नौकरशाही को लोकशाही में बदलने की चुनौती

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-सत्यव्रत त्रिपाठी-

bureaucratपॉलिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कंसलटेंसी की ताजा रिपोर्ट में भारत, इंडोनेशिया और फिलीपींस, ये तीन देश एशिया के सबसे भ्रष्ट और निकृष्ट नौकरशाही वाले देश घोषित किए गए हैं। कहा गया है कि इन देशों की नौकरशाही (ब्यूरोक्रेसी) असक्षम एवं लालफीताशाही से बंधी हुई है। वहीं सिंगापुर तथा हांगकांग की नौकरशाही को सबसे ज्यादा सक्षम माना गया है।

रिपोर्ट में कहती है कि भारतीय राजनेता हमेशा यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि वो देश से भ्रष्टाचार को खत्म कर देंगे, तथा नौकरशाही में सुधार लाएंगे। लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहता है। सत्ता का केंद्र होने की वजह से नेता भी इसमें सुधार करने में असक्षम हैं। इसका सबसे बुरा असर विदेशी निवेश पर पड़ रहा है, और यदि इसे सुधारा नहीं गया तो हालात बदतर होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।

वैसे रिपोर्ट की बात जो है सो है लेकिन सच्चाई यह है कि नौकरशाही कई मौकों पर नेताशाही पर हावी साबित हो जाती है। हम उत्तर प्रदेश का उदाहरण लेते हैं। लगभग यहां हर वर्ष आयकर और भ्रष्टाचार निरोधक दस्ते द्वारा नौकरशाहों के घरों एवं संबंधित स्थानों पर छापा मारा जाता है और करोड़ों की संपत्ति का पता चलता है। लेकिन इन नौकरशाहों पर कभी कार्रवाई नहीं होती है। मामला चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो। ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं, बस थोड़ा सा फ्लैशबैक में जाने की जरूरत है। लेकिन यही नौकरशाह चाहें तो नेताओं के घोटाले जरूर उजागर हो जाते हैं। जैसा कि होता रहा है पूरे देश में। कई बार ऐसा नहीं भी होता है। क्योंकि वहां आपसी मेलजोल से काम हो कर लिया जाता है। दरअसल, यह एक गठबंधन है। नेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार का गठबंधन। वर्तमान परिस्थिति में इसे खत्म करना हमारे देश में तो मुमकिन नहीं जान पड़ता है।

इसकी कई वजह हैं। पहली तो यह कि हमारे देश की शिक्षण व्यवस्था ऐसी है कि यहाँ पढ़ाई से ही बंटवारा हो जाता है जो सबसे तेज है पढ़ने में वह सिविल सर्विसेज में या फिर डॉक्टर , इंजीनियर होता है ठीक ईसी तरह यह वर्गीकरण निचले स्तर तक आता है ऐसे उदाहरण बहुत कम है कि ‘माननीय’ नेता उच्च शिक्षा प्राप्त है जो हैं भी वे भी अधिकांश नेताओ के पुत्र पुत्री होते हैं जो कि किसी कॉर्पोरेट घराने  की तरह अपना पारिवारिक रोजगार आगे बढ़ाते हैं, प्राय: या तो कम पढ़े-लिखे या फिर लगभग अनपढ़ नेता होते हैं। उनके लिए देश के विकास से अभिप्राय सिर्फ भाषण देने, दौरे और बयानबाजी तक ही सीमित होती है। सरकारी कामकाज और क्रॉस चेकिंग जैसा काम सिर्फ गिने-चुने नेता ही करते हैं। या यूं कहें कि स्कॉलर टाइप के नेता ही ऐसे कामों में रुचि लेते हैं।

इसका सीधा फायदा मिलता है नौकरशाहों को। वो अपनी सुविधानुसार इन ‘माननीयों’ को समझाते रहते हैं। हम लोग आए दिन इस तरह की खबरें पढ़ते रहते हैं कि फलां नेता या मंत्री अपने विभाग के नौकरशाहों से परेशान है। कलेक्टर से परेशान है, वगैरह। लेकिन उनकी कोई सुनता नहीं है। वहीं कई बार ऐसी खबरें भी आती हैं कि नेताओं की वजह से परेशान नौकरशाह या तो प्रतिनियुक्ति में चले जाते हैं या फिर तबादला ले लेते हैं।

दूसरी सबसे प्रमुख कमी हमारी चुनाव व्यवस्था में संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के अनुसार कुल मत का 15 प्रतिशत मत पाकर जितने वाला क्या बदलाव लायेगा उसकी योजना सोच उन्हीं 15 प्रतिशत लोगों के लिए होगी जिनके मत पाकर वह जीतता आया है।

तीसरी  वजह को गठबंधन या ‘नेक्सस’ भी कहा जा सकता है। कुछ ‘समझदार’ टाइप के नेता इस तरह की व्यवस्था बनाकर चलते हैं, जिससे उनके भ्रष्टाचार की राह एकदम आसान बनी रहे। इसके लिए वो अपने नजदीकी नौकरशाहों की टीम बनाते हैं, जिनके साथ मिलकर कानूनी तरीके से भ्रष्टाचार किया जा सके। इस भ्रष्टाचार के कई तरीके हैं, मसलन पसंदीदा पद या विभाग में अपने ‘खास’ अधिकारी की नियुक्ति। ऐसे में बिना किसी लाग लपेट के सारे काम आसानी से हो जाते हैं।

ऐसी व्यवस्था आपको पंचायत से लेकर नगर निगम तक और राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार तक में देखने को मिल सकती है। बस जरूरत है तो समीकरणों को समझने की। कई ऐसे उदाहरण मौजूद भी हैं, जो वर्तमान में सत्तासीन हैं।

यहां एक बात और बताना ठीक रहेगा कि जो नौकरशाह होते हैं, ये अपना करियर पाथ बड़े ही व्यवस्थित तरीके से बनाकर चलते हैं, ताकि रिटायरमेंट के बाद भी ‘व्यवस्था’ बनी रहे। कहने का मतलब कि यह तो आप सबने देखा ही होगा कि कैसे रिटायरमेंट के बाद कई आला नौकरशाह राजनीति के गलियारे में पहुंच जाते हैं। इस गलियारे में पहुंचने का रास्ता, विधान सभा, राज्य सभा, लोकसभा या किसी आयोग के रास्ते से होकर आता है। यहां आने का मकसद हमेशा जनसेवा तो नहीं होता है। क्योंकि नौकरशाह होकर जब काम नहीं कर सके तो नेता बनने के बाद क्या करेंगे, इसमें संशय तो रहेगा ही।

इसका खामियाजा हमको और आपको भुगतना पड़ता है किसी भी छोटे या बड़े ऑफिस में चले जाइये फाइलों का अम्बार लगा होता है काम का दबाव ज्यादा होने का रोना रोते सभी अधिकारी और कर्मचारी मिल जयेह्गे लेकिन वही काम के हिसाब से मेज के नीचे से दिए जाने वाले दाम वह काम 10 गुनी ज्यादा गति से होता है

कुल मिलाकर बात यह है कि जिस तरह से टेक्नोलॉजी दिनों दिन अपडेट होती रहती ही उसी तरह से हमें अपने डेमोक्रेटिक सिस्टम को भी अपडेट करना होगा जब तक हम किसी भी पार्टी या नेता को वोट देने से पहले उसके चुनावी घोषणापत्र या उम्मीदवार की चारित्रिक एवं शैक्षिक योग्यता जाने बिना वोट करते रहेंगे, तब तक हाल यही रहेगा

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