लोकतांत्रिक व्यवस्था के रिमोट कंट्रोल से खेल

-आलोक कुमार-  democracy
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में ढेरों विसंगतियां हैं। दूरदर्शीता और पारदर्शिता का अभाव तो है ही सबसे दुखद पहलू है कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का रिमोट कंट्रोल “गांधी जी के मुस्कुराते चेहरे वाले कागजों” के हाथ में है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव लड़ना एक बेहद खर्चीला काम है और उगाही का खेल स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से बदस्तूर जारी है। जाहिर है जो आपके ऊपर पैसा लगाएगा वो एक तरह का निवेश करेगा और बदले में आपसे कुछ चाहेगा और जो पैसा लेगा उसे लूट में साझीदार बनने के लिए जायज-नाजायज काम भी करना होगा, चाहे उसकी पार्टी के झंडे का रंग कैसा भी हो। भारत के सभी बड़े-छोटे व्यवसायी/ उद्योगपति और नौकरशाह इसी तरह से राजनीतिक पार्टियों पर पैसा लगाते हैं और समय आने पर वसूलते भी हैं। जब कारोबारी हरेक बड़ी राजनीतिक पार्टी को पैसा दे रहे हैं तो जाहिर-सी बात है कि कोई भी सरकार आए, पैसे वालों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता है। यह एक तरह से लोकतंत्र की नीलामी है। आज हालत की बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो लोग पैसा चुनावी या राजनीतिक चंदा के तौर पर दे रहे हैं, वे अपने हितों को पोषित करने वाली नीतियों को अमली जामा पहनवाने का काम कर रहे हैं।
जनता भी दूर का नहीं सोचती। आज भी वोट डलने से पहले कम्बल बंटते हैं, शराब का दौर चलता है, जीतने के बाद नेता पहले अपना घर भरते हैं, फिर बंदरबांट करते हैं। आम आदमी मतलब वो आदमी जिसके पास वोट है, उसे उल्लू बनाकर वोट निकलवाने का खेल ही आज की राजनीति है। चुनाव में धर्म चलता है, बाहुबल चलता है, जाति चलती है और इन सब से ज्यादा पैसे का रुतबा चलता है। आज राजनीति पैसा पैदा करने का सबसे अच्छा और गारन्टेड व्यापार है। इसमें कोई शक की गुंजाईश ही नहीं है कि मोटे चंदे पार्टियों को अवैध ढंग से मिलते हैं।
भारत में आज राजनीति बदलाव या आवाम की भाषा ना बनकर पैसे का दूसरा विकल्प बन चुकी है। यहां सिर्फ खरीद और बिक्री नहीं होती है, साथ ही राजनीतिक शुचिता भी नीलाम होने लगी है। जिस प्रकार की राजनीति आज भारत में घर कर चुकी है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में देश की अवस्था और दयनीय होने वाली है। संसद में नोट उड़ाकर यह साबित किया जा चुका है कि यहां की राजनीति बिकाऊ हो चुकी है। अब यह अनुमान लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि एक लोकतांत्रिक देश में अगर इस प्रकार से राजनीति बिकाऊ हो तो वहां का भविष्य क्या होगा। भारत अब वो लोकतंत्र नहीं रह गया है जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तगमा दिया गया था। यहां की विकृत राजनीति ने उस लोकतंत्र की कब की हत्या कर दी है। जिस लोकतंत्र में जनता के अधिकारों और उसके मूल्यों पर पैसा हावी हो, वहां किसी भी तरह से लोकतंत्र जीवित रह ही नहीं सकता।
देश में संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए जितना पैसा खर्च होता है, इससे हमारे लोकतंत्र के फरेब की भी एक झलक मिलती है। कहने भर के लिए यहां देश का कोई भी नागरिक चुनाव लड़ सकता है और विधायक, सांसद, मंत्री, राष्ट्रपति कुछ भी बन सकता है। लेकिन हकीकत देखी जाए तो साफ हो जाता है भारत में मुख्य धारा की संसदीय राजनीति सिर्फ पैसे वालों के लिए आरक्षित है। एक सरकारी रिपोर्ट (अर्जुन सेन गुप्ता कमिटी ) के मुताबिक जिस देश के करीब 75 फीसदी लोग प्रतिदिन बीस रुपए से भी कम कमा रहे हों, क्या वे भी कभी चुनाव लड़ऩे के बारे में सोच सकते हैं ? क्या उनके भी कोई लोकतांत्रिक अधिकार हैं ? कुल मिलाकर चुनाव की प्रक्रिया ही ऐसी है कि जिसमें आम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। जो भी व्यक्ति चुनाव लड़ऩा चाहता है उसे एक निश्चित धनराशि जमानत के नाम पर चुनाव अधिकारी के पास जमा करानी होती है। विधानसभाओं के लिए यह राशि दस हजार रुपए है और संसद के लिए पच्चीस हजार। क्या पचहत्तर फीसदी देश की गरीब आबादी चुनाव में इतना पैसा चुनाव लडऩे पर खर्च करना बर्दाश्त कर सकती है ?
इन अर्थों में देखा जाए तो यह चुनावी खेल सिर्फ पैसे वालों का है और संसदीय मुख्य धारा की सभी पार्टियां इस झूठे खेल में गले तक डूबी हैं। पार्टियों के पास अरबों-खरबों रुपया कहां से आता है ? इसका हिसाब देने के लिए वे तैयार नहीं। इतना बड़ा गोल-मालकर अगर कोई भी पार्टी नैतिकता, ईमानदारी या देशभक्ति की बात करे तो इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है ? ऐसे में अगर धन-पिपाशु और आपराधिक मुकदमों में फंसे लोग अवैध धन के बल पर विधानसभाओं और संसद में पहुंचते हैं तो वे बहुसंख्यक आम जनता के हित में खाक नीतियां बनाएंगे !

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