यह आघातकारी है कि पटना के गांधी मैदान में विजयदशमी के मौके पर रावण दहन के दौरान मची भगदड़ में तीन दर्जन से अधिक लोगों की मौत हुई और सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुए। समझना कठिन है कि बिहार प्रशासन यह जानते हुए भी कि हर वर्ष रावण दहन के दौरान लाखों लोग गांधी मैदान में इकठ्ठा होते हैं, के बावजूद भी उसने सुरक्षा का पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किया? अगर यह सच है कि आयोजन स्थल पर रोशनी का उचित प्रबंधन नहीं था, मैदान के कई निकास द्वार बंद थे और प्रशासन की पूरी फौज आमजन की सुरक्षा के बजाए आयोजन में शामिल मुख्यमंत्री और विशिष्टजनों की सुरक्षा और परिक्रमा में लगी रही तो यह अत्यंत त्रासदीपूर्ण है। फिर यह मानने में हर्ज भी नहीं कि प्रशासन ने लोगों की सुरक्षा की भरपूर अनदेखी की और लोगों को इसकी कीमत जान देकर चुकानी पड़ी। राजधानी प्रशासन का यह कुतर्क ठीक नहीं कि हादसा ज्यादा भीड़ और अफवाह फैलने की वजह से हुआ। मान भी लिया जाए कि यह सच है तब भी सवाल यह है कि फिर राजधानी प्रशासन क्या करता रहा? क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं थी कि वह लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करे? यह त्रासदी है कि इस हादसे के बाद राज्य प्रशासन हादसे के लिए जिम्मेदार दोषी अधिकारियों को चिंहित कर दंडित करने के बजाए उन्हें बचाने की कोशिश कर रहा है। कहना मुश्किल है कि राज्य सरकार हादसे रोकने में नाकाम और दोषी लोगों को दण्डित करेगी और भविष्य में इस तरह का हादसा दुबारा न हो इससे सबक लेगी। वजह यह कि यह पहली बार नहीं है जब बिहार में आमजन की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ हुआ हो लोगों की जान गयी हो। याद होगा आमचुनाव के दौरान इसी गांधी मैदान में भाजपा की चुनावी रैली में सिलसिलेवार बम विस्फोट हुआ और राज्य सरकार अंत तक अपनी नाकामियों पर परदा डालती रही। दो साल पहले 20 नवंबर 2012 को बिहार में गंगा नदी पर छठ पुजा के दौरान भी भीषण हादसा हुआ। पूजा के लिए बने अस्थायी पुल टुटने से 8 श्रद्धालुओं की नाहक जान चली गयी। तब भी राज्य सरकार ने अपनी गलती नहीं स्वीकारी। हादसे की वजह ज्यादा भीड़ बताया। यह पर्याप्त नहीं कि हादसे में मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवजा थमा राज्य सरकार अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ले। उचित यह होगा कि वह ऐसे आयोजनों पर सुरक्षा का समुचित बंदोबस्त करे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में हर वर्ष धार्मिक आयोजनों में भीषण हादसे हो रहे हैं और आमजन की सुरक्षा के प्रति गंभीरता नहीं दिखायी जा रही है। अभी गत वर्ष ही कामतानाथ मंदिर में अफवाह से मची भगदड़ में एक दर्जन से अधिक श्रद्धालुओं की जान गयी। एक वर्ष पहले ही मध्यप्रदेश के दतिया में स्थित प्रसिद्ध रतनगढ़ माता मंदिर के पास भगदड़ में 115 श्रद्धालु काल-कवलित हुए। इसी तरह इलाहाबाद महाकुंभ के दौरान स्टेशन पर मची भगदड़ में तीन दर्जन से अधिक श्रद्धालुओं की जान चली गयी। मथुरा स्थित बरसाना के राधा मंदिर में मची भगदड़ में कई लोगों को जान गंवानी पड़ी। कुछ साल पहले झारखांड राज्य के देवघर में ठाकुर अनुकूल चंद की 125 वीं जयंती पर दो दिवसीय सत्संग में मची भगदड़ में कई श्रद्धालु जान से हाथ धो बैठे। 14 जनवरी 2011 को मकर संक्रान्ति के पावन अवसर पर केरल के सबरीमाला मंदिर में मची भगदड़ में करीब 106 श्रद्धालुओं की मौत हुई। इसी तरह 3 अगस्त 2008 को हिमाचल प्रदेश के विलासपुर स्थित नैना देवी के मंदिर में भीषण हादसा हुआ जिसमें 162 लोग मारे गए। 14 अप्रैल 1986 में हरिद्वार कुंभ मेले में हर की पैड़ी के उपर कांगड़ा पुल पर मुख्य स्नान के दौरान मची भगदड़ में 52 लोग काल के ग्रास बने। 3 फरवरी 1954 को इलाहाबाद कुंभ मेले में भगदड़ मचने से लगभग 800 लोगों की जान गयी। 16 अक्टुबर 2010 को बिहार राज्य के बांका जिले के दुर्गा मंदिर में हादसे में 10 लोगों को प्राण खोना पड़ा। 14 अप्रैल 2010 को हरिद्वार में शाही स्नान के दौरान मचे भगदड़ में भी 10 लोग मारे गए। 14 जनवरी 2010 को पश्चिम बंगाल के गंगासागर मेले में भगदड़ से आधा दर्जन लोगों की मौत हुई। इसी तरह 21 दिसंबर 2009 को राजकोट के धोराजी कस्बे में धार्मिक कार्यक्रम के दौरान भगदड़ में 8 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के मनगढ़ स्थित कृपालु महाराज के आश्रम, जोधपुर के चामुंडा देवी मंदिर और महाराष्ट्र के मांधरा देवी मंदिर में भी इस तरह के भयानक हादसे हो चुके हैं। देखा जाए तो इन सभी स्थलों पर हुए हादसे के लिए पूर्ण रुप से शासन-प्रशासन और आयोजकगण ही जिम्मेदार रहे हैं। लेकिन हैरानी है कि इन हादसों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया। नतीजा दोषी लोग बच निकलते हैं और हादसों का सिलसिला जारी रहता है। देश में बहुतेरे ऐसे मंदिर भी हैं जहां श्रद्धालुओं की सुरक्षा और संभावित हादसों को टालने का पूरा बंदोबस्त है। मसलन मां वैष्णो देवी के यहां आम दिनों में 15 से 20 हजार और नवरात्रों में यह संख्या 40 हजार श्रद्धालुगण पहुंचते है। लेकिन यहां भक्तों के समूह को बारी-बारी से दर्शन कराया जाता है। श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ने पर पंजीकरण रद्द कर दिया जाता है। इसी तरह असम के कामख्या मंदिर में हर रोज तीन हजार, अजमेर शरीफ में 12 हजार, तिरुपति के बालाजी मंदिर में 80 हजार और स्वर्ण मंदिर अमृतसर में तकरीबन एक लाख श्रद्धालुगण आते हैं। लेकिन वे आसानी से दर्शन कर सकें इसका समुचित प्रबंध किया जाता है। यहां पर्याप्त मात्रा में सुरक्षा बलों की उपस्थिति रहती है और भगदड़ की स्थिति न बने इसके लिए सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया जाता है। भीड़ के बेहतर प्रबंधन के लिए बैरीकेड की समुचित व्यवस्था के साथ प्रवेश व निकास के अलग-अलग मार्ग होते हैं। रास्ते में लोगों के आराम की पर्याप्त व्यवस्था होती है। लोगों पर नजर रखने के लिए सेवादार तैनात किए जाते हैं। राज्य का खुफिया तंत्र चौकस रहता है। क्या उचित नहीं होता कि बिहार सरकार भी गांधी मैदान में इसी तरह का सुरक्षा इंतजाम की होती। तब इस तरह का हादसा देखने को नहीं मिलता। जरुरत आज इस बात की है कि राज्य सरकारें, स्थानीय प्रशासन, आयोजकगण और श्रद्धलुगण सभी अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों का भलीभांति निर्वहन करे। आयोजन में शामिल लोगों का आचरण व व्यवहार संयमित होना चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि कार्यक्रम समाप्त होने के बाद प्रशासन की निष्क्रियता से भी़ड़ अव्यवस्थित हो जाती है और शीध्र बाहर निकलने की होड़ में एकदूसरे को कुचलना शुरू कर देते हैं। स्थिति तब और बिगड़ जाती है जब अचानक किस्म-किस्म के अफवाह उठने लगते है। स्थानीय प्रशासन एवं धार्मिक आयोजकों को चाहिए कि अफवाह न फैले इसके लिए ठोस रणनीति तैयार करें और अफवाह फैलाने वाले शरारती तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे। समझना होगा कि भारत विभिन्न धर्मों, संप्रदायों और मतावलंबियों का देश है। हर वर्ष आस्था से जुड़े हजारों आयोजन होते रहते हैं। ऐसे में जरुरी है कि सरकारें श्रद्धालुगणों की सुरक्षा को शीर्ष प्राथमिकता में रखें।