवाज थे। यह सच है। लेकिन इस शताब्दी में और भी ऐसी आवाजें, शायद ज्यादा सशक्त और उद्देश्यपूर्ण आवाजें रही हैं।”

निस्संदेह, मूल्यांकन का समय कब से आकर बैठा हुआ है। किंतु अधिकांश बुद्धिजीवी मूल्यांकन की चिंता से ही मुक्त हैं। गाँधी चिंतन, कर्म पर गाँधी के रहते जो आलोचनाएं हुईं, उन्हें भी भुला दिया गया है। वह कितनी सशक्त बातें थीं, यह गाँधीजी की ‘हिन्द स्वराज ’ (1909) में लिखी महादेव भाई की भूमिका पढ़कर भी स्पष्ट दिखेगा। वह इतनी गंभीर, और सुचिंतित आलोचनाएं थीं कि सौ वर्ष बाद भी उनकी मूल्यवत्ता यथावत् है।

हिन्द स्वराज में दिए विचारों के विरुद्ध ‘दूसरा पलड़ा’ वाले शब्द स्वयं गाँधी जी के ही हैं। 1938 में नए संस्करण के लिए संदेश में उन्होंने कहा था कि इस के दूसरे पलड़े पर रखने के लिए मेरे एक मित्र की अमुक बात रखी जा सकती है। चाहे ‘दूसरे पलड़े’ पर रखने के लिए गाँधी जी ने बड़ी हल्की बात का चुनाव किया। किंतु उस से यह तो दिखता है कि तब हिन्द स्वराज की कठोर आलोचनाएं हुई थीं। सौ साल के अनुभव के आलोक में उन विन्दुओं पर खुला विमर्श सबके लिए लाभदायक होता। पर ‘हिन्द स्वराज ’ की शती मनाते हुए जयकारे के सिवा कुछ सुनाई न पड़ा।

हिन्द स्वराज का अंग्रेजी संस्करण भी स्वयं गाँधी जी का ही तैयार किया हुआ था। पर कितने लोग जानते हैं कि इस में गाँधीजी ने कुछ बातें हटा दीं और कुछ को बदला था? किसी क्लासिक रचना पर विचार के लिए ऐसी बातें भी महत्वपूर्ण विचार-विंदु बनती हैं। पर भारत के बुद्धिजीवी लोग गाँधी गुणगान को ही गाँधी-विमर्श बना बैठे हैं। उसी दयनीय रूप में जैसे लेनिन पर सोवियत संघ में लिखा-बोला जाता था।

हिन्द स्वराज के अंग्रेजी संस्करण की उन छोड़ी-बदली गई बातों का ही जायजा लें। हिन्दी संस्करण में अध्याय 9 में अंकित है, “कहा जाता है कि हिन्दू-मुसलमानों में कट्टर बैर है। हमारी कहावतें भी ऐसी ही हैं। ‘मियाँ और महादेव की नहीं बनेगी।’ हिन्दू पूर्व में ईश्वर को पूजता है, तो मुस्लिम पश्चिम में पूजता है”। आगे अध्याय 10 में, “अगर हिन्दू मानें कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए।… दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है।”

ऊपर रेखांकित की गई दोनों पंक्तियाँ गाँधी जी ने हिन्द स्वराज का अंग्रेजी अनुवाद करते हुए हटा दी। क्यों? इसका उत्तर गाँधीजी ने नहीं दिया। किसी भारतीय गाँधीवादी ने भी दिया हो, ऐसा देखने-सुनने में नहीं आया। एक ब्रिटिश विद्वान एंथनी परेल ने इस पर टिप्पणी की है। उनके अनुसार ऐसा मुस्लिम संवेदनाओं को ध्यान में रखते हुए किया गया। यदि यह सच है, तो इसका अर्थ हुआ कि हिन्द स्वराज सैद्धांतिक होने के साथ-साथ राजनीतिक-मतलबी लिखाई भी है। अर्थात्, किसी तात्कालिक उद्देश्य से तथ्यों में जोड़-घटाव या हेर-फेर से यह मुक्त नहीं है। परन्तु यह इतिहास का व्यंग्य ही है कि ठीक जिस बात को गाँधी जी ने ‘सपना’ कहा था, और इसे संवेदनशील (?) समझ अंग्रेजी में हटा दिया, ठीक वही बात 1947 में फलीभूत हुई! उस सपने और उसके पीछे की शक्ति का सही मूल्यांकन गाँधी ने नहीं किया था। या फिर उसकी शक्ति के सामने असहाय होकर गाँधी ने सत्य झुठलाने की कोशिश की, जब कहा कि “दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है।” अमेरिका, अरब और यूरोप के कई देशों में ईसाइयत और इस्लाम ने बल-पूर्वक एक राष्ट्र में एक धर्म को स्थापित किया है। फारस (पर्सिया) और ईरान में क्या अंतर है?

पुनः हिन्द स्वराज के अध्याय 10 में, “जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है।” अंग्रेजी संस्करण में इस प्रस्तुति में हिन्दुओं को पूरी तरह लपेट कर गाँधी ने सारा भेद ही मिटा दियाः “There are Hindu iconoclasts as there are Mahomedan.”। यद्यपि मूल गुजराती या हिन्दी में भी गाँधी ने ‘बुतशिकनी’ के इस्लामी उसूल जैसी बात हिन्दुओं के एक वर्ग पर भी अनुचित ही थोपी थी। आर्य समाजियों का अपने समाज में मूर्ति-पूजा विरोध और मुस्लिमों द्वारा दूसरे धर्मावलंबियों के मंदिरों, मूर्तियों को मिटाना, बुनियादी रूप से दो भिन्न बातें हैं। किंतु अंग्रेजी में तो गाँधी ने सीधे-सीधे दोनों धर्मों में ‘मूर्ति तोड़ने वालों’ का अस्तित्व कहा है। यह सत्याभासी असत्य कथन है, जिसे अंग्रेजी में सोफिस्ट्री कहा जाता है।

उसी अध्याय में आगे गाँधी कहते हैं, “अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमूँगा तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर न भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा।” यह भी एक गंभीर महत्व की प्रस्थापना है, जिसका ऐतिहासिक परिणाम मर्मांतक हो सकता है। इस में बुनियादी भूल है कि व्यक्तिगत व्यवहार के पैमाने को सामुदायिक व्यवहार के लिए भी स्वयंसिद्ध मान लिया गया है।

सामान्यतः सच है कि वैयक्तिक आचरण में विनम्रता का अनुकूल प्रत्युत्तर मिलता है। पर जब दो व्यक्ति आपस में व्यवहार कर रहे हों, तो दिए गए परिवेश की स्थिर पृष्ठभूमि रहती है। राजनीतिक मामलों में ऐसा कुछ नहीं होता। वहाँ दो पक्ष अपने हित या स्वार्थ के लिए संघर्ष, यहाँ तक कि युद्ध-रत भी रहते हैं। यह पक्ष बड़े-बड़े दल, समुदाय, देश यहाँ तक कि विभिन्न देशों के अंतर्राष्ट्रीय गुट तक होते हैं। उसके प्रतिनिधि ऐसे शिष्टाचारों के आधार पर कुछ नहीं तय करते। आपस में मीठा बोल, हँसी-मजाक करके भी वे दूसरे पक्ष को नष्ट करने, कुछ छीनने या उसका स्वत्व न देने, आदि के लिए कूट, छल और हिंसा-हत्या समेत हर उपाय करते हैं। कई बार यही उनका कर्तव्य होता है! राजपुरुष निजी इच्छा से चलने के लिए सदैव स्वतंत्र ही नहीं होते। यह राजनीति का प्राथमिक सत्य है। इसे भुलाकर निजी व्यवहार के मानदंडों से राजनीतिक, राष्ट्रीय व्यवहार में सुफल पाने का दावा भोलापन ही है। यह राजनीतिक गाँधी की सबसे भयंकर भूल थी।

गाँधी का ही उदाहरण लें, तो उन्होंने मुहम्मद अली, शौकत अली, जिन्ना, सुहरावर्दी आदि अनेकानेक मुस्लिम भाइयों से वह नहीं पाया, जिसका दावा उपर्युक्त पंक्तियों में है। उलटे, ‘बालिश्त भर झुकने’ का परिणाम मुस्लिम नेताओं द्वारा पुनः हाथ भर और लेने की जिद में बदलता गया।

डॉ. अंबेदकर ने इसे सटीक रखा था, “मुसलमानों की माँगे हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” ऐसे विचार अनेक महापुरुषों ने अनुभव से व्यक्त किए हैं। वस्तुतः अनुचित, सिद्धांतहीन रूप से झुक कर समुचित प्रतिदान पाने की दुराशा ही अंत में देश-विभाजन का कारण बनी।

हिन्द स्वराज इस गंभीर सत्य को पूर्णतः नजरअंदाज करता है। राजनीति के पैमाने निजी व्यवहार के पैमानों से भिन्न होते हैं। इसे न समझना एक अक्षम्य भूल है क्योकि इसके दुष्परिणाम लाखों, करोड़ों भले लोगों को भुगतने पड़ सकते हैं। इसलिए गाँधीजी की उक्त प्रस्थापना की अंतिम बात भी गलत है कि “…वह न भी झुके तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा।” जिस नमने से लाखों भोले देशवासियों की गरदन नप जाए, उसे अपने पुरखों की भूमि और संपत्ति से बलात् अलग होकर शरणार्थी बन जाना पड़े, उसे सही कैसे कहा जा सकता है?

उसी अध्याय में, “अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण-वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।” पुरुषार्थ की यह धारणा भारतीय शास्त्र, लोक और परंपरा में कहीं नहीं है। रामायण, महाभारत, नीति-शतक से लेकर वंदे मातरम् (समाचार पत्र) के हजारों वर्षों के अविच्छिन्न भारतीय वाङमय में यह बार-बार स्पष्ट मिलता है कि ‘परित्राणाय साधुनाम’ के लिए ‘विनाशाय दुष्कृताम’ अपरिहार्य है। बल्कि यही धर्म है, विशेषकर राज्यकर्मी का धर्म।

विचित्र बात यह है कि एक बार गाँधी ने अपने प्रसंग में अपने बेटे को एकदम विपरीत बात कही थी, जो हिन्द स्वराज में दी गई इस दलील के विरुद्ध है। अपने एक लेख ‘तलवार का सिद्धांत’ में उन्होंने लिखा कि एक बार उनके सबसे बड़े लड़के ने पूछा कि जब जोहान्सबर्ग में गाँधी पर घातक आक्रमण (1908) किया गया, तब बेटे को गाँधीजी को मरने देना चाहिए था, अथवा बल प्रयोग करके गाँधी को बचाना चाहिए था? उत्तर गाँधी के शब्दों में, “मैंने उससे कहा कि हिंसा करके भी तो मेरी रक्षा करना उसका कर्तव्य था। यही कारण था कि मैंने बोअर-युद्ध में, तथाकथित जुलू-विद्रोह में और पिछले महायुद्ध में भाग लिया।” यह लेख गाँधीजी ने 1920 में लिखा था। (इसमें गाँधी ने फिर, चाहे विपरीत दिशा में, वैयक्तिक प्रसंग और राजनीतिक प्रसंग में एक ही सिद्धांत लगाया है। मानो, गाँधी पर आक्रमण होते देख उनके बेटे का जो कर्तव्य था, वही बोअरों से युद्धरत दक्षिण अफ्रीकी सरकार, अथवा दूसरे यूरोपीय देशों से लड़ रहे अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति गाँधी का था! गाँधीजी के विचित्रतम तर्कों में इसे भी गिना जा सकता है।)

किन्तु इस दलील में सबसे अधिक ध्यान देने की बात यह है कि यह 1909 में लिखे हिन्द स्वराज तथा 1921 के बाद वाले संपूर्ण काल में गाँधी द्वारा दी गई दलीलों के सीधे विरुद्ध है। विभाजन से पहले बंगाल में हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं, तथा विभाजन के बाद भी पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में सिखों-हिन्दुओं के नरसंहार पर भी गाँधी ने कभी वह बात नहीं कही, जो बेटे को कही थी। 1946-47 में भी उन्होंने निरंतर यही कहा कि सभी हिन्दुओं को मर जाना चाहिए, मगर किसी हाल में आक्रमणकारियों के विरुद्ध हथियार नहीं उठाना चाहिए। इसे गाँधी की अहिंसा विचारधारा का ‘विकास’ भी नहीं कह सकते, क्योंकि यही बात 1909 में हिन्द स्वराज में लिखी है। केवल 1920-21 में गाँधी यह कहते मिलते हैं कि हिंसा भी करके अपने परिवारजन की रक्षा करना ‘धर्म’ है। यह दूसरी बात है कि इसी में वे ब्रिटिश सरकार और दक्षिण अफ्रीका सरकार को अपने परिवार समान बता डालते हैं। मगर यही धर्म उन्होंने पंजाब-बंगाल के सिखों-हिन्दुओं को नहीं बताया, कि अस्त्र-शस्त्र के सहारे भी अपने परिवार की रक्षा करना उचित है।

इसलिए गाँधीजी का 1920 वाला वह कथन एक अपवाद है। अहिंसा पर उनका अंतिम विचार वही था जो हिन्द स्वराज में है, कि ‘किसी को बचाने के लिए आक्रमणकारी को मारना नहीं चाहिए, बल्कि केवल चरण-वंदना करनी चाहिए’। पर यह विचार किसी रूप में शास्त्र-सम्मत नहीं है। न लोक-सम्मत। न विवेक सम्मत। यह एक विडंबना ही है कि गाँधी की विश्व-ख्याति हिंदू महात्मा के रूप में हुई, पर उनके अनेक विचार नितांत विजातीय थे। भारतीय शास्त्रों या लोक में कहीं उसकी अनुशंसा नहीं मिलती।

गाँधी जी के शब्दों में, हिन्द स्वराज “हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्म-बल को खड़ा करती है।” यहाँ ‘बल’ और ‘हिंसा’ को पर्याय मान लिया गया है। गाँधी बाहुबल को ‘पशु-बल’ कहकर लांछित करते हैं। फिर उन्होंने ‘अहिंसा’ को आत्म-बल, आत्म-बल को ‘प्रेम’ और अंततः ‘ईश्वर’ का समानार्थी बना दिया। यह सब सुनने में चाहे अच्छा लगे, किंतु यह भारतीय चिंतन के विरुद्ध है। किसलिए और किस पर बल का प्रयोग हुआ, इसके आधार पर ही यहाँ किसी को हिंसा कहा जाता रहा है। शस्त्र-प्रयोग मात्र हिंसा नहीं है। किंतु गाँधी यही मानते थे, और हर हाल में अस्त्र-शस्त्र प्रयोग के विरोधी थे। यहाँ तक कि दुष्टों, हिंसक गिरोहों के विरुद्ध भी।

गाँधी सदैव दुहराते थे कि यदि कोई दुष्ट समझाने पर भी न माने तो कुछ नहीं किया जा सकता। अहिंसक सत्याग्रही के पास इस के बाद उस हिंसक को अपनी मनमानी करने देने और स्वयं मर जाने, ‘आत्म-बलिदान’ के अलावा कोई मार्ग नहीं। दूसरे शब्दो में, यह उत्पीड़न को चुपचाप देखना, आत्महत्या या अकर्मण्यता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसे कोई महान गाँधी-विचार मानना चाहे तो माने, किंतु भारतीय धर्म-परंपरा इस की अनुशंसा नहीं करती।

किंतु गाँधी ने असंख्य बार कहा कि किसी अत्याचारी, बलात्कारी, दुष्ट को “मारने की अपेक्षा मर जाएं”। खलीफत आंदोलन में जिहादियों के हाथों मोपला के हिंदुओं पर हुए भीषण अत्याचारों पर उन्होंने यही कहा था। ऐसी ही सलाह उन्होंने ब्रिटिश लोगों को बिन माँगे दी जब उन पर हिटलर का आक्रमण आसन्न दिख रहा था। यही उन्होंने उन लाखों यहूदियों के लिए कहा था जिन्हें 1939-45 के बीच जर्मन नाजियों और रूसी कम्युनिस्टों ने यूरोप में मौत के घाट उतार दिया था।

गाँधी की जीवनी लिखने वाले जर्मन लेखक लुई फिशर ने बाद में भी उन से पूछा कि इतनी बड़ी संख्या में बेचारे निरीह, निर्दोष यहूदी मारे गए! क्या उनके द्वारा हथियार उठाकर हत्यारों का प्रतिरोध करना उचित न होता? उत्तर में गाँधी ने कहा, नहीं। यानी वे निरपराध यहूदी अबाल-वृद्ध-नारी-युवा असहाय मर गए, यही उचित हुआ। उनका अस्त्र-शस्त्र उठाकर नाजियों का प्रतिकार करना गलत होता। अर्थात् अहिंसा के लिए सामूहिक, बिना शर्त आत्महत्या यही व्यवहार में गाँधीवादी अहिंसा थी।

यह भी गाँधी चिंतन की एक विशेषता है कि कई बार वह किसी नितांत अप्रमाणित बात को भी अपनी ओर से ही स्वयंसिद्ध मानकर दूसरों पर थोपती है। जैसे, हिन्द स्वराज के अध्याय 17 में, “सत्याग्रह सबसे बड़ा – सर्वोपरि बल है। वह जब तोपबल से ज्यादा काम करता है, तो फिर कमजोरों का हथियार कैसे माना जाएगा? सत्याग्रह के लिए जो हिम्मत और बहादुरी चाहिए, वह तोप का बल रखने वाले के पास हो ही नहीं सकती”। इतना गंभीर दावा लेनिनीय शैली में केवल दावा करके ही सिद्ध मान लिया गया है।

तब क्या राणा सांगा, प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह, शिवाजी, झाँसी की रानी, आदि देसी योद्धा अथवा नेपोलियन, सिकंदर, बाबर, जैसे विदेशी लड़ाके ‘हिम्मत और बहादुरी’ में हीन थे? इस तरह के दावे करके सत्याग्रह को ‘सर्वोपरि’ बताना बचकानी या मतवादी जिद है, कोई सुसंगत विचार नहीं। हिम्मतवरी अलग-अलग व्यक्तियों के चरित्र का अंग होती या नहीं होती है। इसका उसके हाथ में आयुध होने या न होने, शांति-प्रिय या झगड़ालू, सत्यभाषी या मक्कार होने आदि से कोई संबंध ही नहीं होता।

अतः किसी भी तरह से देखें, अहिंसा की गाँधीवादी व्याख्या रामायण और महाभारत की शिक्षाओं के नितांत विरुद्ध है। सारे के सारे हिन्दू देवी और देवता अस्त्र-शस्त्र धारी हैं। यहाँ तक कि विद्या की देवी सरस्वती भी। सभी पौराणिक कथाएं और महाकाव्य दुष्टों का वध करने और पापियों को दंडित करने की गाथाओं से ओत-प्रोत हैं। योगीश्वर कृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर ने भी शस्त्र उठाकर धर्म-रक्षा की थी। वन में ऋषियों के यज्ञ का ध्वंस करने वाले राक्षसों से उनकी रक्षा सभी राजकुमार धनुष-बाण से ही करते थे। कहीं भी असुरों, राक्षसों या पापियों “के मन से बुराई का बीज ही निकाल देने” के विचार तक का संकेत नहीं मिलता है।

भारतीय धर्म-प्राणता में शौर्य का भी ऊँचा स्थान रहा है। हिन्दू शिक्षा-दीक्षा में अस्त्र-शस्त्र संचालन का प्रमुख स्थान था। उसे धर्म, दर्शन और नैतिकता के ज्ञान से दूर या हीन नहीं माना गया। गुरु वशिष्ठ हों या गुरू द्रोणाचार्य, उन की दी गई शिक्षाओं में अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा का प्रमुख स्थान था। किसलिए? क्या वे सत्य, अहिंसा और धर्म के महान ज्ञाता नहीं थे?

शस्त्र न उठाने की टेक किसी संत और सन्यासी के व्यक्तिगत व्यवहार के लिए सही हो सकती है। उसे पूरे समाज के राजनीतिक व्यवहार के लिए लागू मान लेना एक भयंकर भूल थी। वह विपरीत फलदायी थी। देश का विभाजन और लाखों का संहार उसी भूल का परिणाम था, यह हम कितने दिन छिपाएंगे!

यहाँ श्रीअरविन्द के शब्द याद करें, “यदि अहिंसा का गुण क्षत्रिय में आ जाए, यदि तुम कहो कि मैं मारूँगा नहीं, तो देश को बचाने वाला कोई नहीं रहेगा। लोगों की खुशी टूट जाएगी। अन्याय और अराजकता का बोलबाला हो जाएगा। वही गुण दुःख का स्त्रोत बन जाएगा और लोगों में दुःख और द्वंद्व लाने में तुम साधन बन जाओगे।” क्या 1947 में पूर्वी बंगाल और पश्चिमी पंजाब के हिंदुओं-सिखों का यही नहीं हुआ?

अहिंसा की गाँधी धारणा को समाज और राजनीति पर लागू करना राक्षसी राज स्वीकार करने से भिन्न नहीं है। इस पर रामायण, महाभारत, आदि के निर्देशों का ध्यान दिलाने पर गाँधी कभी स्पष्ट उत्तर नहीं देते थे। किसी हत्यारे, आततायी से भी विनती से सिवा कुछ न करने का ‘सिद्धांत’ उनका निजी था, जिसे वह व्यवहार में कभी प्रमाणित न कर सके। उसमें अत्युक्ति यह भी थी इसे वे अपनी राय न कह कर ‘सब धर्मों’ और ‘पूर्वजों’ की सीख भी बताकर वजनी बनाने का प्रयत्न करते थे।

सच यह है कि सत्याग्रह-अहिंसा की धारणा का गाँधी के लिए अपना मनमाना अर्थ था। जिस से कोई सामान्य सिद्धांत या मार्ग-दर्शन बनाना असंभव है। स्वयं गाँधी जी ने स्पष्ट कहा भी था कि सत्याग्रह के सिद्धांत को उनके अलावा कोई नहीं समझता। यह 1939 की बात है। तब स्पष्ट ही था कि दूसरों के लिए सत्याग्रह-अहिंसा को अपना मार्गदर्शक बनाना असंभव है। अतः गाँधी जी का अहिंसा-सत्याग्रह यदि कोई सिद्धांत था, तो उनके साथ ही समाप्त हो चुका। व्यवहार भी इसकी पुष्टि करता ही है। इसीलिए आज कोई गाँधीवादी किसी माओवादी, जिहादी, या आतंकवादी से कोई दलील करने नहीं जाता। न सत्याग्रह का उपयोग करते हुए कुछ करता ही नजर आता है। यह गाँधीवादियों की कमी नहीं, गाँधीवाद की है। डॉ. लोहिया होते तो इस बात को खारिज नहीं करते।

2 COMMENTS

  1. गाँधी के कर्म से कुछ सिखा जा सकता है. मगर उनके विचारों से जरा बच के ही रहना ठीक है. उसमे नीम-हकीमी ज्यादा है.

  2. श्री शंकर शरण जी को इस विद्वता पूर्ण आलेख के लिए कोटि कोटि साधुवाद. इस लेख का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो तो और भी अच्छा होगा. उन्होंने बिलकुल ठीक लिखा है की गाँधी, उनके व्यक्तित्व, उनका लेखन, उनके विचार और उनके राजनीतिक क्रिया कलाप व देश व समाज पर उसके अच्छे बुरे प्रभावों का उचित व निष्पक्ष मूल्यांकन होना अति आवश्यक है. केवल दीवार पर लाठी लेकर खड़े एक बूढ़े के तस्वीर टांगने से कोई अंतर नहीं पड़ता. लेकिन जिस व्यक्ति ने पूरे इतिहास क्रम को प्रभावित किया है उसका सही और उचित मूल्यांकन तो होना ही चाहिए. शायद इस कार्य के लिए श्री शंकर शरण जी जैसे विद्वान् की प्रतीक्षा है.

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