तीसरे मोर्चे का राष्ट्रीय विकल्प

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प्रमोद भार्गव

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव परिणामों की पृष्ठभूमि में तीसरे मोर्चे की आहट सुनार्इ देने लगी है। अखिलेश यादव के उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद तय है कि मुलायम सिंह के इर्द गिर्द तीसरे मोर्चे की धुरी की प्रक्रिया तेजी से घूमने वाली है। कांग्रेस कितनी चिंता और हड़बडी में कि उसने ममता बनर्जी पर सख्ती दिखाते हुए उनका अखिलेश के शपथ समारोह में जाना भी निरस्त करा दिया। तय है कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक उदारवादी नीतियां हासिए पर जाने वाली हैं। वैसे भी इन नीतियों को पांच प्रांतों ने नकारने की पुष्टि चुनाव परिणाम घोषित होने साथ कर दी है। ये नीतियां प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध और अवैध दोहन के बूते बजूद में बनी हुर्इं हैं। इस लिहाज से केंद्रीय सत्ता में बदलाव की जरुरत है। यह जनादेश जाति और धर्म की राजनीति से उपर है। साथ ही इसने कांग्रेस की छदम धर्मनिरपेक्षता और भाजपा की धार्मिक कटटरता को भी आर्इना दिखाया है। भ्रष्ट आचरण को बहाल रखते हुए मायावती जिस सामाजिक यांत्रिकी के बूते बसपा को अखिल भारतीय आधार देना चाहती थीं, उसके आकार को लघु करके मतदाता ने संकेत दिया है कि प्रवृतितयों में अतिवाद अब जनता बरदाश्त करने को तैयार नहीं। इस लिहाज से छले कुछ सालों में विधानसभाओं के आए चुनाव नतीजे यह तय कर रहे हैं कि प्रांतीय राजनीतिक नेतृत्व सशक्त होने के साथ प्रशासन की दृष्टि से सुशासन की ओर बढ़ता हुआ संघीय ढांचे को मजबूती दे रहा है। यह स्थिति भारतीय लोकतंत्र को पुख्ता व परिपक्व बनाने वाली है। परिणामों के तत्काल बाद तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव जरुरत की मांग करके केंद्र की स्थिरता को डगमगा दिया है।

इन नतीजों ने केंद्र में अनिश्चय के अंधकार को गहरा दिया है। कांग्रेस और भाजपा की नीतियां कमोबेश एक जैसी हैं। पूरे पांच साल काम करने का सुनहरा अवसर मिलने के बावजूद बसपा भी इन्हीं नीतियों से कदमताल मिलाती दिखी। दबंगों को लुभाने के लिहाज से उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति, जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत आने वाले 22 प्रकार के अपराधों को संज्ञान में लेने वाले मामलों को हत्या और बलात्कार तक ही सीमित कर दिया गया था। लिहाजा नतीजों के फौरन बाद उत्तरप्रदेश में दबंग और दलितों के बीच जातीय आधार पर जो उत्पीड़न का शर्मनाक सिलसिला तेज हुआ है, इस प्रकृति के अपराध अब गंभीर और गैर जमानती अपराधों की श्रेणी में नहीं आएंगे। उत्तरप्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सिलसिला भी सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से जारी था। चिकित्सा और तकनीकी संस्थानों में प्रवेश पा जाने वाले वंचित तबकों के छात्रों का जातीय और अंग्रेजी में दक्ष न होने के आधार पर इस हद तक उत्पीड़न जारी है कि अब तक 18 छात्र आत्महत्या कर चुके है। अनिल कुमार मीणा ने तो हाल ही में एम्स में ऐसे ही उत्पीड़न के चलते आत्महत्या की है। लखनउ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्व विद्यालय में करीब 50 ऐसे वंचित तबकों के छात्र हैं, जिन्हें अच्छी अंग्रेजी न आने कारण लगातार फेल किया जा रहा है, किंतु मायावती ने इस भाषायी समस्या के निदान की कभी पहल नहीं की। ऐसे में यदि कहा जा रहा है कि मायावती का दलित वोट बैंक भी खिसका है, तो इसमें अनहोनी क्या है ?

जनता के बुनियादी हितों और घोषणा-पत्र में किए वादों से आंख चुराने के कारण ही मतदाता ने कांग्रेस, भासपा और बसपा से मोहभंग होने की तसदीक कर दी है। वरना उत्तरप्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद मायावती दलित हितों की रक्षा और सर्वजन के नारे के बूते दिल्ली की राजगद्दी हथियाने की दौड़ में लग गर्इ थीं। मायावती का यह स्वप्न तो चकनाचूर हुआ ही, बहुजन समाजपार्टी को अखिल भारतीय आधार देने के मंसूबे भी धराशायी हो गए। तय है किसी तीसरे दल के राष्टीय दल के रुप में उभरने पर पूर्णविराम लग गया।

हालांकि 2007 में हुए उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद गुजरात, कर्नाटक, हिमाचल, असम, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट में भी विधानसभा के चुनाव हुए। इन सभी प्रदेशों में कांग्रेस और भाजपा गठबंधनों की सरकारें वजूद में आर्इं। लिहाजा राजनीतिक विश्लेषक उम्मीद जता रहे थे कि फिलहाल क्षेत्रीय दलों का इस्तेमाल वैशाखियों के रुप में ही होता रहेगा। इन प्रांतों में चुनावों के दौरान ये अटकलें लगार्इ जा रही थीं कि मायावती की सामाजिक-अभियांत्रिकी मुख्यधारा की राजनीति से अलग एक नर्इ धारा गांधीगिरी के रुप में आकार ग्रहण कर रही है, जो अन्याय और शोषण के विरुद्ध सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्ति के रुप में उभरेगी। किंतु भाजपा ने कर्नाटक में विजय श्री हासिल करके दक्षिण में प्रवेश तो किया ही, गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लगातार तीसरी मर्तबा जीत हासिल करके नए सामाजिक समीकरणों की संभावनाओं और छदम धर्मनिरपेक्षता के थोते सरोकरों पर पानी फेर दिया।

गोवा और उत्तरप्रदेश को छोड़ दें तो एंटी इंकमबेंसी फेक्टर भी बेअसर रहा। भाजपा को यदि गोवा, उत्तराखण्ड और पंजाब में नाक बचा लेने की खातिर बढ़त मिल भी गर्इ तो वह उसके राष्टीय वजूद रखने वाले नेताओं की बजाए क्षेत्रीय नेताओं और स्थानीय मुददों के कारण मिली है। वरना बाबूसिंह कुशवाहा को भाजपा में शरण देकर उसने भी मनमोहन सिंह और मायावती की लाइन पकड़ ली थी। मणिपुर जरुर इस दृष्टि से अपवाद रहा कि वहां स्थानीय मुददे निष्प्रभावी रहे। यह राज्य पिछले दो दशक से भी ज्यादा लंबे समय से उग्रवाद और अलगाववाद की चपेट में है। राज्य की भौगोलिक अखण्डता को क्षेत्रीय मुद्दे व आंदोलन चुनौती साबित हो रहे हैं। विशेष सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग को लेकर इस्पाती महिला इरोम शर्मिला पिछले 11 सालों से लगातार अनशन जारी रखे हुए हैं। उनकी इस मांग को व्यापक जनसमर्थन भी हासिल है। बावजूद कोर्इ करिश्मा क्यों नहीं हुआ, यह अचरज में डालने वाला सवाल है। मणिपुर में कुकी बहुल क्षेत्र को नया जिला बनाने की मांग पिछले दिनों इतनी जबरदस्त थी कि कुकी और नगा संगठनों ने इस पूरे पर्वतीय प्रांत में मजबूत नाकेबंदी कर दी थी। फिर भी कांग्रेस की मणिपुर में लगातार तीसरी बार जीत यह दर्शाती है कि अभी व्यापक जनाधार यहां कांग्रेस का ही है और आंदोलनकारियों के पास आर्थिक विकास का कोर्इ असरकारी अजेंडा भी नहीं है। कमोबेश यही स्थिति पूर्वोत्तर के अन्य राज्य मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम और सिकिकम में है।

बहरहाल पांच राज्यों के करीब 14 करोड़ मतदाताओं ने 690 विधानसभा सीटों पर अपने मताधिकार का प्रयोग करके जो फैसला सार्वजनिक किया है, उससे तो यही स्वर निकल रहा है कि राष्टीय दलों का हृदय-विदारक क्षरण हो रहा है। जो कांग्रेस राहुल गांधी बनाम देश के भावी प्रधानमंत्री को लेकर उत्तरप्रदेश में ‘करो या मरो की स्थिति में थी, वह मुंह छिपाने की शर्मनाक हालत में आकर हाशिए पर है। उसके सांप्रदायिक हथकण्डों और निर्लज्ज चाटुकारिता को जनता ने नकार दिया है। इस प्रांत में वीपी सिंह के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद पिछड़ी और दलित जातियों में जो राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जगी थीं, उनका अभी लोप नहीं हुआ है। राष्ट्रीय दलों के वंशवादी अंहकार को वे अभी भी कठिन चुनौती साबित हो रहीं है। नतीजतन राज्य-व्यवस्था ज्यादा से ज्यादा संघीय स्वरुप ग्रहण करने को आतुर-व्याकुल है। तय है इस परिप्रेक्ष्य में जहां नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जयललिता की तरह पंजाब मे भी प्रकाशसिंह बादल को अपेक्षाकृत ज्यादा स्वायत्तता हासिल हो गर्इ है। वे इस स्वतंत्र शासन- प्रणाली में अपने राजनीतिक अजेंडे में शामिल वादों को प्रभावी ढंग से लागू कर सकते हैं। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को तो मतदाता ने पूर्ण बहुमत देकर ही विधानसभा में भेजा है।

संप्रग गठबंधन में भागीदार तृणमूल कांग्रेस ने मध्यावधि चुनाव का जो संकेत ठीक चुनाव परिणामों के बाद दिया है, वह व्यर्थ अथवा निराधार नहीं है। क्षेत्रीय दलों की यह अपेक्षा बढ़ी है कि राष्टीय राजनीति में मुलायम सिंह महत्वपूर्ण भूमिका के रुप में अवतरित हों। ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतिश कुमार, जयललिता, रामविलास पासवान और चंद्रबाबू नायडू एक नए क्षत्रप बनाम तीसरा मोर्चे के नीचे आने को तैयार बैठे हैं। इस संभावित तीसरे मोर्चे की पहली परीक्षा इसी साल जुलार्इ में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में पेश आ सकती है। यदि ये क्षेत्रीय दल ऐन-केन-प्रकारेण अपना राष्ट्रपति देश को देने में कामयाब हो जाते हैं तो इस मोर्चे के अस्तित्व की मान्यता तो प्रमाणित होगी ही, नए लोकसभा चुनाव पूर्व तीसरे मोर्चे का माहौल भी गरमाने लग जाएगा। लेकिन इस मोर्चे की सार्थकता तभी सिद्ध होगी जब यह तिकड़मी सोशल इंजीनियरिंग के जातीय तिलिस्म को तो तोड़े ही, छद्म धर्मनिरपेक्षता के जंजाल से भी निर्लिप्त दिखार्इ दे। एक स्पष्ट विचारधारा और स्वस्थ जन सरोकारों से जुड़े कार्यक्रमों को लेकर वह जनता के दरबार में हाजिर हो। क्योंकि भारत की ज्यादातर समस्याएं बेबुनियाद हैं। फिरंगियों के जमाने से चले आ रहे कानून, महज कागजी खानापूर्ति के लिए प्रशासनिक अड़ंगे पैदा करते हैं, लिहाजा इन कानून अथवा तरीकों को कानून की किताबों से विलोपित करने की जरुरत है। देश में सामाजिक न्याय और सुशासन ऐसे ही उपायों से लाने की कारगर उम्मीद की जा सकती है। मुलायमसिंह यदि समय के बदलाव की आहट को सुन पा रहे हैं तो उन्हें तीसरे मोर्चे की घुरी की कमान संभाल लेनी चाहिए।

 

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