गरीबी व भुखमरी के बीच विकास की एक्सप्रेस रेल

अखिलेश आर्येन्दु

संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भारत में बढ़ती भुखमरी और गरीबी की पुष्टिकर केंद्र सरकार के उस दावे की पोल खोल दी है जिसमें विकास की रफ्तार बढ़ने की बात कही गर्इ है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की रपट से केंद्र सरकार के दावे खोखले साबित होते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में दावा किया था कि देश से गरीबी और भुखमरी कम हुर्इ है। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने गरीबी की रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रहे करोड़ों लोगों का छलांग लगाकर गरीबी रेखा के ऊपर वाली लाइन को छूने के दावे भी किए हैं। गौरतलब है यह सब केंद्र सरकार की गरीबी और भुखमरी दूर करने की ‘महान योजनाओं का र्इमानदारी से लागू करने की वजह से हुआ है। केंद्र के मुताबिक इसका ज्यादा श्रेय मनरेगा और ग्राम्य विकास योजनाओं को जाता है। यदि केंद्र सरकार के दावों पर यकीन करें तो निश्चित ही गरीबी और भुखमरी में भारी कमी आर्इ है। लेकिन यदि सर्वे रपटों और संयुक्त राष्ट्र की रपट पर गौर करें तो हालात पहले से और बदतर हुए हैं।

रपट के मुताबिक देश के लगभग 23 करोड़ लोगों को दोनों वक्त भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है। यानी देानों वक्त भरपेट भोजन न करने वाले लोगों की तादाद देश की आबादी का लगभग एक चौथार्इ है। इसी के साथ एक रपट के मुताबिक भुखमरी का शिकार 25 फीसदी हिस्सा भारत में रहता है। यानी इतनी बड़ी आबादी आजादी के 64 साल बाद भी भूखे सोने के लिए मजबूर है। इससे समझा जा सकता है कि देश में गरीबी कम हुर्इ है या बढ़ी है।

इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वीकार किया है कि भारत में दुनिया की एक बहुत बड़ी आजादी, जो 1 साल से 6 साल के बीच की है, कुपोषण की शिकार है। ऐसे कुपोशित बच्चे जिनकी तादाद 25 लाख से भी ज्यादा है, हर साल मौत की नींद सो जाते हैं। यदि गरीबों के आंकड़ों की बात करें तो सरकार ने पिछले दिनों जो आंकड़े पेश किए हैं उससे देश में गरीबों की तादाद पहले की अपेक्षा बहुत कम हुर्इ है। अब देश में महज 20 करोड़ लोग गरीब हैं। इसके अलावा बाकी आबादी गरीबी की रेखा को पार चुकी है। यानी आजादी के बाद से देश ने तरक्की करके अपनी हैसियत विकसित देशो जैसी बना ली है या बनाने के कगार पर है।

केंद्र के मुताबिक देश में खाधान्न की कोर्इ कमी नहीं है। बात ठीक भी गलती है। क्योंकि हजारों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ रहा है। जिस देश में खाधान्न इतना अधिक हो गया हो कि वह गोदामों में सड़ रहा हो, तो करोड़ों लोगों को भूखे पेट सोने का कोर्इ मतलब ही नहीं होता है? इस लिए केंद्र के विकास के दावों को आंख मूद कर मान लेना चाहिए? लेकिन सवाल और समाधान महज इतने पर ही आकर खत्म हो जाता हो तो जरूर केंद्र के दावे सच हैं, लेकिन सवाल इतने ज्यादा हैं और समाधान की दिशा में उठाए गए कदम महज फाइलों तक ही सीमित हो तो बात निश्चित ही चौकाने वाली है।

दरअसल आजादी के बाद जिस तरह से आबादी बढ़ी उस रफ्तार से न तो खाधान्न की समस्या को हल करने की कोशिश की गर्इ और न तो गरीबों की हालात पर र्इमानदारी से गौर ही किया गया। फाइलों में ही गरीबी और गरीब कम होते रहे। इस बाबत केंद और राज्य सरकारें जनता को गुमराह करने के लिए गलत आंकड़े पेश करती रहीं। संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरे संगठनों की रपट और केंद्र की रपट में कभी एकरूपता देखने को नहीं मिली। यदि भारत सरकार की रपट को सही मान लिया जाए तो इन संगठनों के आंकड़े गलत हैं और यदि इनके आंकड़े सही मान लिए जाएं तो केंद्र सरकार के आंकड़े गलत हैं। लेकिन जमीनी सच्चार्इ पर गौर करने से लगत है केंद्र के आंकड़े जमीनी नहीं मालुम होते । आजादी के बाद देश ने कर्इ क्षेत्रों में तरक्की की है। लेकिन गरीबी और गरीबों के बारे में देश की हालात पहले से कहीं बदतर हुर्इ है। इस सच्चार्इ को जब तक स्वीकार नहीं किया जाएगा और र्इमानदारी से गरीबों की हालात को सुधारने की दिशा में कदम नहीं उठाए जाते हैं तब तक विकास की एक्सप्रेस रेल फाइलों मे तो दौड़ती रहेगी लेकिन जमीन पर नहीं दोड़ेगी।

 

 

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