बदलती अर्थव्यवस्था में कम ह्रुए उपभोक्ता

-प्रमोद भार्गव-

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नरेंद्र मोदी सरकार की उम्र एक वर्श हो गई है। इस एक साल के भीतर राजग सरकार ने वैश्विक फलक पर पूंजी निवेश का जो माहौल तैयार किया है, उससे भारतीय अर्थव्यवस्था के कायापलट की उम्मीद बढ़ी है। इसे और गति देने की मंशा से ही भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक और वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम लाने की जुगाड़ में सरकार है। बावजूद सरकार फिलहाल ऐसे उपाय करने में अभी पिछड़ती दिखाई दे रही है, जिससे ग्रामीण और कम आमदनी वाले लोगों की उपभोक्ता सामग्री खरीदने की क्शमता बढ़े ? क्योंकि मौजूदा परिदृश्य में टीवी, फ्रिज, कूलर और वाहन तभी बिकेंगे, जब मध्य और निम्न आय वर्ग के व्यक्ति की आमदनी में बढ़ोत्तरी हो ?
मोदी सरकार आर्थिक मोर्चे पर पिछले एक साल में लगभग सफल रही है, क्योंकि उसकी आर्थिक वृद्धि दर के संकेत बढ़त में हैं। राजस्व और चालू खाता दोनों ही नियंत्रण में हैं। पूंजी की तरलता 1991-92 के बाद से सबसे ज्यादा है। सरकार को सबसे बड़ी कामयाबी राजकोशीय घाटे को कम करने में मिली है। तात्कालिक अनुमान के अनुसार यह घाटा सकल घरेलू उत्पाद दर के 4 प्रतिशत तक आ गया है। जबकि संप्रग सरकार के सत्ता से बेदखल होने के समय यह घाटा 4.4 फीसदी था। इस दौरान लगातार शेयर बाजार में भी उछाल देखने में आता रहा है। इसीलिए एसौचेम ने इस सरकार को 10 में से 7 नबंर देकर सरकार के कामकाज की प्रशंसा की है। रेंटिग एजेंसी मूडी ने भी भारत की आर्थिक वृद्धि को स्थिरता तोड़ते हुए सकारात्मक गतिशील कहा है।

इस स्थिति का निर्माण इसलिए संभव हुआ, क्योंकि एक तो वैश्विक स्तर पर अप्रत्याशित रूप से तेल के दाम गिरते चले गए। नतीजतन सरकार की मुद्रास्फीति और सब्सिडी के मोर्चे पर चुनौतियां स्वतः कम होती गईं। सरकार ने तेल मूल्यों का विकेंद्रीकरण किया। तेल के मूल्य निर्धारण की जिम्मेबारी तेल उत्पादक कंपनियों को सौंप कर सरकार लाभ-हानि के धंधे से बरी हो गई। इस वजह से डीजल की कीम पेट्रोल की दर के लगभग बराबर हो गई। नतीजतन डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी खत्म हो गई। इस बीच कोयला का उत्पादन भी 8.3 प्रतिशत बढ़ा है। यह पिछले 23 साल में सबसे अधिक है। बीमा क्षेत्र में उदारीकरण की पहल करके, इसमें पूंजी निवेश के रास्ते खोल दिए है। इससे नए रोजगार के अवसर पैदा होने की संभावनाएं बढ़ी हैं।
सरकार का ‘मेक इन इंडिया‘ मसलन ‘भारत बनाओ‘ का स्वप्न दीर्घकाल में अच्छी योजना साबित हो सकती है। रक्षा क्षेत्र में प्रत्यक्श पूंजी निवेश की जो मंजूरी दी है, उससे हमारी सामरिक शक्ति तो बढ़ेगी ही, यदि हम रक्षा उत्पादों की मात्रा बढ़ाने में कामयाब होते हैं तो रक्षा सामग्री का निर्यात करके विदेशी पूंजी भी कमा सकते हैं। हम अंतरिक्ष में दूसरे देशों के उप्रगह स्थापित करके यह व्यापार करने भी लग गए हैं। ब्रह्मोस मिसाइल बनाने की सफलता भी हमने रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की स्वीकृति देकर ही प्राप्त की थी।

आर्थिक सुधार की दिशा में आधार कार्ड के जरिए सब्सिडी पर नियंत्रण और जन-धन योजना के तहत खोले गए 15 करोड़ खातों में जमा हुई 10, 000 करोड़ रूपए की धनराशि की भी अहम् भूमिका रही है। ये दोनों उपाय देश के भविश्य का आर्थिक बुनियादी ढांचा तैयार करने का आधार बनेंगे, ऐसी प्रत्याशा है। क्योंकि इससे सब्सिडी का जो दुरूपयोग हो रहा था, वह रुक जाएगा। फिलहाल सब्सिडी उद्योग या कंपनियों को दी जाती थी, इस वजह से लाखों फर्जी घरेलू-गैस उपभोक्ता बना दिए गए थे, जिन पर काबू पा लिया गया है। आगे भी सब्सिडी केवल लक्शित लोगों और समूहों तक सीधे बैंक खातों के मार्फत पहुंचे, ऐसी कार्य-योजनाएं तेजी से अमल में आ रही हैं। तय है, इन उपायों से हजारों करोड़ रूपए का जो भ्रष्टाचार सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थागत ढांचों के जरिए गतिशील रहता था, वह बाधित होता चला जाएगा। वैसे भी प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत ईमानदारी और रिश्वतखोरों के प्रति सजगता के चलते उच्च स्तर पर चलने वाले भ्रष्टाचार में आश्चर्यजनक कमी आई है। इस पूरे एक साल में एक भी भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया है, अन्यथा डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार तो अपने दूसरे कार्यकाल में घपलों और घोटालों की सरकार ही बनकर रह गई थी। भ्रष्टाचार पर लगाम से देश में ही पैदा होने वाले कालाधन पर भी अंकुश लगेगा।

इस सब के बावजूद मोदी सरकार अभी निम्न मध्य और निम्न वर्ग को संतुश्ट करने के उपाय जमीन पर नहीं उतार पाई है। स्वास्थ्य और शिक्शा के क्षेत्रक्षेत्रक्षेत्र में बीते एक साल के भीतर उसकी कोई उल्लेखनीय उपलंब्धियां सामने नहीं आई हैं। पटना में नालंदा के सात वार्शीय छात्र कुमार राज ने शिक्शा में भेद को लेकर जो सवाल उठाएं हैं, उन सवालों का दायरा, केवल बिहार न होकर पूरा देश है। इनमें पहला सवाल सरकारी और निजी विद्यालयों में फर्क का था। और दूसरा था कि क्या कारण है कि जो शिक्शक जिस स्कूल में पढ़ाते हैं, वे स्वंय क्यों अपने बच्चों को उस स्कूल में नहीं पढ़ाते ? शिक्शा के क्षेत्रक्षेत्रक्षेत्र में यह निर्लजज्तापूर्ण असफलता है, जिसे दूर करने के उपाय पिछले एक साल में कहीं दिखाई नहीं दिए ?

आम आदमी की मोदी सरकार से मायूसी का एक अन्य पहलू नेल्सन के आंकड़ों से प्रगट हुआ है। नेल्सन के मुताबिक पिछले वित्त वर्श में उपभोक्ता सामान की खरीद में जबरदस्त कमी आई है। यह गिरावट पिछले एक दशक में न्यूनतम स्तर पर है। उपभोक्ता बाजार की यह वृद्धि दर 7.7 फीसदी रही है। जबकि वित्तीय वर्श 2013-14 में उपभोक्ता बाजार की वृद्धि दर 10.6 फीसदी रही थी। हालांकि उद्योग जगत को आशा है, अर्थवयवस्था को गति देने के उपायों में जिस तेजी से सरकार लगी है, उसके चलते खरीद में आई मंदी टूटेगी। लेकिन कमजोर मानसून के जो संकेत मौसम विभाग की भविश्यवाणी दे रही है और स्थिति वही रहती है तो हालात और ज्यादा भी बिगड़ सकते हैं ? पहले ही बेमौसम बारिश से फसलें को जो हानि हुई है, उससे खेती-किसानी से जुड़े लोगों के हालात बद्तर ही हुए हैं। उपभोक्ता सामग्री की खरीद में आई कमी की एक वजह यह भी रही है।

उपभोक्ना सामग्री की ब्रिकी में आने की एक दूसरी वजह जन कल्याणकारी योजनाओं के मदों में कटौती भी है। मनरेगा समेत अनेक ऐसी योजनाओं के मद में बजट प्रावधान कम कर दिए हैं, जो कमजोर तबकों के सशक्तीकरण से सीधा संबंध रखते हैं। इस बार केंद्र सरकार द्वारा गेहूं की फसल पर दिया जाने वाला बोनस भी नहीं दिया गया। गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर बकाया 21 हजार करोड़ रूपए की सीमा पार कर गया है। यहां घ्यान देने की बात है कि संप्रग सरकार के 10 साल में राजकोशीय घाटा जरूर चिंताजनक था, रूपए का अवमूल्यन हो रहा था और मंहगाई उत्तरोतर बढ़ रही थी, बावजूद कल्याणकारी योजनाओं के मद में कटौती नहीं की गई। यही वजह थी कि उपभोक्ता सामान खरीदते रहे। गोया, अर्थव्यवस्था के कायापलट करने के चट्टानी इरादों के बीच मोदी सरकार के लिए जरूरी है कि आम आदमी की क्रय-शक्ति बढ़ाने के उपाय भी करे, जिससे उद्योगों में उत्पादित हो रही वस्तुओं को ग्राहक मिलें। ऐसा होता है तो जमीन पर भी अर्थव्यवस्था गति पकड़ती दिखाई देगी और गरीब आदमी की खुशहाली प्रगट होगी।

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