योगेश्वर श्रीकृष्ण का चरित्र, भागवतादि पुराण और महर्षि दयानन्द’

1
603

sudarshan chakraश्रीकृष्ण योगेश्वर थे, महात्मा थे, महावीर और धर्मात्मा थे। महाभारत में उनके इसी स्वरूप के दर्शन होते हैं। यद्यपि मध्यकाल में महाभारत में भारी प्रक्षेप हुए हैं परन्तु फिर भी उसमें श्रीकृष्ण जी पर ऐसे घिनौने आरोप नहीं लगाये जैसे भागवत व अन्य पुराणों में लगाये गये हैं। इससे हमारा सनातन वैदिक धर्म बदनाम हुआ और विधर्मियों ने इसका लाभ उठाया। स्थिति यह थी कि वेदों का पठन पाठन न होने अज्ञान का सर्वत्र प्रभाव था। स्वार्थी अपने स्वार्थ की सिद्धि में तत्पर थे। उसी की देन यह पुराण ग्रन्थ हैं। सत्य व यथार्थ को विस्मृत कर देने और श्री कृष्ण जी जैसे महापुरूषों का चरित्र हनन होने से देश व समाज दिन प्रतिदिन पतन की ओर अग्रसर था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द जी का आविर्भाव होने पर उन्होंने गुरू विरजानन्द जी से प्राप्त आर्ष दृष्टि से सभी ऐतिहासिक स्थापनाओं की जांच की। गुरू विरजानन्द जी ने उन्हें बताया था कि जिन ग्रन्थों में पूज्य महापुरूषों की निन्दा आदि हो वह स्वार्थी व अज्ञानी लोगों के बनाये हुए ग्रन्थ होते हैं। पुराणादि ग्रन्थों के रचयिताओं को भाषा का तो ज्ञान था परन्तु वह सत्य ज्ञान व विद्या से कोसों दूर थे। वह हमारे ऋषि-मुनियों के ज्ञान व आचरण के सर्वथा विपरीत दुर्बल विचारों वाले मनुष्य थे। अतः महर्षि दयानन्द ने महाभारत का अध्ययन कर श्रीकृष्ण जी के सत्य चरित को जाना और उसके आधार पर पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण जी के मिथ्या आरोपों का निराकरण करते हुए सत्य वचनों को प्रस्तुत किया। सत्यार्थप्रकाश के ग्याहरवें समुल्लास में उन्होंने श्रीकृष्ण जी के विषय में जो लिखा है वह प्रत्येक भारतीय के लिए पठनीय है। उसे प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ‘‘देखो ! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत (ग्रन्थ) में अत्युत्तम है। उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरूषों के सदृश है, जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा। और इस भागवत वाले (पुराण के रचनाकार ने) ने अनुचित मनमाने दोष (श्रीकृष्णजी पर) लगाये हैं। (उन पर) दूध, दही मक्खन आदि की चोरी लगाई और कुब्जा दासी से समागम, पर स्त्रियों से रासमंडल क्रीड़ा आदि मिथ्या दोष श्रीकृष्ण जी में लगाये हैं। इसको पढ़-पढ़ा, सुन-सुना के अन्य मत वाले श्रीकृष्ण जी की बहुत सी निन्दा करते हैं। जो यह भागवत (पुराण) न होता तो श्रीकृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्योंकर होती?

 

शिवपुराण में बारह ज्योतिर्लिगं लिखे हैं, उसकी कथा सर्वथा असंभव है, नाम धरा है ज्योतिर्लिगं और जिनमें प्रकाश का लेश भी नहीं। रात्रि को बिना दीप किये (किये) लिंग भी अन्धेरे में नहीं दीखते। ये सब लीला पोप जी की है।

 

(प्रश्न) जब वेद पढ़ने का सामर्थ्य (लोगों में) नहीं रहा, तब स्मृति, जब स्मृति के पढ़ने की बुद्धि नहीं रही, तब शास्त्र, जब शास्त्र पढ़ने का सामर्थ्य न रहा, तब पुराण बनाये, केवल स्त्री और शूद्रों के लिये, क्योंकि इनको वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार नहीं है।  (उत्तर)  यह बात मिथ्या है, क्योकि सामथ्र्य पढ़ने-पढ़़ाने से होता है और वेद पढ़ने-सुनने का अध्किार सब को है। देखों, गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जानश्रुति शूद्र ने भी वेद ‘रेक्यमुनि’  के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के 26 वें अध्याय मन्त्र 2 में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्य मात्र को है। पुनः जो ऐसे ऐसे मिथ्या ग्रन्थ (पुराणदि) बना, लोगों को सत्य ग्रन्थों (वेद, दर्शन व उपनिषद आदि) से विमुख रख जाल में फसा अपने प्रयोजन को साधते हैं, वे महापापी क्यों नहीं?’’

 

सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग ही मनुष्यों का धर्म है। सत्य ही मनुष्यों की उन्नति का प्रमुख कारण है, असत्य नहीं। प्रत्येक मनुष्य को अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। यह वैदिक सिद्धान्त हैं। इस हित दृष्टि से यह विचार प्रस्तुत किये हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अघ्ययन कर मनुष्य में सत्य व असत्य का निर्धारण करने की शक्ति अर्थात् विवेक उत्पन्न होता है। अतः सर्वहितकारी होने के कारण सबको अकारण ही सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिये। इसी में मनुष्य जाति का हित छिपा है। यह सत्य एवं प्रमाणिक है कि श्रीकृष्ण जी योगेश्वर, महात्मा, महाप्रज्ञ, एकपत्नीव्रतधारी, ब्रह्मचारी, सदाचारी, देशभक्त, ईश्वरभक्त, वेदभक्त, सज्जनों के मित्र, दुष्ट-शत्रुहन्ता, केवल एक सन्तान के पिता तथा सत्यनिष्ठ महापुरूष थे।

 

यद्यपि श्रीकृष्ण हमारे सनातनी बन्धुओं के अराध्य व उपास्य हैं तथापि उनके चरित्र की रक्षा व उनके ऊपर लगाये गये मिथ्या दोषों से उन्हें मुक्त कराने के कारण उनके वास्तविक उत्तराधिकारी यदि कोई है तो वह महर्षि दयानन्द व उनकी संस्था आर्यसमाज है।

1 COMMENT

  1. डॉ मन मोहन आर्य जी ने श्री कृष्ण के जीवन की अच्छी व्याख्या दी है । ऋषि दयानन्द ने श्री कृष्ण को आप्त पुरुष कहा है जो सर्वथा उचित है क्योंकि श्री कृष्ण का जीवन इतना अधिक संघर्षपूर्ण रहा है कि उन के पास किसी प्रकार के प्रपंच में पदने का समय ही नहीं था। रास लीला करना, दही – माखन चुराना, कुब्जा के साथ कहानी जोड़ना अथवा गिरिराज पर्वत को उठाना ये सब उन के व्यक्तित्व के प्रतीक मात्र थे। श्री कृष्ण का जन्म से लेकर देह त्याग तक का जीवन एक असाधारण जीवन था। अगर श्री कृष्ण के व्यक्तित्व को निष्पक्ष रूप में देखना है तो के एम मुंशी द्वारा रचित ‘क़ृष्णावतार’ के ‘बंसी की धुन’ को पढ़ें ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here