देश की राजनीतिः दशा और दिशा

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

parliamentदेश की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों के आचरण एवं करनी-कथनी के अंतराल के कारण, देश की जनता में राजनेताओं एवं राजनैतिक व्यवस्था के प्रति अवहेलना, उपेक्षा, तिरस्कार एवं नफरत के भाव बढ़ते जा रहे हैं। जनता के मन में यह विश्वास मज़बूत होता जा रहा है कि देश के नेताओं को देश से अधिक, सत्ता पर काबिज़ होने की चिंता है। इन दलों के नेतृत्व को यह सोचना चाहिए कि क्षेत्रीय दलों का प्रभाव क्यों बढ़ता जा रहा है। उनका वर्चस्व क्यों घटता जा रहा है। आज वस्तुतः प्रत्येक पार्टी के नेता  को आत्म-मंथन करने की जरूरत है।

मुख्य विपक्षी दल भाजपा की हालत दयनीय एवं शोचनीय है। कर्नाटक की शर्मनाक पराजय के बाद भी इस पार्टी के नेता और कार्यकर्ता बदलने को तैयार नहीं हैं। अपनी करारी हार का एकमात्र कारण अपने पूर्व मुख्य मंत्री की बगावत को मान रहे हैं। मैं मानता हूँ कि भाजपा की पराजय का यह एक कारण है। यह भी सत्य एवं तथ्य है कि पराजय का यह एकमात्र कारण नहीं है। उत्तराखंड में तथा हिमाचल-प्रदेश में तो भाजपा के किसी मुख्यमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्री ने भाजपा से अलग होकर बगावत नहीं की। फिर कर्नाटक की तरह इन दोनों राज्यों में भाजपा को सत्ता से हाथ क्यों धोना पड़ा। भाजपा की विचारधारा एक ओर, उसको समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज सुलभ कराती है, वहीं दूसरी ओर, इसी कट्टर विचारधारा से संचालित भाजपा की प्रशासन-व्यवस्था, भाजपा के अंध-समर्पित कार्यकर्ताओं को छोड़कर, समाज के अन्य सभी वर्गों का भाजपा से मोह-भंग का कारण भी बनती है। गुजरात एवं मध्य-प्रदेश के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भाजपा ने जब तक विरोधी भूमिका का निर्वाह किया, उसके समर्पित कार्यकर्ताओं ने भाजपा के पक्ष में जोर-शोर से प्रचार किया, रात-दिन भाजपा के लिए काम किया। उनके प्रचार-प्रसार एवं मेहनत के कारण   भाजपा के पक्ष में वातावरण बना। चुनावों में भाजपा ने बाजी मार ली। मगर भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद परिदृश्य बदलने लगा। शासन के मंत्रियों ने दोनों हाथों से खजाना लूटना आरम्भ कर दिया। नेताओं में परस्पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरु हो गया। सत्ता-प्राप्ति के पहले समर्पण भाव से रात-दिन भाजपा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने  जब यह सब देखा तो उन्होंने भी गंगा में डुबकी लगाना शुरु कर दिया। सत्ता की मलाई खाने के लिए उनका लोभ बढ़ता गया। जिनको उनका हिस्सा नहीं मिला, उनके मन में असंतोष की भावना भरने लगी। सत्ता-प्राप्ति के पहले जो पक्ष का वातावरण बनाने में मशगूल रहते थे, वही विरोध का वातावरण बनाने में योगदान देने लगे।

भाजपा की दयनीय स्थिति का बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उसके पास अब अटल बिहारी जैसा नेता नहीं है। वे अपेक्षाकृत उदारमना थे। भारत की सामासिक संस्कृति को समझते थे। समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहते थे। जब वे भारत के प्रधानमंत्री थे, उनकी सबसे ज्यादा आलोचना दिल्ली के भाजपा के मुख्यालय में होती थी। मगर वे आदर्शों के प्रति अटल रहे। अगर उनकी पार्टी का कोई व्यक्ति आदर्शों के विपरीत आचरण करता था तो उसकी आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे। आज भाजपा में ऐसा कौन नेता है जो अपने ही राज्य के मुख्यमंत्री से यह कह सके कि तुमने राजधर्म का पालन नहीं किया। अटलजी के बाद भाजपा में अडवाणी जी की हैसियत थी। भाजपा का हर संसद-सदस्य तथा राज्यस्तरीय नेता दोनों के आगे नतमस्तक रहता था। दल में अनुशासन था। मुरली मनोहर जोशी की भी प्रबुद्ध एवं ईमानदार नेता की छवि थी। अब इन जैसे पुराने नेताओं को किनारे लगाया दिया गया है। बौने कद के नेता ऐसा दिखा रहे हैं कि जैसे वे ही अब भारत के भावी प्रधान मंत्री होने जा रहे हैं। कर्नाटक के परिणाम आने के पहले, भाजपा ने यह मान लिया था कि अब दिल्ली दूर नहीं है।

उपर्युक्त वर्णित तीनों राज्यों में भाजपा को जो पराजय का मुँह देखना पड़ा है, उसके कुछ समान कारण प्रतीत होते हैं –

(1)            आंतरिक विग्रह, गुटबाज़ी, कलह एवं परस्पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना (2) कुछ मंत्रियों द्वारा सरकारी खजाने की खुली लूट (3) आदर्शवाद की लम्बी-लम्बी डींके हाँकना मगर उसके विपरात आचरण करना (4) बंगारू तथा गडकरी जैसे लोगों को पार्टी का अध्यक्ष बनाना (5) प्रशासन में गलत नीतियों का निर्धारण करना। लोक-कल्याणकारी योजनाओं से अधिक नागपुर के आकाओं को पसंद आने वाली बातों को पूरा करने के लिए सरकारी धन लुटाना। (6) लाभकारी पदों पर अपने “संघ-परिवार” के सदस्यों को तरज़ीह देना तथा उनको पद दिलाने के लिए चयन-समिति के सदस्यों पर अनुचित दबाब डालना (7) अधिकांश मंत्रियों की प्रशासनिक अनुभवहीनता। (7) गुंडे टाइप  लोगों द्वारा “मोरल पुलिसिंग” के नाम पर गुंडागर्दी करना, अल्पसंख्यक समुदायों के पूजा-स्थलों को जलाना, युवा-लोगों के लिए उठने-बैठने, कपड़े पहनने, युवक-युवती के साथ-साथ घूमने  के लिए कायदे-कानून बनाना और उनके अनुसार आचरण न करने पर उनके साथ बदसलूकी और मारपीट करना।

देश की केंद्रीय सत्तारूढ़ कांग्रेस का दामन भी पाक-साफ़ नहीं है। यू.पी.ए. -2 के शासन में एक के बाद दूसरे घोटाले हुए हैं। टूजी के घोटाले में कांग्रेस के नेताओं की दलील थी कि यह घोटाला घटक दल के मंत्री ने किया है। जनता ने इसे गठबंधन की राजनीति की विवशता मानकर खून का घूँट पी लिया। मगर ताज़ा उदाहरण रेल मंत्रालय का है। उसके मंत्री घटक दल के नहीं अपितु स्वयं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं। उनकी छवि ईमानदार नेता की रही है। जब रेलवे के घूसकांड में उनका नाम उजागर हुआ, मंत्री जी ने दलील दी कि मेरे अपने भांजे से कारोबारी रिश्ते नहीं हैं। इस दलील के कारण न केवल यू.पी.ए. के घटक दलों ने ही उनका बचाव किया, विपक्षी एन.डी.ए. के संयोजक शरद यादव ने भी उनका बचाव किया। मगर जब मामा और भांजे के कारोबारी रिश्ते जग-जाहिर हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में भी उनको मंत्री-मंडल में बनाए रखने का क्या औचित्य है। ऐसा करके कांग्रेस न केवल नैतिक दृष्टि से अपितु राजनैतिक दृष्टि से भी आत्मघाती काम कर रही है। मूल्यों के प्रति जागरूक कोई भी व्यक्ति इसका समर्थन नहीं कर सकता। अब जनता जागरूक हो गई है। मीडिया भी सजग है। कोई भी पार्टी जनता को अब आसानी से बेवकूफ नहीं बना सकती।

प्रत्येक राजनेता को दिल से देश के प्रत्येक नागरिक के कल्याण के लिए सोचना होगा। क्या प्रत्येक राजनेता देश के प्रत्येक नागरिक  को आत्म-तुल्य मानता है अथवा वर्णों, जातियों, सम्प्रदायों, प्रान्तों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन के रूप में यकीन करता है। यह किसी से छुपा नहीं है कि प्रायः प्रत्येक पार्टी चुनाव में टिकट वितरण में जाति और धर्म के समीकरण बैठाती है। अब हर पार्टी के नेतृत्व को सोचना होगा कि उसके लिए क्या वांछनीय है, क्या चयनीय है, क्या वरीय है –

देश का विकास, प्रगति एवं आम आदमी की आधारभूत सुविधाओं को जुटाना या जोड़-तोड़ बिठाकर अपनी पार्टी को चुनाव में जिताना। उनकी पार्टी देश के सभी निवासियों की तरक्की के लिए सोचती है अथवा अपने दल की विजय-श्री के लिए अपने वोट बैंक को मजबूत बनाने के लिए तदनुरूप काम करती है ।

क्या प्रत्येक राजनेता देश के प्रत्येक नागरिक की स्वतंत्रता एवं समता में विश्वास करता है एवं प्रत्येक नागरिक के कल्याण के लिए काम करता है। क्या राजनेताओं की कथनी एवं करनी में अन्तराल नहीं है। मुझे याद है जब देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई में आतंकी हमला हुआ था तो ऐसे संकट के समय में भी कुछ नेता अपनी रोटी सेंकने में मशगूल थे। वे जनता की भावनाओं को भड़काने के अपने मकसद में मग्न थे। उस समय इन राजनेताओं के प्रति मुम्बई की प्रबुद्ध जनता आक्रमक हो गई थी। उसको लगने लगा था कि ΄ खतरा बोट के जरिए आए आतंकियों से उतना नहीं , वोट के जरिए सत्तारूढ़ हुए नेताओं से ज्यादा है΄। क्या इस प्रकार की प्रतिक्रिया का कारण केवल तात्कालिक घटित घटना थी अथवा उसके पीछे अपने जनप्रतिनिधियों के प्रति वर्षों से संचित बेएतबारी, अनास्था, संदेह एवं अविश्वास का स्वतः स्फूर्त स्फोट था।  क्या इसको नकारा जा सकता है कि राजनीति के क्षेत्र में छल और कपट बढ़ा  है। क्या राजनीति को कुछ राजनेता तात्कालिक स्वार्थसिद्धि एवं सत्ता प्राप्ति के कौशल के रूप में परिभाषित नहीं कर रहे हैं। क्या यह सही नहीं है कि अधिकांश राजनेता अपने आचरण से जनता के मन में  अविश्वास के भाव पैदा कर रहे हैं। क्या यह सही नहीं है कि कुछ राजनीतिज्ञों का जीवन अपवित्रता का पर्याय हो गया है। क्या यह सही नहीं है कि कुछ राजनीतिज्ञों का व्यवहार कुटिलता की सीमायें भी लाँघ गया है। संसद के पवित्र मंदिर में बैठकर जो संसद-सदस्य स्कूलों, कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों के शरारती, ऊधमी, अराजक एवं बदमाश लड़कों अथवा मौके की तलाश में रहने वाले असामाजिक-तत्वों के समान उछलकूद, उठापटक, हुल्लड़ एवं हुड़दंग करते हैं, संसद की सारी मर्यादाओं को तार-तार करते हैं क्या उनकी अंतरात्मा उन्हें कभी नहीं कचोटती, कभी नहीं धिक्कारती। क्या जनता के लिए कल्याणकारी विधेयकों को पारित होने से रोकने के लिए संसद को न चलने देना किसी भी तर्क से जायज़ ठहराया जा सकता है। उनके प्रति यदि जनता की आस्था समाप्त होती जा रही है तो यह दोष उनका है या यह दोष भी जनता का ही है। क्या लोकतंत्र में राजनैतिक जीवन की सफलता एवं स्थायित्व के लिए जनता के मन में अपने राजनेताओं के प्रति यह विश्वास नहीं होना चाहिए कि उनका प्रतिनिधि ईमानदार है, विश्वसनीय है ; उसके अन्दर जनसेवा की भावना है। यदि ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है कि जनता का बहुमत कुछ राजनेताओं के कथन पर विश्वास नहीं कर पा रहा है अथवा उनके  क्रियाकलापों को संशय एवं सन्देह की दृष्टि से देख रहा है तथा उनके विरुद्ध टिप्पणी करने का साहस कर पा रहा है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या लोकतंत्र में जनता के प्रतिनिधि के व्यवहार एवं आचरण में निष्कपटता एवं ईमानदारी नहीं होनी चाहिए। मुझे याद है कि मुम्बई में जब आतंकी हमला हुआ और ऐसे समय में भी कुछ नेताओं ने अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए मुम्बई पहुँचकर जहर उगलना शुरु कर दिया था तो मीडिया ने उनके खिलाफ लिखा था। बजाय अपने गिरहबान में झाँकने के, उन्होंने समाचार-पत्रों में इस प्रकार के वक्तव्य दिए कि –    ́राजनेताओं के खिलाफ उभरी जनभावनाओं को भड़काकर मीडिया ने अपनी भूमिका से समूचे लोकतंत्र के लिए ही सवाल खड़ा कर दिया है तथा ऐसा करके मीडिया लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहा है΄। मैं यह कहना चाहता हूँ कि मीडिया ने जनता को राजनेताओं के विरुद्ध भड़काने का काम नहीं किया था। इन राजनेताओं की ओछी करतूतों के खिलाफ स्वतः स्फूर्त जनभावनाओं को अभिव्यक्ति देने का काम किया था।

क्या हम ऐसे राजनेताओं की आरती उतारें जो वोट-बैंक की खातिर हमारे देश के समाज को समुदायों में बांटने का तथा उन समुदायों में नफरत फैलाने का घृणित काम करते  हैं। अलकायदा एवं भारत के विकास तथा प्रगति को अवरुद्ध करने वाली शक्तियाँ तो चाहती ही यह हैं कि भारत के लोग आपस में लड़ मरें। भारत के समाज के विभिन्न वर्गों में द्वेष-भावना फैल जाए। देश में अराजकता व्याप्त हो जाए। देश की आर्थिक प्रगति के रथ के पहियें अवरुद्ध हो जायें। मेरा सवाल है कि जो राजनेता अपनी पार्टी के वोट बैंक को मज़बूत बनाने की खातिर देश को तोड़ने का काम करते हैं,  वे क्या भारत-विरोधी शक्तियों के लक्ष्य की सिद्धि में सहायक नहीं हो रहे हैं।

देश को कमजोर करने तथा समाज को तोड़ने वाले राजनेताओं का आचरण वास्तव में लोकतंत्र का गला घोटना है। राजनेताओं को यह समझना चाहिए कि दल से बडा देश है, देश की एकता है, लोगों की एकजुटता है। लोकतंत्र में प्रजा राजनेताओं की दास नहीं है। राजनेता जनता के लिए हैं, जनता के कल्याण के लिए हैं। वे जनता के स्वामी नहीं हैं; वे उसके प्रतिनिधि हैं।

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