संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा (Part 5)

sher-shah-suriशेरशाह के काल में राजा पूरनमल और मालदेव ने जारी रखा स्वातंत्र्य समर
राकेश कुमार आर्य
बाबर की पंथनिरपेक्षता
कुछ प्रगतिशील लेखकों ने बाबर को साम्प्रदायिक सदभाव के सृजक के रूप में प्रस्तुत किया है। इतिहास पुस्तकों में अंतिम समय में बाबर द्वारा अपने पुत्र हुमायूं को दी गयी यह शिक्षा बार-बार दोहरायी जाती है कि-‘‘तुम कभी धार्मिक पूर्वाग्रह को अपने मन पर हावी मत होने देना और पूजा के सभी वर्गों की धार्मिक भावनाओं एवं रीति रिवाजों को ध्यान में रखकर निष्पक्ष न्याय करना। विशेष रूप से तुम गोहत्या से दूर रहना तुम कभी किसी भी समुदाय के पूजा स्थल को नष्ट मत करना। दमन की तलवार की अपेक्षा प्रेम और कत्र्तव्य की आस्था द्वारा इस्लाम का प्रचार कहीं अच्छी तरह किया जा सकता है।’’

बाबर जो स्वयं को बड़े गर्व से गाजी कहा करता था अचानक इतना पंथनिरपेक्ष कैसे हो गया? यदि सूक्ष्मता से इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि बाबर भारत में अपना चिरस्थायी साम्राज्य स्थापित करना चाहता था, और यहां वह उलझ गया राम मंदिर के विध्वंस से। राममंदिर के विध्वंस से उत्पन्न हुए हिंदू प्रतिरोध से वह जितनी देर भी भारत में रहा, उतनी देर उसे शांति नही मिली और अपने विजित क्षेत्रों में वह सुव्यवस्था स्थापित नही कर पाया।

हिंदू प्रतिरोध का भय था बाबर को
ऐसी परिस्थियों में भारत में उसके विरूद्घ उठे हिंदू प्रतिरोध से बाबर को शिक्षा मिली और भारत के विषय में उसकी स्पष्ट मान्यता बनी कि भारत में बिना हिंदू को प्रसन्न किये शासन किया जाना असंभव है।

अत: उसने अपने पुत्र को शिक्षा दी कि मैंने धार्मिक पूर्वाग्रह को मन में लाकर उसका दुष्परिणाम देख लिया है, इसलिए तुम ऐसा मत करना। बाबर ने राममंदिर के विध्वंस के परिणाम स्वरूप जिस प्रकार हिंदू प्रतिरोध का सामना किया था, उसको देखते हुए उसने हुमायूं को यह भी समझाया कि किसी के पूजा स्थल को नष्ट मत करना, (अन्यथा स्वयं ही नष्ट हो जाएगा)।
कहने का अभिप्राय है कि बाबर की इस कथित उदारता के पीछे हिंदू प्रतिरोध का भय खड़ा था।

बाबर ने इतिहास से शिक्षा ली
इतिहास से जब व्यक्ति शिक्षा लेकर आगे बढ़ता है तो उससे ऐसे परिवर्तन की अपेक्षा की भी जाती है। बाबर ने इतिहास से शिक्षा ली और उस शिक्षा को अपने पुत्र तक पहुंचाया, पर इस घटना से हमारे इतिहासकारों ने कोई शिक्षा नही ली। यह तो हमें वही पढ़ाते जा रहे हैं कि-‘बाबर ने भारत में एक पंथनिरपेक्ष शासन की स्थापना की।’ इस एक वाक्य से ही हमारे मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष पर पानी फिर जाता है, और उनके विषय में एक धारणा बनती जाती है कि धर्मनिरपेक्ष शासकों के विरूद्घ लडक़र उन्होंने गंभीर भूल की थी।

वास्तव में ऐसे वाक्य हमारे इतिहास की नसों में विष चढ़ाने का काम करते हैं और हम जितना ही उन्हें पढ़ते हैं ये उतना ही हमें और हमारी मानसिकता को अपने इतिहास पुरूषों के प्रति विक्षिप्त और विकृत करते जाते हैं। बाबर की उपरोक्त शिक्षा को आधार बनाकर एक इतिहासकार लिखता है-‘‘साम्प्रदायिक सदभावना की दिशा में बाबर के योगदान को भी नकारा नही जा सकता। हिंदू भक्त कवियों एवं सूफी संतों के प्रयास से उत्पन्न साम्प्रदायिक सद्भाव की व्यापक भावना के साथ मुगलवंश के संस्थापक की ऐसी सीख अकबर को बौद्घिक विरासत के रूप में मिली। इसमें संदेह नही कि इससे अकबर को स्वयं अपने विचार एवं धारणाएं स्थिर करने में सहायता मिली।’’

ऐसी मान्यताओं को स्थापित करने वालों ने इतिहास से राममंदिर विध्वंस और उसके लिए अपना बलिदान देने वाले लाखों हिंदू वीरों के त्याग को इतिहास से ओझल कर दिया। इतिहास से इतना बड़ा छल हो गया और हम कुछ नही कर पाये।

शेरशाह सूरी के विषय में
बाबर की शिक्षाओं पर चलने वाला हुमायंू अब नही था। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका अल्पव्यस्क पुत्र अकबर उसका उत्तराधिकारी बना। पर हम अकबर की कहानी पर पहुंचने से पूर्व शेरशाह सूरी के ‘द्वितीय अफगान राज्य’ पर चर्चा करना उपयुक्त होगा।

बच्चे के सुकोमल मन पर उसके परिवार के बड़े गहरे संस्कार अंकित होते हैं। माता-पिता भाई-बहन और अन्य रक्त संबंधियों के आचार-व्यवहार को बच्चा बड़ी सूक्ष्मता से लेता और देखता है, जो उसे आगे आने वाले उसके जीवन में उसका मार्ग दर्शन करते हैं।

शेरशाह जब एक बालक था, तो उसका पिता हसन खां उसे और उसकी माता को बहुत दुखी रखता था, क्योंकि वह अन्य महिला दासियों के साथ रहना पसंद करता था। स्वाभाविक है कि ऐसी परिस्थितियों से घर का परिवेश कलहपूर्ण होता है। अपने बच्चे के साथ भी उत्पीडऩात्मक व्यवहार करने के कारण फरीद (शेरशाह) अपने पिता से विद्रोही हो गया। एक दिन यही बालक डाकुओं के गिरोह से जा मिला और डाके डालने लगा। अत: डाकू से राजा बनने वाला फरीद जब शेरशाह के नाम से राजसिंहासन पर बैठा तो उसके भीतर बचपन की कुण्ठा से जनित उसके कुंठित विचारों ने उसे हिंदू के प्रति वैसा ही क्रूर बना दिया था जैसा कि हर बालक ऐसी परिस्थितियों में बन जाया करता है।

 

रायसीन के हिंदू शासक पूरनमल पर आक्रमण
जब वह शासक बना तो 1543 ई. में उसने रायसीन के हिंदू शासक पूरनमल पर आक्रमण कर दिया। पूरनमल एक साहसी हिंदू शासक था। उसने शेरशाह की सेना की चुनौती स्वीकार कर ली और युद्घ से भागना या पीठ दिखाना उचित नही समझा। दोनों पक्षों में घोर संग्राम आरंभ हो गया।

हिंदुओं की वीरता और साहस को देखकर शेरशाह को कुछ सूझे नही सूझ रहा था कि अंतत: हिंदू वीरों को परास्त कैसे किया जाए? अंत में उसने एक उपाय खोज निकाला। उसने हिंदुओं को और उनके शासक राजा पूरनमल को आश्वस्त किया कि यदि वे लोग संधि कर लें तो वह उनका पूरा सम्मान करेगा और उनको किसी भी प्रकार की प्राणहानि भी न होने देगा। पवित्रात्मा हिंदुओं ने शेरशाह के इस आश्वासन पर विश्वास कर लिया और ‘युद्घ से शांति की ओर’ चल पड़े। फलस्वरूप युद्घ को मध्य में ही छोड़ हिंदुओं ने समर्पण कर दिया। अब नि:शस्त्र हिंदू अगले दिन जैसे ही दुर्ग से बाहर आये तो शेरशाह की सेना ने उन सब पर अचानक आक्रमण कर उन्हें काटना आरंभ कर दिया।

हिंदुओं की भूल
हिंदू भूल गये थे कि मक्खी के मस्तक में विष होता है, बिच्छू की पूंछ में विष होता है और सर्प के दांत में ही विष होता है, परंतु दुष्ट व्यक्ति तो अंग-अंग में विष होता है। कहने का अभिप्राय है कि इन जीवधारियों के शरीर के तो किसी अंग विशेष में ही विष की थैली होती है, परंतु दुष्ट व्यक्ति के तो अंग-अंग में विष भरा होता है।

शेरशाह ने स्पष्ट कर दिया कि उसकी मानसिकता क्या हो सकती है, और वह हत्याओं के लिए कितना नीचे गिर सकता है?

मुस्लिम इतिहासकार का कथन
शेरशाह ने हिंदुओं को अपने जाल में फंसाकर जिस प्रकार नरसंहार कराया उसका उल्लेख अब्बास खान शेरवानी ने इस प्रकार किया है-

‘‘अफगान ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया और हिंदुओं का वध करना आरंभ कर दिया। पूरनमल और उसके साथी घबराई हुई भेड़ों व सूअरों की भांति, वीरता और युद्घ कौशल दिखाने में सर्वथा असफल रहे और एक आंख के इशारे मात्र से ही कुछ ही समय में सबके सब ढेर हो गये। उनकी पत्नियां तथा परिवार बंदी बना लिये गये। पूरनमल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया। शेरशाह ने पूरनमल की पुत्री को किसी घुमक्कड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके और लडक़ों को बधिया, खस्सी करा दिया जिससे कि हिंदुओं का वंश न बढ़ सके।’’
(संदर्भ : ‘तारीखे शेरशाही : एलियट एण्ड डाउसन’ खण्ड-4, पृष्ठ 403)

वीर हिंदू राजा को मिल गया देशभक्ति का ‘पुरस्कार’
इस प्रकार एक वीर राजा पूरनमल को उसकी देशभक्ति का उचित पुरस्कार मिल गया। उसका और उसके हजारों सैनिकों का वध कर दिया गया। पर उस महान हिंदू वीर ने संकट की अत्यंत विषम परिस्थिति में भी साहस नही खोया और धर्म नही छोड़ा। यह क्या कम वीरता की बात है?

शेरशाह ने अपने शासनकाल में हिंदुओं का शोषण और उत्पीडऩ करने के लिए अपने अश्वधावकों को आदेश दिया कि-‘‘हिंदू गांवों की जांच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरूष मिलें, उनका वध कर दें, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लें, पशुओं को भगा दें, किसी को भी खेती न करने दें पहले से बोई फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ोस के भागों से कुछ भीन लाने दें।’’
(संदर्भ : तारीखे-शेरशाही, अब्बासखान शेरबानी, इलियट एण्ड डाउसन खण्ड-4 पृष्ठ 316)

अब्बास खान शेरवानी का उपरोक्त कथन शेरशाह के विषय में स्पष्ट कर देता है कि वह भारत के लिए और विशेषत: हिंदुओं के लिए कितना हितकारी था? उसे भी कुछ लोगों ने अनावश्यक ही पंथनिरपेक्ष और न्यायप्रिय शासक सिद्घ करने का प्रयास किया है, पर जब तक शेरवानी के द्वारा लिखित उपरोक्त कथन हमारे पास उपलब्ध हैं तब तक शेरशाह को पंथ निरपेक्ष और न्यायप्रिय कहे जाने की बातें हास्यास्पद ही प्रतीत होती रहेंगी।

जोधपुर नरेश मालदेव की वीरता
पाठकों को स्मरण होगा कि जोधपुर के राजा मालदेव ने हुमायूं को अपने यहां शरण देने पर सहमति व्यक्त की थी। यह बात जब शेरशाह के कानों तक पहुंची तो उसे बहुत बुरा लगा। इसलिए शेरशाह ने जोधपुर के राजा मालदेव को समाप्त करने का मन बना लिया। इसके अतिरिक्त उस समय जोधपुर के राजा ने अपना साम्राज्य भी बहुत बढ़ा लिया था। उनकी शक्ति उस समय के हिंदू राजाओं में सबसे बढक़र हो गयी थी। इतना ही नही राजा मालदेव के राज्य की सीमाएं कहीं-कहीं शेरशाह के साम्राज्य की सीमाओं का भी अतिक्रमण कर रही थीं। इसलिए शेरशाह के लिए यह उचित था कि मालदेव को उसकी ‘सीमाओं’ में ही रखा जाए। उसे भय था कि यदि मालदेव को नही कुचला गया तो वह देर सबेर उसके लिए एक संकट उत्पन्न कर सकता है। इसलिए शेरशाह ने राजा मालदेव के राज्य पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों में भयंकर युद्घ हुआ। मालदेव ने अपने को उस समय संपूर्ण हिंदू शक्ति का एक प्रतिनिधि मानकर युद्घ किया, और क्षत्रिय धर्म की हर मर्यादा का पालन किया।

शेरशाह को भारी क्षति उठानी पड़ी
भीषण संग्राम में शेरशाह को भारी क्षति उठानी पड़ी। युद्घ में शेरशाह को एक समय स्वयं अपने प्राणों का संकट उत्पन्न हो गया था। यद्यपि युद्घ का परिणाम उसके अनुकूल रहा, परंतु वह जीतकर भी इतना निराश था कि उसने कह दिया था-‘‘एक मुट्ठी बाजरे के लिए वह दिल्ली की सल्तनत से हाथ धो सकता था।’’

कहने का अभिप्राय है कि शेरशाह को युद्घ के मैदान में दिन में तारे दिखायी दे गये थे, उसे अपनी भूल का अनुभव हो गया था कि उसने यहां आकर कितना बड़ा संकट आमंत्रित कर लिया है? उधर राजा मालदेव की चिता जली तो वहां पर उसकी वीरांगना रानी ने उसके साथ सती होना उचित समझा। राजा मालदेव की यह रानी जैसलमेर वाली रानी के नाम से प्रसिद्घ थी। इस वीरांगना ने परिस्थितियों को समझा और अपने पति के साथ सती होकर अपने पतीत्व का सतीत्व की रक्षा की।

राजा और रानी में रही थीं जीवन भर दूरियां
राजा मालदेव की जैसलमेर वाली रानी और और उसके स्वयं के संबंध जीवन भर कटुतापूर्ण रहे। इसके लिए कहा जाता है कि रानी ने अपनी सुहागरात के दिन राजा मालदेव को अपनी एक भारमली नामक दासी के साथ आलिंगन बद्घ देव लिया था। जिस पर रानी अत्यंत क्रुद्घ हो गयी थी। राजा ने अपनी रानी का आजीवन मुंह भी नही देखा था। कारण कि रानी ने उसी समय राजा से अपने को अलग कर लिया था।

जब शेरशाह ने राजा मालदेव के राज्य पर आक्रमण किया तो राजा को अपनी जैसलमेर वाली रानी का स्मरण हो आया। राजा उसे असीम प्रेम करता था और वह युद्घ में जाने से पूर्व एक बार अपनी रानी से मिल लेना चाहता था। इसलिए उसने अपनी रानी के पास संदेश भिजवाया कि राजा उनसे मिलना चाहते हैं। रानी ने भी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए राजा से मिलने की अपनी स्वीकृति दे दी। परंतु एक चारण ने रानी का मन परिवर्तित कर दिया और रानी ने ‘हां’ कहकर फिर ‘ना’ कर दी।

इतिहासकार ने बड़ी मनोवैज्ञानिक बात कही है कि राजा मालदेव के लिए रानी का यह आचरण बहुत ही कष्टकर रहा। जिसने उसके युद्घ में जाने और युद्घ करने पर भी घातक प्रभाव डाला। राजा अंतिम युद्घ के लिए निकला था और अंतिम युद्घ से पूर्व अपनी रानी से प्रायश्चित के लिए पहली और अंतिम भेंट कर लेना चाहता था, पर उसकी यह अभिलाषा पूर्ण नही हुई। राजा के विषय में रानी को जब युद्घ में वीरगति प्राप्त करने का समाचार मिला तो उसे भी अपनी भूल पर असीम कष्ट हुआ, और उसने प्रायश्चित स्वरूप स्वयं को अग्नि को सौंप दिया।

इस प्रकार मां भारती के लिए एक ऐसा ‘प्रेमी युगल’ राजा और रानी के रूप में हुतात्मा हो गया जो पति-पत्नी होकर भी पति-पत्नी नही थे और जो राजा-रानी होकर भी राजा और रानी नही थे। ये एक ऐसा जोड़ा था जिनके बीच से संदेह की एक सरिता बहती रही और ये दोनों पथिक एक उस किनारे पर तो दूसरा उस किनारे पर बैठा प्रतीक्षा करता रहा कि नदी शांत हो जाए तो मिल लिया जाए, पर नदी शांत नही हुई और काल ने उन दोनों को ही शांत कर दिया।

इतिहास इस जोड़े को पहचानता नही है, और हम उसे जानते नही हैं। अपनी वीरतापूर्ण ‘मृत्यु’ के माध्यम से वे मिल चुके हैं, पर हमने अभी उनकी ‘मृत्यु’ को भी नही जाना है? कितने कृतघ्न हैं हम?

राष्ट्रीय संकल्प और राष्ट्रीय अस्तित्व
अपनी भारत भूमि से शत्रु को सदा के लिए खदेड़ देना हमारे लिए राष्ट्रीय संकल्प और राष्ट्रीय अस्तित्व का प्रश्न था। इस महान राष्ट्र को बचाने के लिए तथा विदेशी आततायियों को यहां से खदेडक़र बाहर निकालने के लिए इस राष्ट्रीय संकल्प और अस्तित्व का प्रतीक राजा मालदेव बना, जिसने उस काल में शेरशाह की चुनौती को स्वीकार किया, जब कहीं से भी कोई संभावना उस चुनौती को स्वीकार करने हेतु दिखाई नही दे रही थी। वीर सावरकर का कहना है-

‘‘इस महान राष्ट्र को मरने से बचाने के लिए राष्ट्रीय परतंत्रता के इस महारोग को नष्ट करने के लिए स्वयं पर और राष्ट्र पर अपरिहार्य शस्त्र क्रिया करवाकर गुलामी के रोगाणुओं और रोग ग्रंथी को काटकर निकाल फेंकना केवल आपद्धर्म ही नही, अपितु नीति की दृष्टि से भी अति पवित्र कत्र्तव्य है। अपरिमित हिंसा टालने के लिए दुष्टों के उत्पात को रोकने वाली किंचित हिंसा ही वास्तविक अहिंसा है, यह बात मन में समा गयी थी। इसलिए हमने सशस्त्र क्रांति का बीड़ा उठाया। फिर भी यह भूलना न होगा कि यदि किसी जादूगर के छूमंतर से हिंदुस्थान को स्वतंत्र करके अंग्रेज अपने आप (यहां प्रसंगवश मुगल सत्ता शब्द रखा जा सकता है) राजी हो जाऐं तो किसी से भी अधिक खुशी हमें हुई होती।’’

मंदिरों भवनों पर अधिकार करने से लगी आग
जिन मंदिरों को तोडक़र या उनका मस्जिदीकरण करके और जिन भवनों को तोडक़र या तो नष्ट किया गया या उनको बलात् हड़पकर उन पर मकबरे आदि बना दिये गये, उनकी पीड़ा उस समय का हिंदू समाज मन से अनुभव करता था।

इसलिए हिंदू लोगों में मोर्चाबंदी करके विदेशी शासकों को उखाड़ फेंकने और उनके विरूद्घ विद्रोह करने की भावना जन्म लेती थी। शेरशाह के पिता के द्वारा सासाराम के निकटवर्ती क्षेत्रों में कई हिंदू मंदिरों और भवनों को या तो गिराया गया या फिर उनका अपने ढंग से रूपांतरण कर दिया गया था। इन स्थलों को शेरशाह ने अपने पिता से लेकर इन्हीं के माध्यम से हिंदू दमन का चक्र चलाया। इसलिए हिंदुओं में उसके प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। आज कल इन मंदिरों-भवनों को, कई स्थानों पर हम सूरवंश के शासकों के मकबरों के रूप में या मस्जिदों के रूप में जानते हैं।

इतिहास की वेदना
जब लोगों के सामने इतिहास उजड़ता है तो देखने वाले हर व्यक्ति को पीड़ा होती है, पर जब सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों को नष्ट किया जाता है तो उस समय तो स्वयं इतिहास भी मारे वेदना के चीख उठता है। क्योंकि राजनीति इतिहास को जिस रूखे-सूखे भोजन को परोसती है, संस्कृति उसे सुपाच्य और सुपौष्टिक बनाकर खाने के लिए स्वयं इतिहास को परोसती है। इसलिए भारत में संस्कृति का विकास हुआ और सांस्कृतिक विकास का इतिहास ही इस का वास्तविक इतिहास है।

हम भारतीयों की विशेषता रही है कि राजनीति चाहे कितनी ही पतित हो जाए, कितनी ही रक्तिम् हो जाए हमें उससे कुछ लेना देना नही होता, पर हम संस्कृति को पतित या रक्तिम् नही होने देते हैं। क्योंकि संस्कृति पवित्र राजनीति की आधारशिला है। यदि संस्कृति अपसंस्कृति हो जाएगी तो राजनीति के लिए प्राणों का संकट उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए यह तथ्य उपेक्षित नही किया जाना चाहिए कि शेरशाह के काल में सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों पर किये गये आक्रमणों को या उनके विनष्टीकरण की प्रक्रिया को हिंदुओं ने मौन रहकर सहन नही कर लिया था। हिंदुओं ने शेरशाह को कभी अपना शासक नही माना और वह निरंतर उनके गांव के गांवों को नष्ट करता रहा। ‘तारीखे-शेरशाही’ का लेखक बताता है कि उसने हिंदुओं के अनेकों गांवों को नष्ट कर दिया था और उन खाली गांवों में विदेशी मुसलमानों को बसा दिया। यह साक्षी स्पष्ट करती है कि शेरशाह सूरी का भारत के हिंदुओं के प्रति और हिंदू धर्म के प्रति कैसा दृष्टिकोण था? इसी साक्षी से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत में हिंदुओं ने शेरशाह सूरी का साथ क्यों नही दिया? बात स्पष्ट है कि जो शासक हिंदुओं के गांवों का चिन्हीकरण कर उन्हें मिटाने पर उतारू हो, उसके साथ सहयोग करने का कोई प्रश्न ही नही उठता था।
ऐसी घटनाओं ने शेरशाह के काल में भी भारत का स्वातंत्रय समर निरंतर जारी रखा।

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