-आर सिंह-
दिल्ली में आजकल बहस का एक व्यापक मुद्दा है, दिल्ली विधान सभा का चुनाव कब होगा? तुर्रा यह है कि आआप और भाजपा दोनों ने सरकार बनाने से इंकार कर दिया है.तर्क संगत तो यही था कि दिल्ली में अगले चुनाव के लिए घोषणा कर दी जाती.पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? क्या अरविन्द केजरीवाल का यह कहना सही है कि भाजपा डर रही है? अगर अरविन्द केजरीवाल गलत हैं,तो असली कारण क्या है? क्या किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आसान है?
पहली बात तो यह है कि भाजपा कौन होती है इस पर निर्णय करने वाली? क्या किसी राजनैतिक दल को यह अधिकार मिला है कि वह चुनाव की तारीख तय करे? क्या यह चुनाव आयोग का विशेषाधिकार नहीं है? पर चुनाव आयोग तभी हरकत में आता है,जब चुनाव के लिए क्षेत्र तैयार हो.यहां तो विधान सभा निलंबित है.अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि अब जबकि राजनैतिक पार्टियां साफ़ साफ़ कह चुकी हैं कि वे सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं,तो इस निलंबन का क्या मतलब? विधान सभा छह महीने के लिए निलंबित की गयी थी. यह अवधि अगले महीने समाप्त हो रही है.क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि अगले महीने विधान सभा भंग करके चुनाव की घोषणा कर दी जायेगी? ऐसा लगता तो नहीं है, तब इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
मेरा व्यक्तिगत आकलन यह है कि अगस्त में विधान सभा भंग कर चुनाव की घोषणा नहीं की जाएगी.चुनाव अगले साल फरवरी या हो सकता है कि मार्च महीने में संपन्न हो. अतः अभी एक बार फिर विधान सभा के छह महीने निलंबन के लिए अधि सूचना जारी की जाएगी.अब प्रश्न उठता है कि ऐसा सोचने का कारण क्या है?जो कार्य फरवरी या मार्च के लिए टाला जा रहा है, उसे अभी क्यों नहीं संपन्न किया जा रहा? दिल्ली की जनता को संवैधानिक अधिकार से पुनः क्यों वंचित किया जा रहा है?आज और फरवरी के बीच ऐसा क्या हो जाएगा, जिससे दिल्ली के चुनाव का नतीजा प्रवावित होगा? लोग मानते हैं कि अभी हालात इस तरह के हैं कि मोदी और शाह विश्वास पूर्वक नहीं कह सकते कि उनकी दिल्ली में जीत होगी हीं.एक तो अभी भी अमित शाह को इतना समय नहीं मिला है कि वे दिल्ली का मनोविज्ञान समझ सकें.दूसरी तरफ उन्होंने ने दिल्ली के लिए नया अध्यक्ष बहाल किया है. उसको भी अभी दिल्ली के कार्यकर्ताओं को समझना है और उन्हें अपने साथ जोड़ना है.
सबसे बड़ी बात यह है कि आज अगर सौभाग्य बस मोदी ग्रुप जीत भी हासिल कर ले तो विरोधी दल यानि आम आदमी पार्टी का पूर्ण सफाया तो नहीं ही कर पाएगी, पर अगर नमो की पार्टी इस चुनाव में हार जाती है, तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. पहले हम लोग जीत की स्थिति का विश्लेषण करें. नमो की पार्टी उस हालत में दिल्ली में सरकार बना लेगी, पर आम आदमी पार्टी के भी पंद्रह या बीस सदस्य विधान सभा में आ जाने की उम्मीद की जा सकती है, पर एक हानि तो हो ही जाएगी.आम आदमी पार्टी के कर्ता धर्ता दिल्ली की जिम्मेवारी से मुक्त हो जाएंगे और हो सकता है कि उस परिस्थिति में उन राज्योंमें भी चुनाव लड़ने निकल पड़े, जहां इस समय वे चुनाव नहीं लड़ना चाहते. नमो पार्टी ऐसा क्यों चाहेगी?अब दूसरी स्थिति का जायजा लें. मान लीजिये नमो की पार्टी दिल्ली का चुनाव हार जाती है,तब तो ऐसा सन्देश जाएगा,जिसको सम्भालना शाह जैसे सिद्ध हस्त के लिए भी कठिन हो जाएगा. साथ ही साथ आआप पूरे जोश के साथ अन्य राज्यों के चुनाव में कूद पड़ेगी. नमो या अमित शाह ऐसा क्यों चाहेंगे?
अब प्रश्न यह उठता है कि फरवरी या मार्च में भी तो इन्हीं दो परिस्थितियों में कोई एक परिस्थिति हो सकती है. सही है. तीसरी स्थिति यानि पिछले दिसंबर वाली स्थिति की संभावना तो नहीं के बराबर है. पर उस समय तक नमो एवं शाह कंपनी चार राज्यों में चुनाव लड़ चुकी होंगी,जहां उनका मुकाबला मुख्य रूप से कांग्रेस के साथ होगा,जिस पर इनके भारी पड़ने की संभावना है,पर उत्तराखंड का परिणाम देखकर यह निर्णयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि सब ठीक ही होगा,फिर भी संभावना जीत की है,जिसके लिए मैं समझता हूँ कि अमित शाह वातावरण तैयार कर लेंगे. इसके बाद जब वे दिल्ली की और लौटेंगे,तब तक हो सकता है कि उपाध्याय जी की सक्रियता यहाँ भी उपयुक्त वातावरण तैयार कर ले.अगर उसके बाद भी वे लोग दिल्ली में हार जाते हैं,तो भी नुकशान उतना नहीं होगा,जितना अगस्त के चुनाव के चलते होगा.
अंतिम बात यह है कि अमित शाह का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि वे इन चुनावों में जीत के लिए और उसके लिए उपयुक्त ध्रुवीकरण के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं,अतः दिल्ली सहित अन्य राज्यों को भी जहां चुनाव होने हैं, इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा.
और अब ओखला के मस्जिद के अंदर सूअर का पिल्ला.आखिर यह सब क्या हो रहा है?
यह आलेख मैंने जुलाई के अंतिम सप्ताह में लिखा था,पर प्रवक्ता में यह प्रथम अगस्त को प्रकाशित हुआ है.इसके अंतिम अनुच्छेद में मैंने लिखा था,”अंतिम बात यह है कि अमित शाह का पिछला रिकॉर्ड देखते हुए इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि वे इन चुनावों में जीत के लिए और उसके लिए उपयुक्त ध्रुवीकरण के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं,अतः दिल्ली सहित अन्य राज्यों को भी जहां चुनाव होने हैं, इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा.”
क्या इसको त्रिलोकपुरी और बवाना की घटनाओं से जोड़कर देखने वाले पूर्णतया गलत हैं?
यह आलेख जुलाई के अंतिम सप्ताह में प्रवक्ता डॉट कम में भेजा गया था.अब जब कि यह अगस्त मेंप्रकाशित हुआ है ,तो अगले महीने की जगह वर्तमान महीना समझा जाना चाहिए,क्योंकि राष्ट्रपति शासन की अवधि इस महीने समाप्त हो रही है.